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IN DEPTH: मराठा आंदोलन की ये है अहम वजह
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आज समूचा महाराष्ट्र अपने दबंग और प्रमुख आबादी वाले मराठा समाज (33%) की अंगड़ाई लेने के चलते अंदर ही अंदर भयंकर रूप से सुलग रहा है. आख़िर क्या कारण है कि राज्य के हर लिहाज से बलशाली मराठा समाज को अपने हुक़ूक और सम्मान की ख़ातिर ‘मराठा क्रांति समिति’ के बैनर तले राज्य के नगर-नगर में शांतिपूर्ण ‘मूक मोर्चे’ निकालने पड़ रहे हैं, जिनमें लाखों मराठाओं (ख़ास तौर पर महिलाओं) की भीड़ उमड़ रही है? राजधानी मुंबई में अक्तूबर के दौरान प्रस्तावित रैली में 1 करोड़ से ज़्यादा मराठाओं के जुटने की उम्मीद है. एक नाबालिग मराठा लड़की के साथ कथित रूप से दलित युवकों द्वारा किया गया सामूहिक बलात्कार और उसकी हत्या ने तो मात्र उनके सब्र का पैमाना छलकाने का काम किया जबकि इस पैमाने के लबालब होने की वजहें काफी पुरानी और गहरी हैं. अगर हम इस आंदोलन की प्रमुख मांगों पर गौर करें तो मराठाओं की बेचैनी का कुछ-कुछ अंदाज़ा लगाया जा सकता है. ये मांगे हैं- अभियुक्त दलित युवकों को फांसी दी जाए, एस/एसटी अत्याचार रोकथाम अधिनियम 1989 ख़ारिज किया जाए और मराठाओं को नौकरियों तथा शिक्षण संस्थानों में आरक्षण दिया जाए.
पहले हमें मराठी और मराठा का अंतर समझ लेना चाहिए. महाराष्ट्र में निवास करने और मराठी बोलने वाले हर व्यक्ति को मराठी कहा जा सकता है लेकिन मराठा एक जाति है जो हाइरारकी में वहां ब्राह्मणों के ठीक बाद आती है. दलितों और आदिवासियों की भांति मराठा सामाजिक तौर पर कभी पिछड़े नहीं रहे इसीलिए महाराष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक इथॉस में उनकी भूमिका बाहुबली की रही है. इनकी ताक़त का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि छत्रपति शिवाजी महाराज भी मराठा थे. अपनी वंशावली और सामाजिक रुतबे पर गर्व करने वाला मराठा समाज इब्तदा से ही तीन पायदानों पर बैठा है. सबसे ऊपर हैं शाहनाव कुली (योद्धाओं के मुख्य 96 परिवारों से संबंध रखने वाले), दूसरी पायदान पर हैं देशमुखी और सबसे नीचे आते हैं खेती-किसानी से संबद्ध कुनबी. मराठाओं में कुनबियों की संख्या सबसे अधिक है. विदर्भ क्षेत्र के कुनबियों को पहले ही ओबीसी में शामिल किया जा चुका है. इस सामाजिक समीकरण में गौर करने की बात यह है कि स्वर्गीय गोपीनाथ मुंडे (भाजपा) और छगन भुजबल (राकांपा) जैसे बड़े ओबीसी नेता पार्टी लाइन से बाहर जाकर भी मराठाओं को ओबीसी में शामिल करने का कड़ा विरोध करते रहे हैं.
आज़ादी के बाद से लेकर संयुक्त महाराष्ट्र के आंदोलन, प्रशासनिक पदों, व्यापारिक गतिविधियों और आज तक महाराष्ट्र की कोई ऐसी राजनीतिक पार्टी नहीं रही जिसमें मराठाओं का बर्चस्व न रहा हो. 1960 में महाराष्ट्र की स्थापना के बाद जो 18 मुख्यमंत्री राज्य ने देखे हैं उनमें अधिकांश मराठा थे. यहां इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि छत्रपति के ज़माने से लेकर आज तक मराठाओं के बीच ऐसी एकजुटता कभी नहीं देखी गई जैसी मौजूदा आंदोलन के दौरान देखी जा रही है. मराठा क्षत्रप शरद पवार से लेकर एक भी पक्षी-विपक्षी मराठा नेता ने आंदोलन के खिलाफ़ मुंह नहीं खोला है वरना तो वे पंचायत चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक एक-दूसरे के खिलाफ़ ज़ोर आजमाइश करते रहते हैं. एकता की बानगी यह भी है कि नवगठित ‘मराठा क्रांति समिति’ को ‘अखिल भारतीय मराठा महासंघ’, ‘मराठा सेवा संघ’ तथा युवा मराठाओं की आक्रामक ‘संभाजी ब्रिगेड’ का पूर्ण समर्थन हासिल है. ध्यान रहे कि ये तीनों संगठन ऊंची जाति के मराठाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं. इस नेताविहीन से दिखने वाले आंदोलन में अब तक यही देखा गया है कि मंच पर आकर एक भी नेता भाषण नहीं देता बल्कि कोई एक लड़की लाखों की भीड़ के सामने आकर तीनों प्रमुख मांगें दोहराती है. इससे यह भी संकेत मिलता है कि यह किसी पार्टी विशेष का नहीं बल्कि सकल मराठा समाज द्वारा बड़े ही सुविचारित एवं सुसंगठित से चलाया जा रहा आंदोलन है.
