शासक और शक्ति: दो अध्यायों में एक उपमा
कोरोना महामारी के बीच राजधानी दिल्ली में बन रहे ‘सेंट्रल विस्टा’ परियोजना को लेकर सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विरोधियों के निशाने पर हैं. प्रधानमंत्री मोदी तुलना दिल्ली के उन सुल्तानों, मुगल बादशाहों और अंग्रेजों से हो रही है जिन्होंने दिल्ली की महान वास्तु-शिल्प-कला परंपरा में इस प्रोजेक्ट द्वारा अपनी पहचान और नाम इतिहास में दर्ज कराने के लिए लाखों लोगों के जीवन की कुर्बानी दे दी. क्यों न देनी पड़े.
14वीं सदी की दिल्ली का सुल्तान मुहम्मद तुगलक हर लिहाज से बेहद कठोर और सख्त मिजाज होने के बावजूद एक उदार शासक था. उसकी पहचान सिंहासन का क्रूरतापूर्ण और मनमाना उपयोग करने वाले सत्ताधीश की है. उसके शासनकाल का संभवतः सबसे विस्तृत और विश्वसनीय वर्णन मोरक्को के यात्री इब्न बतूता ने दर्ज किया है, जिसने सुल्तान के दरबार में करीब छह साल गुजारे थे. इब्न बतूता ने शुरुआत में ही समझ लिया कि ‘इस राजा को दो चीजों की लत है, एक तो लोगों को तोहफे देना और दूसरा लोगों का खून बहाना.’ अपनी पुस्तक के तीस पन्नों में इब्न बतूता ने विस्तार से वर्णन किया है कि सुल्तान ने खास तौर पर विदेशी मेहमानों समेत अपने राज्य के रईसों पर कैसे-कैसे तोहफों की बारिश की. इसके बाद उसने उन दुर्दांत और दर्दनाक सजाओं का वर्णन किया है, जो सुल्तान ने उन लोगों को दी, जिन्होंने उससे असहमत होने का साहस दिखाया था.
इन बातों समेत इब्न बतूता ने तुगलक द्वारा तब और अब की राजधानी दिल्ली को तबाह करने का जो मंजर लिखा, वह बेहद दिलचस्प है. उसने बताया है कि खून के प्यासे सुल्तान से तंग हो चुकी जनता ने ‘उसे खुलकर धिक्कार भरी और अपमानजनक बातें लिख कर भेजनी शुरू कर दी थी.’ और तब सुल्तान ने बदले की कार्रवाई करते हुए पूरे शहर को ही नष्ट कर डालने का फैसला किया. उसने दिल्ली के नागरिकों के नाम एक सख्त आदेश जारी किया कि इस शहर को छोड़ दें और दौलताबाद की तरफ कूच करें, जो वहां से हजारों मील दक्षिण में था.
सुल्तान ने कहा कि दौलताबाद सल्तनत की नई राजधानी होगा. इब्न बतूता ने लिखा कि सुल्तान ने अपने गुलामों और कर्मचारियों को दिल्ली का चप्पा-चप्पा छान कर यह सुनिश्चित करने के लिए भेजा कि हर एक शख्स ने उसकी आज्ञा का पालन किया है. सुल्तान के लोग दो आदमियों को घसीटते हुए ले आए, जो कहीं छुपे हुए थे. इनमें से एक विकलांग था और दूसरा अंधा. विकलांग को किले से नीचे फेंक दिया गया और अंधे आदमी को घसीटते हुए करीब चालीस दिनों की यात्रा करके दौलताबाद जाने पर मजबूर किया गया. इतने दिनों में अंधे आदमी का शरीर भी जर्जर हो गया और दौलताबाद पहुंचते-पहुंचते उसका बस मुर्दा शरीर ही बचा था. इस बीच, दिल्ली में सुल्तान ने अपने महल की छत पर चढ़कर पूरे शहर पर नजर दौड़ाई और देखा कि कहीं से कोई रोशनी तो नहीं आ रही, कहीं से धुआं तो नहीं उठ रहा. जब उसे तसल्ली हो गई कि दिल्ली उजड़ गई है तो उसने खुश होकर कहा, ‘अब मेरे दिमाग में शांति है और मेरी भावनाओं को संतोष मिला है.’ अपनी तानाशाही के निरंकुश प्रदर्शन से लाखों जिंदगियां खतरे में डाल और उनकी आजादी छीन कर आखिर दो साल बाद तुगलक ने फिर जनता के नाम फरमान जारी किया कि सभी दौलताबाद से दिल्ली लौट आएं.
भारत के प्रधानमंत्री सत्ता के लिए जुनूनी माने जाते हैं. ऐसा कहा जाता है कि वह देश को अपनी जागीर की तरह चलाते हैं और किसी तरह की असहमति उन्हें बर्दाश्त नहीं. कोरोना वायरस की महामारी के दौरान अपने कर्तव्य को निभाने में वह किस तरह नाकाम रहे हैं, यह पूरी दुनिया देख चुकी है. जानकारों के मुताबिक भाजपा में भी कुछ लोगों ने इसका अनुभव कर लिया है मगर उनमें सार्वजनिक रूप से कुछ बोलने का साहस नहीं है. मोदी और उनके मंत्रियों ने वैज्ञानिक विशेषज्ञों की कतई परवाह नहीं की और अब सब यह अनुभव कर रहे हैं कि कोरोना की दूसरी लहर की चेतावनी को अनदेखा कर दिया गया. नतीजा यह कि देश आज दुनिया की नजरों में दया का पात्र बना हुआ है. बीते कई दिनों से भारत में रिकॉर्ड 4000 से अधिक मौतें हो रही हैं. हर तरफ खबरें हैं कि वायरस कस्बों और गांवों में तेजी से अतिक्रमण कर रहा है. वहीं इस साल की शुरुआत में मोदी विजेता की तरह घोषणा कर रहे थे कि भारत ने न केवल कोरोना वायरस को पराजित कर दिया है बल्कि शेष विश्व के लिए एक उदाहरण पेश किया है.
