RSS Independence: अगले दो साल बाद अपनी स्थापना के 100 साल पूरे करने वाले दुनिया के सबसे बड़े सांस्कृतिक व सामाजिक संगठन RSS के लिए 12 जुलाई का दिन बेहद महत्वपूर्ण है. कहने को पहले जनसंघ और 42 साल पहले पैदा हुई बीजेपी का "भाग्यविधाता" आज भी संघ को ही माना जाता है, जिससे कोई इनकार भी नहीं कर सकता. लेकिन संघ के लिए ये तारीख़ इसलिए बेहद अहम बन जाती है कि 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के बाद खुद को एक सांस्कृतिक संगठन कहलाने वाले को अतिवादी संगठन ठहराते हुए तत्कालीन नेहरु सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया था.


लेकिन संघ के लिए ये तारीख़ इसलिए महत्वपूर्ण है कि 18 महीने का सरकारी प्रतिबंध झेलने के बाद 12 जुलाई 1949 की सुबह वह फिर से उन बेड़ियों से आज़ाद होकर अपने मूल रूप में आकर हर शहर में सुबह लगने वाली शाखाओं के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र हो चुका था. बेशक आज वो दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन होने के नाते दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र देश का सबसे ताकतवर संगठन भी है, जो अपने विरोधियों की आलोचना किये बगैर लगातार अपनी शाखाओं के विस्तार करने में जुटा है.


देश के मौजूदा माहौल को देखते हुए विपक्षी दलों समेत कई कट्टरपंथी नेता ये आरोप लगाते हैं कि इसके पीछे संघ की कट्टरवादी हिंदू विचारधारा है. लेकिन ऐसा आरोप लगाने से पहले शायद वे भूल जाते हैं कि 1925 में संघ की स्थापना से लेकर आज तक महज़ छह सर संघचालक हुए हैं और उनमें से शायद ही किसी ने हिंदुओं को अपने मुस्लिम भाइयों को भड़काने वाला कोई सार्वजनिक बयान ही दिया हो.


हालांकि अंग्रेजों की गुलामी में जकड़े भारतवर्ष को स्वतंत्र करने के लिए सांस्कृतिक व सामाजिक तौर पर एक अलख जगाने के उद्देश्य को लेकर ही डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार ने साल 1925 में आरएसएस की स्थापना की थी. वे तो इस पद पर 15 साल तक रहे लेकिन उन्होंने ही ये शुरुआत की थी कि अगला सर संघचालक कौन होगा, उसके नाम की घोषणा एक गोपनीय पर्ची पर लिखे नाम से होगी, जो पदमुक्त होते समय सारे स्वयंसेवकों को पता लग जायेगा कि अब संघ की कमान कौन संभालेगा.


साल 1940 में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई ने उफान लेना शुरु कर दिया था और उसी समय माधव सदाशिवराव गोलवलकर के हाथों में संघ की कमान आ गई. उन्हें तब अधिकांश लोग 'गुरूजी' कहकर ही संबोधित किया करते थे. ये वो दौर था, जब भगतसिंह, बटुकेश्वर दत्त, चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे दर्ज़नों क्रांतिकारी देश की आज़ादी के लिए अपना बलिदान दे चुके थे. लेकिन दूसरी तरफ महात्मा गांधी भी थे, जो अहिंसक तरीके से भारत को स्वतंत्र कराने के पक्षधर थे. उन्होंने अपने अहिंसक आंदोलन के जरिये ब्रिटिश हुकूमत पर कितना व कैसा दबाव बनाया, ये तो इतिहास के पन्नों में दर्ज है लेकिन 14 अगस्त 1947 की रात को जवाहर लाल नेहरु और मोहम्मद अली जिन्ना को खुश करने के लिए उन्होंने जो फैसला लिया, उसे आज भी इतिहास के सबसे मनहूस व सियाह पन्ने के तौर पर ही याद किया जाता है.


