सद्गृहस्थ संत कवि कुम्भन दास सदैव अर्थाभाव में जीने वालों में से थे. उन्होंने फतहपुर सीकरी जाकर बादशाह अकबर के राज दरबार में बैठने का ऑफर ठुकराते हुए एक बार कह दिया था- 'संतन को कहा सीकरी सों काम, आवत जात पनहियां टूटीं, बिसरि गयो हरि नाम, जिनको मुख देखे दु:ख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम!' अर्थात्‌ संतों को राजधानी या राजदरबार से क्या काम हो सकता है? राजधानी का चक्कर लगाते-लगाते जूते घिस जाएंगे और भगवान का नाम भूल जाएगा सो अलग. जिनका मुंह देखने मात्र से दुःख उत्पन्न होता है, उन्हें भी प्रणाम करना पड़ेगा. लेकिन मध्य प्रदेश के पांच संतों ने राज्य मंत्री का पद स्वीकार करके यह जता दिया है कि उनकी जान सीकरी में ही बसती है.


मंत्री बन जाने से उन्हें पीए और निजी स्टाफ रखने के अलावा कई सरकारी सुविधाओं के साथ-साथ 7500 रुपए मासिक वेतन, शानदार गाड़ी और 1000 किलोमीटर के सफर का डीजल, 15,000 रुपए मकान किराया और 3000 रुपए सत्कारी भत्ता मिला करेगा. विडंबना देखिए कि कभी भारतीय संत अपनी मेहनत से पेट पालते थे और लोक-परलोक सुधारने हेतु प्रभुस्मरण करते थे! मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने नर्मदा नदी के संरक्षण के लिए गठित समिति में शामिल पांच विशिष्ट संतों को अपने मंत्रिमंडल में राज्य मंत्री का दर्जा दे दिया है. इन धार्मिक नेताओं में सर्वश्री नर्मदानंद महाराज, हरिहरनंद महाराज, नामदेव दास त्यागी (बैरागी सम्प्रदाय) उर्फ कंप्यूटर बाबा, उदय सिंह देशमुख उर्फ भय्यू महाराज और पंडित योगेंद्र महंत का नाम शामिल हैं.


दिलचस्प यह भी है कि यही पांचों संत ‘नर्मदा घोटाला’ का आरोप लगाते हुए शिवराज सरकार के खिलाफ एक अप्रैल से 15 मई तक की रथ यात्रा निकाल रहे थे! आश्चर्य शिवराज के ऑफर पर नहीं बल्कि संतों द्वारा यह ऑफर स्वीकार किए जाने पर व्यक्त किया जा रहा है, क्योंकि हिंदू समाज में यही मान्यता है कि 'संतन को कहा सीकरी सों काम?’ शायद इसीलिए हाईकोर्ट की इंदौर खंडपीठ में इन्हें राज्यमंत्री का दर्जा देने के खिलाफ याचिका दायर कर दी गई है.


मंत्री बनते शिवराज के खिलाफ रथ यात्रा भूले कम्यूटर बाबा


राज्यमंत्री बनाए जाने का सबसे पहला असर यह हुआ है कि कभी शिवराज को झूठों का सरदार बताने वाले कम्यूटर बाबा और पंडित योगेंद्र महंत ने अपनी ‘नर्मदा घोटाला रथ यात्रा’ तत्काल प्रभाव से बीच में ही छोड़ दी है. हमेशा लैपटॉप लेकर घूमने वाले हेलीकॉप्टर के दीवाने कम्प्यूटर बाबा ने नर्मदा किनारे होने वाले वृक्षारोपण में छह करोड़ पौधों के घोटाले का आरोप लगाया था लेकिन मंत्री बनते ही जनता को अप्रैल फूल बना दिया!


मंत्री बनते भय्यू जी महाराज ‘नर्मदा घोटाला’ भूल गए


हाई प्रोफाइल और मॉडर्न संत भय्यू जी महाराज ने स्वयं को राष्ट्र संत घोषित कर रखा है. वो कांग्रेस और बीजेपी दोनों के करीबी हैं. 2016 के उज्जैन सिंहस्थ में आयोजित ‘विचार कुम्भ’ में जब बीजेपी सरकार ने उन्हें आमंत्रित नहीं किया था तब उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके हिंदू धर्म छोड़ देने तक की धमकी दे डाली थी. राज्यमंत्री का दर्जा मिलने के बाद अब वह ‘नर्मदा घोटाला’ भूल गए हैं!


