क्या राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता सिक्के के एक पहलू में इतने विचारवान और दूसरे पहलू में इस हद तक उच्छृंखल हो गए हैं कि वे अपनी मनमर्जी से विरोधी विचारधारा वाले महापुरुषों की मूर्तियां तोड़ने और उनके मुंह पर कालिख पोतने के अभियान पर निकल पड़े? मुझे तो शक होता है. ज्यादातर कार्यकर्ताओं तो यह पता भी नहीं होता कि वे किस कारनामे को अंजाम दे रहे हैं! इनमें से अधिकांश के लिए किसी मूर्ति का मतलब शायद चढ़ावे वाली वरदानी देवमूर्ति ही होता है.


चाहे वह सर्वहारा क्रांति और एशिया जागरण के महान पुरोधा लेनिन की मूर्ति को ‘भारत माता की जय’ के नारों के बीच त्रिपुरा में बाकयादा जेसीबी मशीन से ढहाने का मामला हो, केरल के कन्नूर में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की मूर्ति का चश्मा चुरकुन करने की शरारत हो, दक्षिण कोलकाता स्थित कालीघाट के केयोरताला में जनसंघ संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मूर्ति (उनकी ही श्मशान भूमि में) विखंडित किए जाने का कुकर्म हो, वेल्लोर जिले में समाज सुधारक और द्रविड़ आंदोलन के संस्थापक ईवी रामासामी पेरियार की मूर्ति को विकृत करने की घटना हो, चेन्नई के पेरियार नगर में ही बीआर आंबेडकर की प्रतिमा पर पेंट फेंक कर भागने की हरकत हो या....! इतना तो निश्चित है कि ये स्वयंस्फूर्त घटनाएं नहीं हैं. इनके पीछे शरारती तत्वों की नहीं बल्कि अपने-अपने शीर्ष नेतृत्व की अगुवाई में विचारधारात्मक साजिशें काम कर रही हैं.


यह शक तब यकीन में बदल जाता है जब त्रिपुरा के बेलोनिया क्षेत्र से निर्वाचित भाजपा विधायक अरुण चंद्र भौमिक खुला बयान देते हैं- “लेनिन, स्टालिन की और भी मूर्तियां ढहाई जा रही हैं. इतना ही नहीं, अब उनके नाम वाली सड़कें भी नहीं रहेंगी. इन लोगों के बारे में जो किताबों में लिखा हुआ है वो सब हटाया जाएगा क्योंकि वो भारत की संस्कृति का हिस्सा नहीं है.” और अपने राज्य में भाजपा की तगड़ी चुनौती झेल रही ममता बनर्जी जवाब देती हैं- “विभिन्न देशों के अलग-अलग नेताओं की प्रतिमाएं भारत में लगी हैं. लेकिन आपको (इशारा भाजपा की तरफ है) अधिकार नहीं है कि आप उनकी प्रतिमाएं तोड़ डालें. वह भी सिर्फ इसलिए कि आप सत्ता में हैं!” याद रहे कि इन्हीं ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल की सत्ता संभलते ही वामपंथी नेताओं से संबंधित अध्याय पाठ्यपुस्तकों में बदल डाले थे. माकपा के वरिष्ठ नेता येचुरी कह रहे हैं- “त्रिपुरा में लेनिन की प्रतिमा गिराने का काम भाजपा-आरएसएस ने किया है और आरएसएस एक फासीवादी संगठन है.”


स्पष्ट है कि दक्षिणपंथी और वामपंथी विचारधाराओं की टकराहट के साथ-साथ मामला बदले की हिंसक राजनीति का भी है. दक्षिण में द्रविड़ चिंतक पेरियार की मूर्ति को नुकसान पहुंचाने की खबर के बाद प्रतिक्रियास्वरूप बीजेपी दफ्तर पर बम फेंकने और कई जगह सवर्णों के जनेऊ जबरन काट डालने की घटनाएं सामने आई हैं. उग्र राजनीतिक मानसिकता के चलते मूर्तियां भी अब घृणित बदले का हथियार बन गई हैं. हमें नहीं भूलना चाहिए कि वामपंथ के एक गढ़ त्रिपुरा को फतह करने के बाद स्वयं पीएम मोदी ने इसे विचारधारा की जीत बताया था. हालांकि मूर्तियां तोड़े जाने पर उन्होंने अपनी ही विचारधारा वाले पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से मिलकर केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के सामने चिंता जता दी है!


