हाल ही में आए आइआइटी जेईई की मुख्य परीक्षा के नतीजे आए. इसमें जेनरल कैटेगरी के स्टूडेंट को जहां  90.77 फीसदी परसेंटाइल के बाद योग्य घोषित किया गया, वहीं ओबीसी को 71 तो शेड्यूल्ड ट्राइब को लगभग 37.23 प्रतिशत के बाद जी एडवांस्ड लिखने के योग्य ठहराय गया. इसको देखकर कई आरक्षण की आलोचना करने लगते हैं, मेरिट की बात करते हैं, लेकिन क्या यह बात समझने की नहीं है कि मेरिट एक सोशल कंस्ट्रक्ट ही है. मेरिट और आरक्षण के द्वंद्व को समझने से पहले शिक्षा और पैसे का द्वंद्व समझना चाहिए.


मेरिट' एक 'सोशल कंस्ट्रक्ट' 


आम तौर पर जो हमारे कॉलेज में या कहें उच्च शिक्षा में जो दाखिले की प्रक्रिया है, तो कहा जाता है कि एक अगर देशव्यापी इंट्रेस टेस्ट हो, जैसे सीटीईटी है या जीईई है, कहा जाता है कि यह बहुत ही मेरिटोरियस तरीका है. यानी यह प्रतिभाओं के चयन में सहायक है. अब समस्या यह है कि मेरिट यानी प्रतिभा भी एक सोशल कंस्ट्रक्ट यानी सामाजिक बुनावट है. जो बच्चे बड़े परिवारों के है, पढ़े-लिखे लोग हैं, दूसरी पीढ़ी-तीसरी पीढ़ी के लोग पढ़े-लिखे हैं, धन है तो एक तो स्कूलिंग के स्तर पर ही फर्क आ जाता है. इन बच्चों को परिवार से वो सपोर्ट मिलता है, जो गरीब परिवारों के बच्चों को नहीं मिलता है. अगर चरम पर तुलना करनी हो तो एक मजदूर के बच्चे और एक अरबपति के बच्चे की तुलना कर सकते हैं. जो अच्छे स्कूल हैं, उनमें स्कूल में तो पढ़ाया ही जाता है, उसके अलावा भी कई तरह से यानी होमवर्क, ट्यूशन और कोचिंग के जरिए फर्क पैदा किया जाता है. अब जहां अफोर्ड नहीं कर सकते या पहली पीढ़ी के बच्चे हैं, जो पढाई कर रहे हैं, वे यहां पर पिछड़ जाते हैं. तो, फैमिली सपोर्ट होने की वजह से वह पिछड़ापन उन पर प्रभाव डालने लगता है. दूसरी चीज है, कोचिंग की. लोगों ने यह मान लिया है कि जितना बड़ा कांपिटिटीव इक्जाम होगा, बिना कोचिंग के तो होगा नहीं. तो, पहले जहां 10वीं या ग्यारहवीं के बाद लोग करते थे कोचिंग, अब तो पांचवी-छठी के बाद सिलसिला शुरू हो गया है. तो, अब कई सारे डमी स्कूल आ गए कि आप तो जी बस एंट्रेस एक्जाम पर फोकस करो, 12वीं की पढ़ाई का हम जिम्मा लेते हैं. अब ये कोचिंग बड़ा हो या छोटा, घर के पास हो या दूर, ये सभी पैसा मांगते हैं. इनकी फीस बहुत ज्यादा है. अगर आप कोटा जैसे रेजिडेंशियल कोचिंग में भेज रहे हैं, तो फीस और अधिक हो जाती है. नतीजा ये होता है कि जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, जो यहां नहीं भेज पाते अपने बच्चों को, उनकी पढ़ाई में अंतर आ जाता है. 



आरक्षण जरूरी, स्थानीय बोर्डों के आधार पर बने प्रश्नपत्र 


एक बात और है. हमने मान लिया है कि सीबीएसई नेशनल बोर्ड है, हालांकि हमारे देश में 50 बोर्ड हैं. आम तौर पर इन परीक्षाओं के सवाल जो हैं, वे सीबीएसई की किताबों के आधार पर ही तय होते हैं. हालांकि, कुछ प्रयास इस दिशा में हुआ है कि दूसरे स्कूल बोर्डों का भी ले लिया जाए, लेकिन मुख्यतः सीबीएसई से ही सवाल लिए जाते हैं. अब आम तौर पर हम देखते हैं कि सीबीएसई में अपर मिडिल क्लास के बच्चे जाते हैं, क्योंकि रिच क्लास तो अब इंटरनेशनल स्कूल में भेज रहा है, बच्चों को. समस्या मुख्यतः मिडिल क्लास और अपर मिडिल क्लास की है. इसका नतीजा यह होता है कि आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को वो संसाधन मुहैया नहीं होते और वो पिछड़ जाते हैं. हालांकि, लोग कहते हैं कि मेरिट पर आधारित एक्जाम है और वो पिछड़ गए. जिनके पास पैसे, रुपए, सोशल स्टेटस या इनफ्लुएंस की सीढ़ी नहीं है, वे इसमें घुस नहीं पाते. 


