BLOG: तीन तलाक मर्दानगी की पैमाइश तो बिल्कुल नहीं
सुप्रीम कोर्ट के एक छोटे से फैसले से यह साबित हुआ है कि फैसले औरत के हक में भी आ सकते हैं.
बीवी बगीचे में टहलती हुई शौहर से आगे निकल गई- उसकी मर्दानगी को ठेस लगी. मना किया. वह नहीं मानी तो तीन बार तलाक बोल दिया. सऊदी अरब का यह केस हमारे यहां भी दोहराया जाता रहा है. बीवी ने सेक्स से मना किया. फेवरेट डिश नहीं परोसी. गेस्ट्स का स्वागत हंसकर नहीं किया. पति बिफर गया. सो, तीन तलाक से बीवी को मजा चखा दिया. औरत का यही हश्र होना चाहिए. एक औरत ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई. अब ‘घर के मामले’ में अदालत ने दखल दे दी है. इस मामले में एक बड़ा फैसला आया है. सुप्रीम कोर्ट ने इंस्टेंट तीन तलाक पर रोक लगा दी है. हालांकि उसने इस किस्म के तलाक को रद्द नहीं किया है लेकिन एक बार में तीन तलाक देने पर छह महीने के लिए रोक लगा दी है. इस बीच सरकार इसके खिलाफ कानून बना सकती है. कानून बनाने का काम संसद का है.
कुर्तक देने वाले बहुत से हैं. उनका कहना है कि संविधान का अनुच्छेद 25 धार्मिक रीति-रिवाज का पालन करने की इजाजत देता है. चूंकि शरीयत धार्मिक कानून है इसलिए हमें उसमें लिखी बातों को मानने का हक है. 1937 का शरीयत एप्लीकेशन एक्ट तीन तलाक की इजाजत देता है. पर अनुच्छेद 25 व्यक्तिगत अधिकार की बात करता है, समूह के अधिकार की बात नहीं. यह धर्म का पालन करने की बात करता है, धर्म के नाम पर विकृति लाने की वकालत नहीं करता. कोर्ट से इस बारे में फैसला सुनने को कहा गया था. कोर्ट ने फैसला सुना दिया है.
मुश्किल यह है कि इंसान सिर्फ कानून का मोहताज नहीं. रिश्तों की टीस अक्सर कानूनी भाषा से परे की कहानी कहती है. औरत के लिए घर का पिंजरा ही उसकी दुनिया है. वह हमेशा पर्दे में रहती है. बच्चे जनना, उनके पोतड़े साफ करना, पति की सेवा-पानी करना. वह प्रोफेशनल नहीं और ना ही कारोबार या सियासत में उसकी कोई खास दखल है. उसकी हालत ज़िबह के लिए तैयार मेमने की तरह है जो सड़कों पर अपने हुक़ूक के लिए नहीं उतर सकती. उतरती है तो गुनहगार हो जाती है. तलाक मिल जाए तो गंदी भी हो जाती है. समाज को इरिटेट करती है. वह तो अपनी व्यवस्था के आनंद में डूबा बैठा होता है. फिर डिक्टेटर में ट्रांसफॉर्म हो जाता है. इस बीच औरतों की आंखों में वह कर्फ्यू तैरता रहता है जो समाज उसके इर्द- गिर्द लगाता है.
इसीलिए हक मांगने का हक सभी को है. कानून के दो ही उद्देश्य हैं. एक तो वह किसी भी व्यक्ति या समूह को न्याय दिलाता है. दूसरा यह कि उसी के जरिए यह साबित होता है कि समाज का दृष्टिकोण क्या है. उसके लिए जीरो टॉलरेंस का क्या मायने हैं. अपराध क्या है और उसके लिए क्या दंड दिया जाना चाहिए. इसी दूसरे उद्देश्य की वजह से हम समाज में बराबरी का दर्जा मांग सकते हैं. भले ही वह किसी को सही लगे या न लगे. मुस्लिम औरतों के लिए तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला इसी दूसरे उद्देश्य को पूरा करता है. वे तीन तलाक के सिर्फ एक पक्ष के खिलाफ थीं- उसके स्वेच्छाचारी, निरंकुश और मनमाने तरीके के खिलाफ.
