आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने एक बार फिर ये बयान देकर सियासत को गरमा दिया है कि इस देश में इस्लाम खतरे में नहीं है और मुसलमानों को कहीं भी डरने की जरूरत नहीं है. भागवत यही बात पहले भी कुछ अवसरों पर कह चुके हैं, इसलिये सवाल उठता है कि संघ इन बातों को दोहराकर आखिर क्या संदेश देना चाहता है? दूसरी अहम बात भागवत ने ये भी कही है कि मुसलमानों को 'हम बड़े हैं’ का भाव छोड़ना पड़ेगा.


यानी संघ मानता है कि मुस्लिम खुद को बड़ा साबित करने के लिए समाज में किसी भी तरह का आक्रांत माहौल पैदा करने से पीछे नहीं हटता है. लिहाजा, भागवत के इस बयान को मुस्लिम समाज के लिए एक चेतावनी के तौर पर भी देखा जा रहा है कि उसे अपनी हैसियत नहीं भूलनी चाहिए और एक अल्पसंख्यक वर्ग के तौर पर ही देश में रहने और अन्य वर्गों के साथ घुलने-मिलने की आदत डाल लेनी चाहिए. आपको याद होगा कि इससे पहले भी भागवत ये कह चुके हैं कि इस देश के हिंदुओं और मुस्लिमों का डीएनए एक ही है क्योंकि दोनों के पूर्वज एक ही हैं. तब भी उनके उस बयान पर कुछ मुस्लिम संगठनों और AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेताओं ने ऐतराज जताया था.


अब भी भागवत के बयान पर पहली तकलीफ़ ओवैसी को ही हुई है और उन्होंने सवाल उठाया है कि मुसलमानों को भारत में रहने या हमारे धर्म का पालन करने की 'अनुमति' देने वाले मोहन भागवत कौन होते हैं? ओवैसी ने तो ये तक कह दिया है कि "अल्लाह ने चाहा, इसलिए हम भारतीय हैं. उन्होंने हमारी नागरिकता पर शर्तें लगाने की हिम्मत कैसे की? हम भारत में अपने विश्वास को समायोजित या नागपुर में कथित ब्रह्मचारियों के समूह को खुश करने के लिए नहीं हैं."


दरअसल, संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ और ऑर्गेनाइजर’ को दिए इंटरव्‍यू में भागवत ने कई विषयों पर संघ के रुख़ का खुलासा करते हुए इस धारणा को तोड़ने की कोशिश की है कि केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद मुसलमानों पर अत्याचार हो रहा है और वे डर के माहौल में जी रहे हैं.


कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों और मीडिया के एक वर्ग ने भी ये नैरेटिव बनाने की कोशिश की है कि पिछले आठ सालों से देश में डर और नफरत का माहौल बना दिया गया है. अपनी भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी इसी मसले को उछालते हुए संघ और मोदी सरकार पर हमले कर रहे हैं. बीते सोमवार को ही कुरुक्षेत्र पहुंचने पर राहुल गांधी ने आरएसएस की तुलना कौरवों की सेना से कर दी थी, लेकिन देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक-सामाजिक संगठन का संचालन करने वाले मोहन भागवत इतने भी नासमझ नहीं हैं कि राहुल गांधी के आरोपों का जवाब देकर उन्हें अपने समकक्ष ला खड़ा करने का दर्जा दे दें. इसलिए उन्होंने अपने इंटरव्यू में राहुल की कही बातों को कोई तवज्जो न देते हुए यह समझाने की कोशिश जरूर की है कि हिंदुत्व आखिर क्या है? उनके मुताबिक हिन्दू हमारी पहचान व राष्ट्रीयता होने के साथ ही सबको अपना मानने एवं साथ लेकर चलने की प्रवृति भी है, इसलिए यहां सभी धर्म फले-फूले हैं. लेकिन संघ का एकमात्र उद्देश्य है कि हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तान ही बना रहे, ये बिल्कुल सीधी सी बात है. 


इससे आज भारत में जो मुसलमान हैं, उन्हें कोई नुकसान नहीं है. वह हैं. रहना चाहते हैं, रहें. पूर्वजों के पास वापस आना चाहते हैं, जाएं. ये उनके मन पर निर्भर है. उनकी इस बात का इशारा साफ है कि संघ या उसके विचारों को आगे बढ़ाने वाली कोई भी सरकार राष्ट्र को तोड़ने वाली ताकतों को कतई बर्दाश्त नहीं करने वाली है, फिर भले ही उसका नाता इस्लाम से हो या फिर हिन्दू समाज से. इसीलिए उन्हें इस्लाम के साथ-साथ हिंदुओं में भी ऐसी मानसिकता रखने वाले लोगों को ये समझाना पड़ा है कि हम बड़े हैं, हम एक समय राजा थे, हम फिर से राजा बनें. यह भाव छोड़ना पड़ेगा और दूसरों को भी छोड़ना पड़ेगा. ऐसा सोचने वाला कोई हिन्दू है तो उसे भी (यह भाव) छोड़ना पड़ेगा. कम्युनिस्ट है, उनको भी छोड़ना पड़ेगा.


भागवत से एक अहम सवाल ये पूछा गया था कि एक सांस्कृतिक संगठन होने के बावजूद संघ राजनीतिक मुद्दों में हस्तक्षेप क्यों करता है? शायद पहली बार भागवत ने इस मुद्दे पर संघ के रुख़ का इतने विस्तार से खुलासा किया है. भागवत ने कहा कि संघ ने जानबूझकर खुद को दिन-प्रतिदिन की राजनीति से दूर रखा है, लेकिन वह हमेशा ऐसी राजनीति में संलग्न रहता है जो "हमारी राष्ट्रीय नीतियों, राष्ट्रीय हित और हिंदू हित" को प्रभावित करती है. अंतर केवल इतना है कि पहले हमारे स्वयंसेवक राजनीतिक सत्ता के पदों पर नहीं थे. वर्तमान स्थिति में यह जुड़ा है, लेकिन लोग यह भूल जाते हैं कि ये स्वयंसेवक ही हैं जो एक राजनीतिक दल के माध्यम से कुछ राजनीतिक पदों पर पहुंचे हैं.


संघ संगठन के लिए समाज को संगठित करता रहता है. हालांकि, राजनीति में स्वयंसेवक जो कुछ भी करते हैं, उसके लिए संघ को जिम्मेदार ठहराया जाता है. भले ही हम दूसरों से सीधे तौर पर न जुड़े हों, लेकिन निश्चित रूप से कुछ जवाबदेही है क्योंकि अंततः यह संघ ही है जहां स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित किया जाता है. इसलिए, हम यह सोचने के लिए मजबूर हैं कि हमारा रिश्ता कैसा होना चाहिए, किन चीजों को हमें (राष्ट्रीय हित में) पूरी लगन के साथ आगे बढ़ाना चाहिए.


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