मेरिट की बात कीजिए तो वह इन परीक्षाओं में 97 प्रतिशत से शुरू होकर 38-40 फीसदी तक पर आता है. इस पर लोगों का यह भी कहना होता है कि जो बच्चे 97 से 38 फीसदी के बीच जनरल बच्चे हैं, उनका क्या कसूर है? मेरा मानना है कि अगर रिजर्वेशन न हो तो जो लोग 55 परसेंट लेकर आ पा रहे हैं, वे भी नहीं आ पाएंगे. इसमें मुसलमानों का उदाहरण देख सकते हैं. उनको चूंकि किसी तरह का रिजर्वेशन नहीं है, इसलिए अगर वे जेनरल में आ जाते हैं या एकाध जगह ओबीसी में तो आ गए, वरना आ नहीं पाते. ड्रॉप आउट की बात तो बाद में आती है, पहले तो जो नामांकन है, वही उनकी जसंख्या का एक-तिहाई से कम है. जितना ही बड़ा और अच्छा इंस्टीट्यूट, उसमें मुसलमानों का प्रतिशत बहुत कम है. अगर आप रिजर्वेशन हटा देंगे तो वही हालत दूसरे वंचित समुदायों खासकर शेड्यूल्ड कास्ट और ट्राइब की हो जाएगी. आरक्षण एक ऐसा सहारा है, जिसके जरिए वे ऊपर आ सकते हैं. 


समान शिक्षा में ही है समाधान 


अब सवाल आता है कि इस भेद को कैसे भरें? 97 फीसदी और 38 फीसदी का हवाला देकर जो लोग रिजर्वेशन की गलती बताते हैं, वहां तर्क तो है ही. इसके लिए सोचना चाहिए. तो, जो क्रीमी लेयर की बात है, जो दो-तीन पीढ़ियों के सबल हो जाने की बात है, आरक्षण का सहारा लेकर और फिर उनको रिजर्वेशन न देने की बात है, उन सारे विषयों पर सोचा जा सकता है. जब तक वह हल नहीं निकल आता, तब तक आरक्षण ही एकमात्र रास्ता दिखता है. हां, इनकम वाली बात थोड़ी पेचीदा है, क्योंकि सरकारी नौकरी को छोड़ दें तो बिजनेस या बाकी धंधों में बिल्कुल सही इनकम सर्टिफिकेट का बनना कठिन है. मेरिट की बात इसीलिए कठिन है, क्योंकि कई सारे फैक्टर उसको नियंत्रित करते हैं. 


समस्या का समाधान एक तो यह दिखता है कि सबको समान शिक्षा मिले. कॉमन स्कूल का विचार जो है, वह लागू हो. हम सभी की पिछली पीढ़ी सरकारी स्कूल में पढ़ी है, निजी स्कूल कम थे. सबको एक ही तरह के टीचर मिलते थे. जाहिर है कि अच्छे घरों के बच्चों को थोड़ा अधिक सहारा मिलता था, लेकिन बच्चों की दोस्ती में चूंकि धन आड़े नहीं आता, तो वह बीच में आता नहीं था. अब चूंकि कॉमन स्कूल खत्म हो गए, हमारे स्कूलों में हाइरार्की आ गयी, तो दिक्कत फैल गयी है. दूसरी बात यह कि जो सेकेंड जेनरेशन, थर्ड जेनरेशन के लोग हैं उनके लिए शिक्षा कहां से लें, यह मायने नहीं रखता. सामाजिक-आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है और उन पर विशेष ध्यान दिया जाए. विश्व के दूसरे देशों में यह व्यवस्था है. वहां ऐसे बच्चे देर तक रुकते हैं, उन पर टीचर्स अलग से ध्यान देते हैं, तो वह अपने देश में भी होना चाहिए. एक चीज होती है- पॉजिटिव डिस्क्रिमिनेशन. हम लोग अक्सर कहते हैं कि 'लेवल प्लेइंग फील्ड' हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि फील्ड हमेशा समतल ही हो. होता यह है कि जिन जड़ों को अधिक पानी की जरूरत होती है, वहां हमें गड्ढा भी करना पड़ता है. 


(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)