मूर्तियों को अपमानित करने की राजनीति आज जनभावनाओं के दोहन और मतदाताओं को दीवाना बनाने का एक नया हथियार बन चुकी है. अमेरिकी कला समीक्षक, कवि और इतिहासकार डॉ. कैली ग्रोवियर कहते हैं- “अगर आप किसी देश को समझना चाहते हैं, तो यह मत देखिए कि उसने कौन से प्रतीक लगाए हैं, वरन्‌ यह देखिए कि उसने कौन से प्रतीक मिटाए हैं.” कवि की बात सौ टंच खरी है. किसी भी महापुरुष की मूर्ति में रेल-बालू और सरिया-सीमेंट एक-सा ही होता है. लेकिन बात प्रतीकात्मकता और उस मूर्ति, स्मारक या मिथक से जुड़े लोगों की आबरू की भी होती है!


जहां लेनिन द्वारा रूस में स्थापित विश्व के प्रथम ‘मजदूर राज’ से प्रभावित होकर चीन की राजनीति में उबाल आया, तुर्की और फारस समेत गोरों के कब्जे वाले हिंदुस्तान में जांबाज भारतीयों का संघर्ष तेज हुआ, वहीं ब्राह्मणवाद के तीव्र विरोधी पेरियार ने भारत में बाल विवाह और देवदासी प्रथा का तीखा विरोध किया, विधवा पुनर्विवाह के स्पष्ट पक्षधर रहे, मनुष्य को अछूत बनाने वाली वर्ण-व्यवस्था का बहिष्कार किया, वर्ण-व्यवस्था की ही सिद्धांत पुस्तक मनुस्मृति का निषेध किया और कुल मिलाकर बहुजनों के शोषण का आजीवन मुखर प्रतिवाद करते रहे.


महापुरुष किसी देश की सीमा में नहीं बांधे जा सकते. एक शेर याद आता है- ‘जहां रहेगा वहीं रोशनी लुटाएगा, किसी चराग का अपना मकां नहीं होता.’ हां, उनके विचारों से नाइत्तेफाकी हो सकती है. लेकिन इंसानों से सच्ची मुहब्बत का जज्बा पैदा करने हेतु अपना जीवन होम कर देने वाले महापुरुषों की मूर्तियों को विकृत करके किसी भी विचारधारा को क्या हासिल होगा?


लेनिन को आप लाख विदेशी कह लीजिए लेकिन वह आज भी दुनिया भर में गरीबों का हक मारने वाले लुटेरों के खिलाफ संघर्ष का बाइस बनते हैं. यह लेनिन का रूस ही था जिसने आजादी के बाद भारत को अपने पैरों पर खड़ा होने में ऑउट ऑफ द वे जाकर मदद की थी. आप लेनिन को जेसीबी मशीन से नहीं उखाड़ सकते क्योंकि वह मेहनतकश अवाम के दिलों पर राज करने वाले योद्धा हैं. शहीद-ए-आजम भगत सिंह के प्रेरणास्रोत भी लेनिन थे.


विरोधी विचारों वाले महापुरुषों की मूर्तियां तोड़ कर उस बर्बर तालिबान की बराबरी जरूर की जा सकती हैं जिसने अफगानिस्तान के बमियान में बुद्ध की विशाल मूर्ति खंडित की थी. ध्यान रखना चाहिए कि भारत अनगिनत विचारधाराओं का गंगासागर है. विरोधी विचारों को नाकाबिल-ए-बर्दाश्त समझ कर भारत के लोकतंत्र पर जेसीबी नहीं चलाई जा सकती. बात दूसरी विचारधारा के प्रति सहनशीलता या सच को बर्दाश्त कर पाने की हिम्मत से भी जुड़ी हुई है. अब क्या मूर्तिपूजा विरोधी महात्मा बुद्ध के अनुयायी सम्राट अशोक की लाट गिराकर अपनी विचारधारा का संदेश दुनिया को दिया जएगा?


वैसे भी आज देश जिन समस्याओं में उलझा है, उनका हल लेनिन की मूर्ति गिराकर या छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप और सरदार पटेल की रिकॉर्ड ऊंची प्रतिमा बनाकर नहीं निकलेगा. इससे हल निकलता तो बहन मायावती के पत्थर वाले विशालकाय हाथी बहुजन का कल्याण कब का कर चुके होते!


ढहाई गई मूर्तियों का क्या है! वे तो एक दूसरे का मलबा देख कर दुखी होती होंगी कि हमने अपने समय में करोड़ों लोगों को सदियों की नींद से जगाया था लेकिन वर्तमान युग के ये नादान फिर से गुलामी और शोषण की दासता का सपना देख रहे हैं!


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