दरअसल, 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जोड़ कर देखा गया क्योंकि तत्कालीन सरकार का मानना था कि गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे का संघ से नाता है. तब सरकार ने  RSS के तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर को भी जेल में डाल दिया था और संघ पर 18 महीने तक प्रतिबंध लगा रहा. देश के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने 11 जुलाई, 1949 की देर रात को ये आदेश जारी किया कि सरकार द्वारा दिये सशर्त प्रतिबंध हटाने के प्रस्ताव को सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने मान लिया है, लिहाजा अगली सुबह से संघ पर लगे प्रतिबंध को पूरी तरह से हटाया जाता है.


दरअसल, संघ के अब तक के इतिहास में सिर्फ गोलवलकर ही हैं, जो सर संघचालक के पद पर सबसे ज्यादा यानी 33 साल तक बने रहे. लेकिन तब उन्हें भी ये प्रतिबंध हटाने के लिए खूब पापड़ बेलने पड़े थे क्योंकि आज की तरह उस जमाने की सरकार में कोई एक भी संघ का शुभचिन्तक नहीं था. 4 फरवरी, 1948 को आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने के लिए केंद्र सरकार के गृह विभाग द्वारा जारी विज्ञप्ति में कहा गया था कि "भारत सरकार देश में सक्रिय नफरत और हिंसा की ताकतें, जो देश की आजादी को संकट में डालने और उसके नाम को काला करने का काम कर रही हैं, उन्हें जड़ से उखाड़ने के लिए प्रतिबद्ध है. इस नीति के अनुसरण में भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को गैरकानूनी घोषित करने का निर्णय लिया है."


उसके बाद संघ से जुड़े हर व्यक्ति ने सरकार से प्रतिबंध हटाने के लिए कई बार प्रयास किए. आखिरकार जुलाई 1948 में हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सरदार पटेल ने एक चिट्ठी में लिखी 'मुझे इसमें कोई शक नहीं कि हिंदू महासभा के चरमपंथी गुट इस साजिश (गांधी की हत्या) में शामिल थे. आरएसएस की गतिविधियों ने राज्य और सरकार के अस्तित्व पर स्पष्ट तौर पर खतरा पैदा कर दिया है. हमारी रिपोर्ट बताती है कि प्रतिबंध के बावजूद यह गतिविधियां खत्म नहीं हुईं.'


लेकिन उसके बाद सितंबर, 1948 में संघ प्रमुख गोलवरकर ने सरदार पटेल को चिट्ठी लिखी और उसमें ऐसी कई दलीलें दी कि आखिर संघ पर से प्रतिबंध क्यों हटना चाहिए. उसके जवाब में सरदार पटेल ने लिखा 'हिंदू समाज को संगठित करना और उनकी मदद करना एक बात है, लेकिन उनके कष्टों के लिए निर्दोष, असहाय, महिलाओं और बच्चों से बदला लेना दूसरी बात है. उनके सारे भाषण सांप्रदायिकता के जहर से भरे होते हैं. हिंदुओं को उनकी रक्षा के लिए संगठित करने और उत्साहित करने के लिए जहर फैलान की आवश्यकता नहीं थी. इस जहर का ही नतीजा देश को गांधी जी के बलिदान से चुकाना पड़ा.'


इतिहास के तथ्यों  के मुताबिक इस चिट्ठी के बाद सरदार पटेल से गोलवरकर की दो बार और मुलाकात हुई. अंतत: 11 जुलाई, 1949 की देर रात को संघ से प्रतिबंध तब हटा जब तत्कालीन संघ प्रमुख गोलवरकर ने सरदार पटेल की शर्तें मानते हुए लिखित आश्वासन दिया. यह प्रतिबंध इस शर्त के साथ हटाया गया कि आरएसएस अपना संविधान बनाए और उसे प्रकाशित करे, जिसमें लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव हों. इसके साथ ही संघ एक सांस्कृतिक संगठन के तौर पर काम करते हुए राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहे. हिंसा और गोपनियता का त्याग करे. भारतीय ध्वज और संविधान के प्रति वफादार रहने की शपथ लेते हुए लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखे.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)