BLOG: छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव- क्या सत्ता की चाबी अजीत जोगी के हाथ में रहेगी?
छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में सीधी टक्कर परम्परागत रूप से भले ही कांग्रेस और बीजेपी के बीच नजर आ रही हो लेकिन इतना तय है कि पूर्व मुख्यमंत्री और अब छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस के अध्यक्ष अजीत जोगी चुनाव को त्रिकोणीय बनाएंगे और कम सीटें जीतने के बावजूद अगली सरकार में बेहद अहम भूमिका निभाएंगे.
नई दिल्ली: छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में सीधी टक्कर परम्परागत रूप से भले ही कांग्रेस और बीजेपी के बीच नजर आ रही हो लेकिन इतना तय है कि पूर्व मुख्यमंत्री और अब छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस के अध्यक्ष अजीत जोगी चुनाव को त्रिकोणीय बनाएंगे और कम सीटें जीतने के बावजूद अगली सरकार में बेहद अहम भूमिका निभाएंगे. हम जोगी की प्रशासनिक और राजनीतिक कुशलता से पूर्व परिचित हैं. कांग्रेस को कानोकान खबर नहीं हुई और उन्होंने राज्य में बसपा से गठबंधन करके चालाकी भरा दांव खेल दिया. जोगी के पहले से ही कुछ समर्पित आदिवासी और कांग्रेसी मतदाता हैं और बसपा के पूर्ण स्थानांतरित होने वाले मतों के साथ उनकी शक्ति पहले से काफी बढ़ गई है. बीजेपी खुश है कि जोगी की ताकत जितनी बढ़ेगी कांग्रेस उतनी ही सत्ता से दूर होती जाएगी. कांग्रेस के साथ दिक्कत यह भी है कि छत्तीसगढ़ में उसके पास ऐसा कोई सर्वमान्य चेहरा नहीं है, जो उसके पक्ष में वोटों की बारिश करा सके.
पिछले 15 वर्षों से व्हील चेयर पर आश्रित 72 वर्षीय अजीत जोगी प्रदेश में लोकप्रियता के मामले मे रमन सिंह को टक्कर देते हैं. लेकिन यह जोगी स्वयं समझते हैं कि अगर वे इस विधानसभा चुनाव में कोई चमत्कार नहीं दिखा पाए तो उन्हें सक्रिय राजनीति को अलविदा कहना ही होगा. इसीलिए वह पहले से घोषणा कर चुके हैं कि यदि उनकी पार्टी को बहुमत मिला तो वे ही मुख्यमंत्री बनेंगे. यह उनका दिवास्वप्न भी हो सकता है और एक हद तक हकीकत भी, क्योंकि राज्य के चौथे चुनाव न तो भाजपा के लिए आसान हैं और न ही कांग्रेस के लिए. कांग्रेस के लिए संभावनाएं और भी उजली हो सकती थी, बशर्ते जोगी की कांग्रेस मैदान में न होती या फिर दोनों के बीच या बसपा के साथ ही चुनावी गठजोड़ हो जाता. वर्तमान परिस्थिति में यदि कांग्रेस और बीजेपी दोनों सरकार बनाने के लिए जरूरी बहुमत से कुछ कदम दूर रह गईं, तो जोगी का टेका लेना ही होगा. और जोगी कितने बड़े सौदेबाज हैं यह उनके वर्ष 2000 से 2003 तक मुख्यमंत्री रहते सिद्ध हो चुका है, तब उन्होंने 12 भाजपा विधायकों का कांग्रेस में एकमुश्त प्रवेश करा दिया था.
जल, जंगल, जमीन और खनिज संपदा से समृद्ध इस राज्य में गत 15 वर्षों से सत्तारूढ़ भाजपा सरकार लाख कोशिशों के बावजूद, संभावना और विश्वास के आधार पर पहले व दूसरे कार्यकाल में गढ़ी गई अपनी पहले जैसी छवि कायम नहीं रख पाई है. लिहाजा अभी यह कहना नामुमकिन-सा है कि गरीब आदिवासियों, हरिजनों व अति पिछड़ों के तथाकथित उत्थान व विकास का भाजपाई जादू इस बार भी चल पाएगा या नहीं. सूबे में ऋणग्रस्त किसानों की आत्महत्या के सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं जो राज्य में खेती, खेतिहर मजदूर व सीमांत किसानों की दारुण स्थिति का बयान करते हैं. भीषण महंगाई ने रमन सिंह की ‘चाउर वाले बाबा’ वाली छवि को धूमिल कर दिया है. लेकिन इसकी भरपाई की कोशिश और मुफ्तखोरी की आदत को संतुष्ट करने के लिए रमन सिंह ने अपनी विकास यात्रा के अन्तिम चरण में लाखों मोबाइल फोन व टिफिन बांट दिए. ग्रामीणों को हाईटेक बनाने के नाम पर लगभग 2000 करोड़ रुपए खर्च करके 50 लाखसे ज्यादा शहरी व ग्रामीण महिलाओं तथा कॉलेज छात्रों को मुफ्त स्मार्ट फोन उपलब्ध कराना इसका ताजातरीन उदाहरण है. जबकि राज्य में तथाकथित मोबाइल क्रांति का यह हाल है कि राजधानी रायपुर से सटे इलाके भी नेटवर्क की समस्या से दो-चार हो रहे हैं.
