BLOG: आप अभी उसी सड़ांध से भरे पड़े हैं, फिर कहते हैं औरतें हाथ से निकल गई हैं!
हमारी सोच बदल चुकी है, और आप अभी उसी सड़ांध भरे घूरे में पड़े हैं. फिर कहते हैं, औरतें हाथों से निकल गई हैं. इस बार बात यह निकली है कि देश का हर 3 में से 1 आदमी ऐसा सोचता है कि फैमिली प्लानिंग करने की सारी जिम्मेदारी औरत की है. उसे पता तो सब कुछ है- किन-किन तरीकों से फैमिली प्लान की जा सकती है- लेकिन उन तरीकों को अपनाता नहीं. बच्चे पैदा करेगी औरत, तो वही उसे न पैदा करने का तरीका भी इस्तेमाल करे. ऑपरेशन कराए या गोलियां खाए.
हमारे देश में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे यानी एनएफएचएस करवाता है. इसके चौथे राउंड के रिजल्ट्स से पता चलता है कि आदमियों की सोच अभी जहां की तहां है. वे अब भी सोचते हैं कि परिवार प्लान करने का फैसला औरत का ही है. और जो औरतें गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल करती हैं, वे सेक्सुअली रिलेशनशिप्स को लेकर बहुत कैजुअल हो जाती हैं. फ्री हो जाती हैं. हां, औरते फ्री तो हो रही हैं- पर सोच के स्तर पर. इसी सर्वेक्षण में 83 परसेंट शादीशुदा औरतें कहती हैं कि फैमिली प्लान करने का फैसला संयुक्त फैसला होता है. अकेले बर्डन हम क्यों झेलें.
औरतें कुछ आगे बढ़ रही हैं लेकिन आदमी अकड़कर बैठा हुआ है. राष्ट्रीय परिवार नियोजन कार्यक्रम में गर्भ निरोध के दो तरीके आते हैं- एक जिनका इस्तेमाल आदमी करते हैं, दूसरे जिनका इस्तेमाल औरतें करती हैं. तो, आदमी औरतों को हर तरीका अपनाने पर मजबूर कर रहा है. एनएफएचएस के चार राउंड्स से यह साफ हुआ है कि आदमियों के गर्भनिरोध के तरीकों का इस्तेमाल बहुत ही कम होता है. ये दो तरीके नसबंदी और कंडोम हैं. इन दोनों का जोड़ निकाला जाए तो इनका उपयोग लगभग 12 परसेंट किया जाता है. गांवों में तो यह दर सिर्फ 9 परसेंट है. हमारे यहां माना जाता है कि कंडोम जीवन के आनंद को बेदम करता है, और नसबंदी... वह तो मर्दानगी पर बट्टा है.
आदमी का कहना क्या... उसने हर जगह कब्जा जो जमाया हुआ है. वही पॉलिसी बना रहे हैं, पॉलिसियों को लागू भी कर रहा है. उसने तय किया है कि अब औरतों को डीएमपीए दवा के इंजेक्शन मुफ्त लगाए जाएं. इन बर्थ कंट्रोल इंजेक्शंस का इस्तेमाल हमारे यहां प्राइवेटली होता रहा है, करीब 20 साल से, लेकिन सरकारी अस्पतालों में नहीं. अब सरकारीआउटलेट्स में भी इन्हें मुफ्त उपलब्ध कराया जाएगा. औरतों के रीप्रोडक्टिव अधिकारों की दुहाई देते हुए यह पहल की गई है- कि वह तय करे कि उसे कब और कितने बच्चे चाहिए. यह दलील देकर उसके सिर पर ही जिम्मेदारी का टोकरा रखा गया है. अब डीएमपीए के साइड इफेक्ट्स जो हों. इतनी फुरसत किसे कि इसके लिए कोई स्टडी भी की जाए.