मराठाओं को गर्व और सर्वांगीण उन्नति प्रदान करने वाले मुख्य कारक उनकी विशाल भूमि और उन्नत खेती रहे हैं. सामाजिक पायदान में सदियों से ब्राह्मण हमेशा उनसे ऊंचे बैठे रहे जबकि दलित और अन्य भूमिहीन लोग उन्हें आसान श्रमिकों एवं सस्ते सेवकों के रूप में उपलब्ध रहे. आधुनिक काल में ग्रामीण महाराष्ट्र के मराठाओं को ताकत सहकारिता समितियों से मिलती थी जिन पर उनके ही नेताओं का बर्चस्व था. लेकिन जब 1990 की शुरुआत में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुईं तो महाराष्ट्र के दलितों ने ओबीसी कोटे से इसका यथासंभव लाभ उठाया और धीरे-धीरे उनका ग्राम पंचायतों एवं ग्राम समितियों में भी दख़ल बढ़ता गया. यह भी एक संयोग ही कहा जाएगा कि बढ़ती शिक्षा और आरक्षण के कारण एक तरफ तो दलित आर्थिक रूप से समृद्ध होना शुरू हुए, वे ऊंचे-ऊंचे प्रशासनिक पद और नौकरियां पाते गए वहीं दूसरी तरफ ग़लत सरकारी नीतियों, प्राकृतिक आपदाओं और मराठा नेताओं के वर्चस्व की आपसी लड़ाई के चलते उनकी अवनति शुरू हो गई. आज मराठवाड़ा क्षेत्र में राज्य के सबसे गरीब मराठा किसान रहते हैं और राज्य में आत्महत्या करने वालों में मराठा किसानों की संख्या सर्वाधिक है.
महाराष्ट्र की कुल कृषि-भूमि का 72% हिस्सा मात्र 3000 परिवारों के कब्ज़े में है. राज्य के 50% शिक्षा संस्थान, 70% जिला सहकारी बैंक और 90% चीने मिलें मुट्ठी भर मराठा नेताओं के नियंत्रण में हैं. फिर क्या कारण है कि मराठाओं को आज अपने लिए आरक्षण की ज़रूरत महसूस हो रही है? इसके लिए मराठा नेता ही जिम्मेदार हैं. मराठा क्षत्रपों ने अपने शिक्षण संस्थानों को नोट छापने की टकसाल समझ लिया, सहकारी समितियों का बंटाढार करके उन्हें ही औने-पौने दामों में ख़रीदा और मराठा कामगारों एवं किसानों को अलग-थलग करके निजी मुनाफ़ा कमाया. विधानसभा में सभी दलों के अब तक के विधायक जोड़ दिए जाएं तो आधे से ज़्यादा मराठा निकलेंगे लेकिन इन्होंने मराठा युवकों में शिक्षा को बढ़ावा देने अथवा नौकरियां सृजित करने के लिए कुछ नहीं किया बल्कि खुद धन्नासेठ बनते रहे! सवाल यह भी उठता है कि मराठा नेताओं ने अपने शिक्षण संस्थानों में मराठा छात्रों को कोटा क्यों नहीं दिया?
आज मराठा युवकों को नौकरियां नहीं मिल रही हैं तो वे इसका जिम्मेदार दलितों को मिले आरक्षण को ठहरा रहे हैं. लगातार सूखे और बाढ़ के कारण खेती चौपट है. किसानों की फसलों के दाम लगातार घट रहे हैं. राजनीतिक मोर्चे पर देखा जाए तो 15 साल शासन करने के बाद मराठा डोमिनेटेड कांग्रेस-राकांपा बाहर है और ब्राह्मण नेता देवेंद्र फड़नवीस के नेतृत्व में सरकार चल रही है. फड़नवीस ने सत्ता में आते ही बाबसाहेब पुरंदरे को संभाजी ब्रिगेड तथा मराठा समाज के विरोध के बावजूद ‘महाराष्ट्र भूषण’ पुरस्कार दे दिया. केंद्र में भी राज्य के ब्राह्मण नेता नितिन गडकरी और प्रकाश जावड़ेकर हैं तथा दलित समाज के रामदास आठवले भी पहुंच गए हैं. मराठा समाज अपनी चौतरफा घटती हैसियत और दूसरों के बढ़ते रुतबे से बड़ी बेचैनी महसूस कर रहा है. उसे यकीन हो चला है कि आरक्षण से ही मराठा समाज का भविष्य सुरक्षित रह सकता है.
अहमदनगर ज़िले के कोपर्डी गांव की उस पीड़ित 9वीं की छात्रा को न्याय दिलाने की उनकी मांग 100% जायज है और अभियुक्तों को सज़ा मिलनी ही चाहिए. लेकिन दलितों की बढ़ती शक्ति के खिलाफ़ मराठाओं की मानसिकता नई मुंबई की रैली में आए युवक महेंद्र पाटील की बातों से उजागर हो जाती है, “दलितों पर कोई भी अत्याचार हो तो एससी/एसटी एक्ट के तहत उन्हें आर्थिक मुआवजा मिल जाता है और हमें सज़ा. मुआवजा पाने और सज़ा दिलाने के लालच में वे हमारे खिलाफ़ झूठे मुक़दमें दायर करते हैं.” हालांकि उपलब्ध आंकड़े इस तरह के आरोपों को सिरे से झूठा साबित कर रहे हैं. फिर भी मराठा समाज में उत्पन्न सामाजिक बेचैनी विशुद्ध रोजी-रोटी का मसला नहीं बल्कि राजपाट छिनने वाले अपमान की घूंट है.
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डॉ ख्याति पुरोहित
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