राज्य में विधानसभा की कुल 90 सीटें हैं और इस बार बीजेपी का मिशन है 65 प्लस. यानी पिछली संख्या के मुकाबले 16 सीटें अधिक जीतने का लक्ष्य. कांग्रेस के पिछले चुनावों की तुलना में ज्यादा संगठित, ज्यादा लोक केन्द्रित व ज्यादा आक्रामक होने के चलते यह लक्ष्य असंभव-सा है. हालांकि तगड़ा बूथ प्रबंधन, गांव- गांव, शहर-शहर, घर-घर दस्तक, असीमित संसाधन, बेशुमार पार्टी-फंड तथा लोकजीवन को सुगम, सरल व उन्नत बनाने-दिखाने के लिए तरह-तरह के सरकारी प्रपंचों व उपहारों के दम पर भाजपा यह मान बैठी है कि चौथी बार भी उसकी सरकार बनने वाली है. पार्टी का खयाल है कि यदि शहरी मतदाताओं ने साथ नहीं दिया, तो ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों से इसकी भरपाई कर ली जाएगी. इसीलिए पार्टी ने बस्तर, सरगुजा व बिलासपुर संभाग में जबरदस्त जोर लगा रखा है.
लेकिन बोकरा, भात, रसोई गैस, चावल, चना, टिफिन, स्मार्ट फोन मुफ्त बांटकर मतदाताओं के मन को जीतने की यह कोशिश ज्यादा कामयाब होगी, इसमें शंकाएं हैं क्योंकि किरंदुल, कोंडागांव, गरियाबंद ,सुकमा और कांकेर से लेकर अम्बिकापुर, सूरजपुर, विश्रामपुर आदि जगहों के गांव-देहातों की प्राथमिकता मोबाइल नहीं, स्वच्छ पेयजल, समुचित स्वास्थ्य सुविधा, बेहतर शिक्षा, सहज सड़क संपर्क व रोजगार है. मिसाल के तौर पर स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता का हाल यह है कि नवनिर्मित अत्याधुनिक राजधानी से लगभग 90 किलोमीटर दूर गरियाबंद जिले के ग्राम सुपाबेडा में किडनी की बीमारी से अब तक 66 से अधिक मौतें हो चुकी हैं तथा 200 से अधिक ग्रामवासी इस बीमारी से जूझ रहे हैं.
ग्राम वनों में शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति और भी भयावह है. नक्सली समस्या ने पहले ही सनातन किस्म की जटिलता पैदा कर रखी है. असंतोष का आलम यह है कि प्रदेश व राजधानी में एक-डेढ़ साल से सरकारी कर्मचारियों के आंदोलनों के अलावा राजनीतिक व गैर-राजनीतिक आंदोलनों की बाढ़-सी आई हुई है और रमन सरकार आंदोलनकारियों और विरोधियों से हिंसक तरीके से निबट रही है. रमन सिंह के 24 सितंबर को हुए खरासिया रोड शो के दौरान पूर्व प्रदेश युवक कांग्रेस के अध्यक्ष व विधायक उमेश पटेल व उनकी मांको गिरफ्तार कर लिया गया. विलासपुर में पुलिस कांग्रेस भवन में घुस गई और उसने वहां मौजूद नेताओं वकार्यकर्ताओं की बेदम पिटाई की. इसे चुनावी वर्ष में रमन सरकार की राजनैतिक बौखलाहट ही कहा जाएगा.
लेकिन छत्तीसगढ़ की अगली सरकार इस बात से तय नहीं होगी कि रमन सरकार कितनी हिंसक हो गई है या पिछले 15 वर्षों में वह प्रदेश की जनता को बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने में कितनी सफल हुई या विफल, बल्कि इसका फैसला इस बात से होगा कि और अंकीय तथा जातीय समीकरणों के तहत जोगी और मायावती का गठजोड़ कांग्रेस के कितने प्रतिशत वोट काटता है. हमने देखा है कि 2003 के विधानसभा चुनावों में पूर्व कांग्रेसी विद्याचरण शुक्ल के प्रादेशिक नेतृत्व में लगभग 7% वोट काटने वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ यदि कांग्रेस का चुनावी तालमेल हो गया होता तो भाजपा किसी सूरत में सत्ता नहीं पा सकती थी. कांग्रेस साल 2008 और 2013 में भी कांग्रेसी नेताओं से जोगी के आंतरिक विद्वेष और मनभेद के चलते चुनाव हारी थी. बाद में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बने भूपेश बघेल जोगी को पसंद नहीं करते थे और यही स्थिति जोगी की भी थी. पूर्व कांग्रेसी अजीत जोगी पहले रमन सिंह के खिलाफ राजनांदगांव से स्वयं चुनाव लड़ने की ललकार भर रहे थे लेकिन अब पलटी मार गए हैं. रमन-जोगी के बीच बरसों से चली आ रही नूरा कुश्ती अब बंद आंखों को भी दिखाई देने लगी है. इसीलिए प्रदेश में पहली बार सत्ता पाने को छटपटा रही कांग्रेस के लिए छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणाम ‘हार की जीत’ में तब्दील हो जाएं, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)