दिमाग में आता है कि दोनों शासकों ने धन को लेकर ‘नाकाम’ प्रयोग किए. सुल्तान को हमेशा धन/राजस्व की जरूरत रहती थी और तब उसने सुना कि चीन ने कागज की नकदी ईजाद कर ली है. उसने तय किया कि वह तांबे से ऐसी नकदी बना सकता है. एलियास कैनेटी ने क्राउड्स एंड पावर में इन दोनों चीजों को जोड़ते हुए लिखा है, ‘बड़ी संख्या में तांबे के सिक्के ढाले गए, चांदी की कीमत के आधार पर मनमाने ढंग से उनका मूल्य तय किया गया और आदेश दिया गया कि इन सिक्कों का उपयोग सोने और चांदी के सिक्कों की जगह किया जाए.’ इसके बाद हर घर में टकसाल बन गए और ज्यादा समय नहीं गुजरा, तांबे की इस नई मुद्रा की कीमत गिर गई.
तांबे के सिक्कों का कंकड़-पत्थर जितना मोल भी नहीं रह गया और धन का अभाव अपने चरम पर पहुंच गया. मोदी ने भी अपने दिमाग से यही किया था. देश को काले धन से मुक्त करने की मुहिम में उन्होंने 8 नवंबर 2016 की शाम को पूरे देश को चौंका दिया. उन्होंने घोषणा की कि तत्काल प्रभाव से 500 और 1000 रुपये के करेंसी नोट लीगल टेंडर नहीं रहे और इन्हें बैंकों से नए नोटों द्वारा बदला जा सकता है. उनकी नोटबंदी (डिमोनीटाइजेशन) की योजना ने देश को अराजकता में झोंक दिया, बैंकों में नोटों की बेहद किल्लत हो गई और रोजमर्रा की कमाई से जिंदगी गुजारने वाले लाखों-करोड़ों गरीब दैनिक जीवन की जरूरी चीजों से महरूम हो गए. बाद में हमारे केंद्रीय बैंक, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने स्वीकार किया कि नोटबंदी एक प्रचंड नाकामी साबित हुई. 99.3% बंद नोट बैंकिंग सिस्टम में लौट आए, जिससे यही साबित होता है कि अर्थव्यवस्था से काला धन बाहर नहीं किया जा सका.
दिल्ली को नए सरकारी दफ्तरों और केंद्रीय सचिवालयों से विभूषित करने वाली इस परियोजना के केंद्र में एक भव्य संसद भवन है. 2019 में इस परियोजना को मंजूरी मिली थी और जनवरी 2021 में इसके निर्माण कार्य की शुरुआत हुई. मोदी ने इस आधार पर अपनी नई पहल को जायज ठहराया कि पूरा, खास तौर पर संसद भवन समेत 100 साल पुराना संसदीय परिसर आधुनिक समय की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है.
‘सेंट्रल विस्टा’ परियोजना अब आलोचनाओं के घेरे में है. कई सवाल उठ रहे हैं कि क्या वाकई ऐसे प्रोजेक्ट की हमें जरूरत है? खासतौर पर ऐसे समय में जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था जर्जर हो रही है और भारत विश्व के किसी अन्य देश के मुकाबले कोरोना के विरुद्ध लड़ाई से आर्थिक तबाही से रू-ब-रू नजर आ रहा है. 2020 में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार 9.6 फीसदी घट गया था. इस परियोजना की अनुमानित लागत 20 हजार करोड़ रुपये बताई जा रही है. यह एक ऐसे देश के लिए बहुत बड़ी रकम है, जिसका स्वास्थ्य ढांचा चरमरा चुका हो और जो देश की 90 फीसदी आबादी की जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहा हो. कई लोग इस आधार पर भी आपत्ति जता रहे हैं कि नई परियोजना का शिल्प, ब्रिटिश सत्ता के दौरान एडविन लुटियंस और हर्बर्ट बेकर द्वारा डिजाइन किए गए वास्तुशिल्प के साथ मेल नहीं खाएगा. इससे पूरे परिसर का सौंदर्य नष्ट हो जाएगा.
दिल्ली में इस समय चौबीसों घंटे चिताएं जल रही हैं. वेंटिलेटरों, एंबुलेंसों, अस्पताल के बिस्तरों, दवाओं, पीपीई किट और चिकित्सकों तक का अभाव है, हजारों लोग सांस लेने के लिए तड़प रहे हैं क्योंकि ऑक्सीजन सप्लाई का संकट है, जिससे मौतों की संख्या भयावह ढंग से बढ़ती जा रही है. शहर फिर से लॉकडाउन की जद में है. और बावजूद इसके कि जैसा प्रतिष्ठित अखबार द गार्जियन ने लिखा है ‘भारत कोविड के नर्क में धंसा’, सेंट्रल विस्टा का काम दिन-रात लगातार चल रहा है क्योंकि मोदी के शाही व्यवस्था-पत्र से यह संभव हुआ है. सेंट्रल विस्टा का निर्माण ‘अति-आवश्यक’ सेवाओं में शामिल किया गया है. अब मानव जीवन के मूल्य का इससे भी बड़ा मजाक कुछ हो सकता है क्या?
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