स्वामी हरिहरानंदजी भी विरोधी रथ यात्रा में शामिल थे


स्वामी हरिहरानंदजी ने ‘नमामि देवि नर्मदे सेवा यात्रा’ के दौरान जनसभाओं और वर्कशॉप के जरिये लोगों को वृक्षारोपण, साफ-सफाई, मिट्टी और जल संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण के उपाय और आर्गेनिक फार्मिंग के लिए प्रोत्सासहित किया था और विरोधी रथ यात्रा में शामिल थे.


मंत्री बनते शिवराज सरकार को सर्वश्रेष्ठ सरकार घोषित किया


पंडित योगेंद्र महंत तो 15 मई तक 45 जिलों में चलने वाली इस रथ यात्रा के संयोजक ही थे. शिवराज सरकार को कभी माफिया की सरकार बताने वाले ये बाबा लोग अब अपने सुर बदलते हुए उसे एमपी की अब तक की सर्वश्रेष्ठ सरकार घोषित कर रहे हैं.


आज़ादी के बाद से बीजेपी-कांग्रेस सब में रही है बाबाओं की दीवानगी


भारतीय राजनीति में संतों और बाबाओं की भूमिका आजादी के बाद से ही कम दिलचस्प नहीं रही है. पूर्व पीएम स्वर्गीय इंदिरा गांधी पायलट बाबा के फेर में पड़ीं तो पीवी नरसिम्हा राव तांत्रिक चंद्रास्वामी की शरण में पड़े रहते थे. शीर्ष नेताओं को अपनी लात से आशीर्वाद देने वाले देवराहा बाबा, महर्षि महेश योगी, संत अवैद्यनाथ, आशुतोष महाराज, संत आसाराम बापू, बाबा रामपाल, गुरमीत राम रहीम, स्वामी नित्यानंद आदि के खुलेआम चरण चूमते देखा गया है.


बीजेपी की सरकार में श्रीश्री रविशंकर और बाबा रामदेव का जलवा तो सर्वविदित ही है. एक जमाना था जब बाबाओं के चरण चूमने से नेताओं की ताकत बढ़ती थी अब नेताओं की नजदीकी से बाबाओं का जलवा बढ़ता है. पहले बाबा लोग नेताओं का साथ देते थे, लेकिन अब स्वयं नेता बन बैठे हैं. योगी आदित्यनाथ, उमा भारती, साध्वी निरंजन ज्योति, प्रणय कृष्ण, साक्षी महाराज, स्वामी चिन्मयानंद, सतपाल महाराज आदि इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं.


कहा यह भी जाता है कि साधु-संन्यासियों को राजनीति में दखल नहीं देना चाहिए. उनकी भूमिका धर्म-कर्म और अध्यात्म के प्रचार तक ही सीमित रहे तो ठीक है. लेकिन अब तो संतगण व्यापार से लेकर मॉडलिंग तक में हाथ आजमा रहे हैं. भारतीय संत संस्कृति का यह बदलता हुआ चेहरा है. वह पारलौकिक से इहलौकिक होता जा रहा है.


भारतीय समाज में संत की छवि माया को महाठगिनी मानने वालों की रही है लेकिन अब तो अत्याधुनिक गैजेट, शानदार गाड़ियां, भव्य आवास उनकी प्रतिष्ठा और पहचान बन चुके हैं. सधुक्कड़ी बाना त्याग कर वो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति का चोला पहन रहे हैं. एमपी में पांच संतों को राज्य मंत्री बनाकर उनका क्रोध शांत करना विशुद्ध राजनीतिक सौदेबाजी है. धर्म की मर्यादा से समाज को सही रास्ते पर चलाने की व्यवस्था करने वाले संत समाज का राजनीति के पंक में धंसना और लालबत्ती की लालसा सौभाग्यसूचक तो नहीं ही कही जा सकती.


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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)