कल यानी 25 नवंबर को राजस्थान विधानसभा की 200 सीटों के लिए मतदान है. किसी को भी स्वाभाविक रूप से लग सकता है कि जो चुनाव सत्ता-विरोधी भावना और ध्रुवीकरण दोनों के ही अभाव में हफ्ते भर पहले तक बिलकुल शाकाहारी, अप्रत्याशित और इसीलिए एकतरफा जान पड़ रहा था वह मतदान से एक दिन पहले कैसे भाजपा के पक्ष में दिखने लग गया है. इस पलटाव के तीन प्रस्थान-बिंदु गिनवाए जा सकते हैं. पहला, डेढ़ साल पहले हुई कन्हैयालाल की हत्या का जिक्र चुनाव में आना और उस पर समूचे प्रचार का केंद्रित हो जाना. दूसरे, अशोक गहलोत की प्रेस कॉन्फ्रेंस जिसमें राजस्थान की पहचान का हवाला दिया जाता है. तीसरा, सचिन पायलट का एक वीडियो जिसमें वे वोटों की अपील करते दिख रहे हैं.
दो स्तरों पर हुआ है बदलाव
कायदे से देखा जाय, तो कहानी दो स्तरों पर पलटी है. पहला नैरेटिव के स्तर पर. जहां शुरू से लेकर पिछले हफ्ते के अंत तक कोई केंद्रीय नैरेटिव ही नदारद था, वहां भाजपा ने अड़तालीस घंटे में ‘कन्हैया लाल को इंसाफ दिलवाने’ के नाम पर इस चुनाव को खड़ा कर दिया है. कांग्रेस उसके ट्रैप में फंस चुकी लगती है. पहले सुप्रिया श्रीनेत की सफाई आती है, उसके बाद खुद गहलोत का बयान आता है कि कन्हैया को मारने वाले भाजपा के सदस्य थे. इतना काफी नहीं था, कि कपिल मिश्रा से लेकर जेपी नड्डा और पांचजन्य से लेकर अमन चोपड़ा तक क्या पार्टी अध्यक्ष और क्या पार्टी प्रचारक, सबने कन्हैयालाल की पालकी उठा ली. चुनाव प्रचार के अंतिम घंटे में यह पालकी ट्विटर के ट्रेंड में सबसे ऊपर खड़ी दिखती है.
भाजपा ने पहली और अंतिम बार चुनाव का नैरेटिव सेट कर दिया है जो अब बदले नहीं बदलेगा. कहानी के पलटाव का दूसरा स्तर गुर्जर वोट हैं, जिनके बारे में लगातार कांग्रेस खुद को आश्वस्त कर रही थी अब अबकी गुर्जर उसके साथ हैं. दिखावे के लिए सचिन पायलट और गहलोत की सौहार्दपूर्ण तस्वीरें सोशल मीडिया में तैरायी जा रही थीं. आज सचिन पायलट की वोट मांगती वीडियो ने साफ कर दिया कि मामला उतना ठीक नहीं है जितना बताया जा रहा है. गुर्जर वोट अब भी छिटके हुए हैं.
आरएसएस ने की है जीतोड़ मेहनत
राजस्थान में नामांकन के आखिरी चरण के दौरान यात्रा में मेरी बातचीत आरएसएस के कुछ वरिष्ठ प्रचारकों से हुई थी. उसी समय यह बात खुलकर सामने आई थी कि ज्यादातर गुर्जर वोट भाजपा को पड़ने वाले हैं. नागौर के बड़े अनाज व्यापारी और संघ के वरिष्ठ प्रचारक नृत्यगोपाल मित्तल ने तब कहा था, ‘’इस बार अस्सी प्रतिशत गुर्जर बीजेपी के साथ हैं. सचिन ने गुर्जरों से साफ इशारा कर दिया है कि आप मेरे भरोसे मत रहना, मेरा कोई भरोसा नहीं है, अशोक गहलोत को निपटाना है. समाज ने भी तो देख लिया कि उसके साथ क्या हुआ है. उसकी भी मजबूरी है, क्या करेगा!” यदि सचिन पायलट के आज आए सार्वजनिक बयान के साथ उनकी गुर्जर समुदाय से कोई दबी-छुपी अपील भी सच्चाई है तो कांग्रेस को चिंतित होना शुरू कर देना चाहिए क्योंकि बाकी बिरादरियों के बीच संघ ने जैसी सोशल इंजीनियरिंग इस बार की है उसकी काट कांग्रेस के लिए केवल सात गारंटियों के सहारे मुमकिन नहीं है. राजस्थान में संघ के प्रचारकों की मानें, तो पिछली बार मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर कांग्रेस ने जैसी सोशल इंजीनियरिंग की थी बिलकुल उसी तर्ज पर इस बार भाजपा ने खेल खेला है. वसुंधरा राजे के साथ दो दिन पहले नरेंद्र मोदी को भले ही मंच साझा करना पड़ा हो लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं बनाना एक चुनावी रणनीति थी. इसी रणनीति के तहत हर बिरादरी के बड़े चेहरे को इस लोभ में काम पर लगाया गया कि मुख्यमंत्री बनने की संभावनाएं उसकी भी हैं.
