पुरानी कहावत है जो काफी हद तक सही भी है कि बचपन और बुढ़ापे में जरा भी फर्क नहीं होता है. याद कीजिए उस पल को जब आपका बच्चा बहुत कुछ आपसे मांगता था और आप मजबूरन उसकी जिद पूरी नहीं कर पाते थे. लेकिन थोड़ी-सी समझ आते ही उसे ये इहलाम हो जाता था कि वह नाराज होकर अगर अपने पड़ोस वाले घर में पहुंच गया तो समझो कि उसकी तो लॉटरी ही निकल गई. क्योंकि उसके बाद आप उसकी हर बात मानने पर मजबूर हो जाते हैं.


सियासत भी जिंदगी की इन्हीं छोटी लेकिन गहरे मतलब रखने वाली हकीकतों के सहारे चलती है. जहां अपनी बात समझाने के लिए ऐसे पड़ोसी की चौखट पर जाने से भी कोई परहेज नहीं होता, जो सियासी अखाड़े में आपको पटखनी देने के लिए तैयार खड़ा हो. कुछ ऐसे ही नज़ारे की तस्वीर देश ने 18 जुलाई को देखी. जब राजनीति रूपी दरिया के दो किनारों ने आपस में मिलकर महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली की सियासत में अटकलों का ऐसा तूफान ला दिया, जो फिलहाल तो थमता नहीं दिखता. हालांकि एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हुई इस मुलाकात के कई सियासी मायने निकाले जा रहे हैं और कहा जा रहा है कि पिछले 20 महीने से महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी वाली सरकार का रिमोट अपने हाथ में रखने वाले पवार अब शायद इसका कंट्रोल बीजेपी को देने के मूड में हैं. यह अटकल आने वाले दिनों में सच होगी या नहीं, इस बारे में दावा करने की हैसियत सिवा इन दोनों के किसी में भी नहीं है. क्योंकि राजनीति में जो लोगों को दिखता है, वैसा अक्सर होता नहीं है.


चूंकि महाराष्ट्र सरकार में सबसे अधिक सत्ता का सुख भोग रही शिवसेना कभी नहीं चाहेगी कि मोदी-पवार की ये मुलाकात ऐसी परवान चढ़ जाए कि 10 महीने बाद उद्धव ठाकरे की जगह बीजेपी का कोई मुख्यमंत्री बने. जिसके हाथ में बाकी के ढाई साल तक सरकार की कमान रहे. लिहाजा उसने चाणक्य नीति पर चलते हुए इस मुलाकात पर कोई गलतबयानी करने की बजाय साफ शब्दों में कह दिया कि हो सकता है कि पीएम मोदी अगले राष्ट्रपति पद के लिए पवार को सबसे योग्य उम्मीदवार मान रहे हों. इसलिये शिवसेना तो इसका स्वागत ही करेगी.


लेकिन शरद पवार और उनकी राजनीति को नजदीक से जानने वाले लोग मानते हैं कि इन दोनों ही संभावनाओं का हकीकत में बदलना मुश्किल नजर आता है. अव्वल तो पवार 80 बरस के हो चले हैं, लिहाजा 75 बरस की उम्र में राजनीति से संन्यास लेने की वकालत करने वाले मोदी कभी नहीं चाहेंगे कि इतने उम्रदराज व्यक्ति को उस पद पर बैठाया जाए. दूसरा, पवार की राजनीति करने की स्टाइल का दूसरा नाम ही 'पावर' है. इसलिए वे इतने मासूम भी नहीं कि सत्ता का रिमोट किसी और के हाथ में इतनी आसानी दे दें.


सोनिया गांधी को संदेश!
पवार की सियासत को समझने वालों के नजरिए पर अगर यकीन करें, तो राजनीति की मुगलीघट्टी पिये पवार ने मोदी से मुलाकात करके दरअसल सोनिया गांधी को संदेश दिया है कि अगर मुझे नजरंदाज किया, तो ये पड़ोसी मेरी हर बात पूरी करने के लिए तैयार बैठा है. पवार की इस मुलाकात के बहाने पीएम मोदी ने भी ये जता दिया कि विपक्ष का सबसे ताकतवर स्तंभ अगर मुझसे मिल रहा है, तो इसका कोई तो मतलब होगा ही. हालांकि दोनों के पास खोने के लिए कुछ नहीं था लेकिन घंटे भर की इस मुलाकात ने समूचे विपक्ष को चिंता में डाल दिया.


बताते हैं कि पवार की कांग्रेस से नाराजगी की एक बड़ी वजह महाराष्ट्र विधानसभा में नए स्पीकर की नियुक्ति को लेकर है. नवंबर 2019 में जब शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने मिलकर वहां सरकार बनाई थी, तब विधानसभा अध्यक्ष का पद कांग्रेस के हिस्से में आया था. कांग्रेस के नाना पटोले स्पीकर भी बने लेकिन उन्होंने इस उम्मीद में इस्तीफा दे दिया कि उन्हें मंत्री बनाया जाएगा. उसके बाद कांग्रेस से नए स्पीकर को नियुक्त करने के लिए नाम मांगे गए. सूत्रों के मुताबिक सोनिया गांधी के यहां से सिर्फ एक नाम भेजा गया और वह था राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके पृथ्वीराज चव्हाण का.


शरद पवार ने अपना ऐतराज जताते हुए तुरंत इसे रिजेक्ट कर दिया क्योंकि बताते हैं कि दोनों के बीच कभी मधुर संबंध नहीं रहे. लिहाजा मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के दफ्तर से संदेश गया कि कोई और नाम दीजिए. इस बार कांग्रेस ने अपने एक ऐसे विधायक का नाम भेजा, जो बारामती संसदीय क्षेत्र से चुने गए हैं. ये वो इलाका है जिसे पिछले कई बरसों से शरद पवार के सियासी साम्राज्य के रुप में देखा जाता है. पवार को वो भी नागवार लगा, शायद इसलिए कि स्पीकर बन जाने के बाद प्रोटोकॉल के मुताबिक उस विधायक को भी उन्हें इतना सम्मान देना पड़ता जो वे नहीं चाहते थे. बताते हैं कि कोई और तीसरा नाम देने के लिए खुद पवार ने भी सोनिया से अनुरोध किया था लेकिन उस पर तवज्जो न मिलने के बाद आखिरकार उन्हें अपनी खांटी राजनीति का असली रंग दिखाना ही पड़ा.


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