मर्द के लिए इस मनमाने तरीके से शादी जैसे रिश्ते से बाहर निकलना बहुत आसान है. जाहिर सी बात है, समाज में मर्द ही कानून बनाते हैं, मर्द ही उनका पालन करते हैं. ऐसे ही मर्दों ने हिंदू मैरिज एक्ट में दांपत्य संबंधों की बहाली का प्रावधान रखा है. मतलब सालों तक अलग रहने के बाद भी आप चाहें तो कानूनन दांपत्य संबंधों की बहाली की अपील कोर्ट से कर सकते हैं. इसी तरह इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट में तलाक को इतना मुश्किल बनाया गया है कि आप इसके बारे में सोचें भी मत. दरअसल हर धर्म के पर्सनल लॉ औरतों के लिए जीना मुश्किल बनाते हैं इसलिए उनके खिलाफ होना जरूरी है.
दिलचस्प बात यह है कि 1937 का शरीयत कानून विवाह की आयु, मेहर, पॉलिगेमी, बच्चों की गार्जियनशिप, संपत्ति में महिला की हिस्सेदारी वगैरह के बारे में कुछ नहीं कहता. बेशक, हमारे यहां सब कुछ तय करने वाले मर्द ही हैं. मर्दों ने कहा कि औरतें काज़ी नहीं हो सकतीं, इसलिए राजस्थान की दो महिला काज़ियों जहांआरा और अफरोज बेगम की वैधता पर ही सवालिया निशान लगा दिए गए. इन दोनों ने काज़ियत के सर्टिफिकेट हासिल करने के बाद ही अप्रैल में कार्यभार संभाला है. काज़ी औरतें होंगी तो औरतों के पक्ष में फैसले आएंगे. मर्द हमेशा से काज़ी बनते रहे हैं, इसलिए मर्दों के हक में फैसले सुनाते आए हैं. सुप्रीम कोर्ट के एक छोटे से फैसले से यह साबित हुआ है कि फैसले औरत के हक में भी आ सकते हैं.
औरतों के बारे में सोचना भी उतना ही जरूरी है. शादी-ब्याह में पवित्र बंधन जैसा कुछ नहीं. यह दो वयस्क लोगों के बीच का कॉन्ट्रैक्ट है जिसमें दोनों को बराबर की हिस्सेदारी मिलनी चाहिए. अक्सर उनमें ताकत का बंटवारा असमान होता है. फिर वह शौहर को ढोती रहती है. वह उसका रेप करता है- वह चुपचाप विक्टिम बनी रहती है. वह उसे जमीन जायदाद पर हक नहीं देता. वह लाचार बनी रहती है. मर्द मजबूत इसीलिए है क्योंकि एक कम्यूनिटी में तब्दील हो चुका है- हर एंटिटी पर उसका ही कब्जा होता है. औरतें कम्यूनिटी नहीं बन पातीं. इसीलिए बात सिर्फ तीन तलाक ही नहीं, उसकी अपनी मर्जी की भी है. उसके पहनने, खाने, जीने, सबकी है. इस पर धर्म के ठेकेदारों, नैतिक सिपाहियों से बहस करना जरूरी है. वे बताएं कि संस्कृति-समाज-परिवार का ठेका किसने लिया है. इन सबको औरतों से जोड़ने वाले मुख्तार वे कौन हैं. देश में एक ऐसा पागलखाना तैयार किया जाना चाहिए जहां संस्कृति की दुहाई देने वालों का इलाज हो. ऐसे अच्छे दिनों की चाह हमें भी है.
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