इसे विस्तार से समझाते हुए मित्तल कहते हैं, ‘’राजपूत समुदाय में दीया कुमारी, गजेंद्र सिंह शेखावत, राजेंद्र राठौड़, जैसे चेहरे हमारे पास हैं, वसुंधरा राजे इंक्लूडेड. ये सारे कद्दावर राजपूत नेता हैं और सीएम के चेहरे हैं. जाटों पर आ जाइए, सारे के सारे कद्दावर नेता, सतीश पूनिया को ले लो, ज्योति मिर्धा है, सीआर चौधरी, सारे बड़े जाट नेता आज बीजेपी में हैं. बिश्नोई समाज को ले लो. कुलदीप बिश्नोई यहां लीड कर रहा है. ब्राह्मणों में जोशी समाज से सीपी जोशी को प्रदेश अध्यक्ष हमने बनाया. फिर घनश्याम तिवाड़ी को ले लो. मेघवाल समाज से अर्जुन मेघवाल जी हैं. वणिक समुदाय के सारे बड़े चेहरे अपने साथ हैं. मीणा में किरोणीलाल हैं.‘’
भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग
राजपूतों और जाटों के एक-दूसरे से परहेज और विरोध की कहानी भी इस बार पहले जैसी नहीं है. पिछली बार राजपूत समुदाय आनंदपाल प्रकरण के चक्कर में आपस में लड़ पड़ा था. वसुंधरा राजे की सरकार में हुई आनंदपाल की हत्या के चक्कर में पूरा राजपूत समाज भाजपा के खिलाफ चला गया था. उसका खमियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा. मित्तल कहते हैं कि जितने भी राजपूत निर्दलीय लड़ रहे हैं सारे के सारे भाजपा को सपोर्ट करेंगे. इसके बावजूद मित्तल कहते हैं, ‘’जितने भी चेहरे दौड़ में दिख रहे हैं, हो सकता है उनमें से कोई भी सीएम न बने. कोई और ही निकल के आ जाए.‘’ संघ के कुछ लोग दबी जुबान में बाबा बालकनाथ का नाम लेते हैं जो तिजारा से चुनाव लड़ रहे हैं और जिनका नामांकन करवाने खुद यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पहुंचे थे. एक राय हालांकि यह भी है कि यादव होने के कारण जाति के समीकरण में बाबा बालकनाथ फिट नहीं बैठते. नैरेटिव और जातिगत इंजीनियरिंग के बाद बची बूथ की चिंता, तो संघ ने अपने 20 प्रचारकों को हर तीन बूथ पर लगा रखा है. इस तरह औसतन हर बूथ पर कम से कम छह संघ प्रचारक कल तैनात रहेंगे. इस तरह आरएसएस ने बहुत सफाई के साथ पहले टिकटों के बंटवारे में जातिगत समीकरणों को साधा, उसके बाद अपने कार्यकर्ताओं को जिम्मेदारियां सौंपीं और अंत के अड़तालीस घंटों में चुनाव को अपने नैरेटिव पर लाकर खड़ा कर दिया.
संघ की सक्रियता, भाजपा की आस
इस विधानसभा चुनाव में संघ कितना सक्रिय रहा है इसका अंदाजा केवल एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रदेश में नरेंद्र मोदी की पहली रैली जो जयपुर में 25 सितंबर को हुई थी उसकी योजना बाकायदा संघ के वरिष्ठ नेताओं और गृहमंत्री अमित शाह की बैठक में दिल्ली में बनी थी. उससे पहले शाह और पार्टी अध्यक्ष नड्डा जयपुर होकर आ चुके थे. उसके बाद राजस्थान से दिल्ली बुलाकर संघ के प्रमुख चेहरों को चुनाव की कमान सौंपी गई. इनमें संघ के प्रकाश चंद्र गुप्ता और चंद्रशेखर की बहुत बड़ी भूमिका रही है. इसीलिए यह माना जा रहा है कि 3 दिसंबर को भाजपा यदि ठीकठाक बहुमत से सीटें लेकर आती है तो मुख्यमंत्री का चेहरा संघ से ही आएगा. बहुत संभव है वह चेहरा ओबीसी समुदाय से हो. अगर कांग्रेस के साथ कम मार्जिन से भाजपा फंसी, तो बेशक कुछ भी हो सकता है. जानने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि संघ के हाथ में राजस्थान की सत्ता न आने पाए, इसके लिए वसुंधरा को मुख्यमंत्री बनवाने में गहलोत खुद जान लगा देंगे. गहलोत और वसुंधरा की सियासी केमिस्ट्री तो जगजाहिर है ही.
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