देखा जाए कि इसका सेहत पर क्या असर होता है. हद से हद क्या होगा- कोई इस दवा से स्वर्ग सिधार जाएगा. ऐसा तो औरतों की सामूहिक नसबंदी में भी होता है— नेशनल अलायंस ऑन मेटरनल हेल्थ एंड ह्यूमन राइट्स चिल्लाता रहे कि हर साल नसंबदी कराने वाली 40 से 50 लाख औरतों में लगभग एक हजार औरतों के प्राण पखेरू उड़ जाते हैं. अब इतने बड़े देश में ऐसे छोटे-छोटे नंबर्स पर इतना ध्यान कौन देता है.लेकिन औरतें सोच रही हैं कि जीवनसाथी के साथ मिलजुलकर घर-परिवार बसाया जाए. इसीलिए अपनी तरह से दबाव भी बना रही हैं. आदमी इस दबाव में नहीं आना चाहता. तो, छोटी-मोटी हिंसा भी कर बैठता है!!
इस पर अमेरिकी सोशल साइंटिस्ट्स आर. स्टीफेंसन और एम ए कोईनिग ने एक पेपर लिखा है- ग्रामीण भारत में घरेलू हिंसा, गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल और अवांछित गर्भावस्था. उनका कहना है कि कई बार मर्दों की तरफ से की जाने वाली हिंसा औरतों के, गर्भनिरोध के फैसले को प्रभावित करती है. दूसरी तरफ गर्भनिरोध के फैसले की वजह से भी औरतें मर्दो की हिंसा की शिकार होती हैं. इस पेपर में इन दोनों के बीच को-रिलेशन साबित हुआ है. इस पर हैदराबाद के एक नॉन प्रॉफिट ने 2016 में एक सर्वेक्षण किया था- उसमें 83 परसेंट औरतों ने कहा था कि उनके साथ होने वाली घरेलू हिंसा में दूसरी सबसे बड़ी वजह यह है कि वे दो से ज्यादा बच्चे नहीं चाहतीं. 62 परसेंट के पति गर्भनिरोध के साधन इस्तेमाल करने पर उन्हें पीट डालते थे. 87 परसेंट चुपचाप किसी न किसी साधन का इस्तेमाल करती थीं. इनमें से सिर्फ 7 परसेंट को यह पता था कि औरतों के लिए भी कंडोम मार्केट में उपलब्ध है.
आदमी आदमी ही रहेगा. 1672 से 1727 में मोरक्को के सुल्तान इस्माइल इब्न शरीफ के चार बीवियों और 500 से ज्यादा पार्टनर्स से 800 से ज्यादा बच्चे हुए थे. तब गर्भ निरोध के साधन नहीं होते थे. लेकिन आज हैं. यह बात और है कि आदमियों का ट्रैक रिकॉर्ड इस मामले में बहुत खराब है. एनएफएचएस में 15 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के डेटा बताते हैं कि 2005 से 2006 के दौरान तमिनलाडु, पुद्दूचेरी, गोवा और अंडमान निकोबार द्वीपसमूह में पुरुष नसबंदी का कोई केस नहीं किया गया. औरतों पर दबाव कम होगा, जब उन्हें जागरूक बनाया जाएगा. जैसा कि कनाडा की मशहूर फेमिनिस्ट स्कॉलर मिशेल मर्फी कहती हैं, आदमजात के लिए दुनिया का सबसे अच्छा कॉन्ट्रासेप्टिव है, औरतों की पढ़ाई-लिखाई. लेकिन साथ में आदमियों की पढ़ाई-लिखाई भी बहुत जरूरी है. आदमी-औरत की पढ़ाई-लिखाई से दोनों साथ-साथ चहलकदमी करेंगे तो रास्ते साफ होते जाएंगे. तब उन्हें समझ आएगा कि औरतों के फैसले न तो समाज की चूलें हिलाते हैं और न ही परिवार की धज्जियां. एक अदद फैसला कई बार परिवार और समाज की नींव मजबूत कर देता है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)