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ढीठ औरतें सबरीमाला की सीढ़ियां चढ़कर ही दम लेंगी, देखते हैं कौन जीतता है ? ढीठ औरतें या जिद्दी समाज

अदालत का आदेश तो आ गया, लेकिन जमीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं हुआ. औरतें फिर भी मंदिर से बाहर रहीं- अंदर नहीं जा पाईं. सरकार, प्रशासन, पुलिस, सब मजबूर से खड़े रहे.

नई दिल्ली: सबरीमाला मंदिर के पथीनेट्टम पदी पर प्रगतिशीलता ने दम तोड़ दिया. पथीनेट्टम पदी यानी सोने की वह 18 वीं सीढ़ी, जिस पर चढ़ने का सपना महिलाएं देख रही हैं. वही सीढ़ी श्रद्धालुओं को मंदिर के गर्भगृह में पहुंचाती है. परकेरल के अति साक्षर, अति प्रगतिशील समाज ने औरतों को उस सीढ़ी पर चढ़ने नहीं दिया. उसने अदालत के उस आदेश की अनदेखी की, जिसमें सबरीमाला मंदिर में सभी उम्र की औरतों को प्रवेश की अनुमति दी गई थी. सितंबर में सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया था- इससे पहले तक मंदिर में 10 से 50 साल के बीच की औरतों के घुसने पर पाबंदी थी. अदालत का आदेश तो आ गया, लेकिन जमीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं हुआ. औरतें फिर भी मंदिर से बाहर रहीं- अंदर नहीं जा पाईं. सरकार, प्रशासन, पुलिस, सब मजबूर से खड़े रहे.

क्योंकि राज्य और अदालतें हर गलत को सही नहीं कर सकते. क्योंकि नागरिक अधिकारों के हनन की कोई सीमा तय ही नहीं की जा सकती. क्योंकि न्यायिक फैसलों से धार्मिक आचरण और परंपराओं को बदला नहीं जा सकता. देश के कई मंदिरों में औरतों की इंट्री बैन है. इनमें से एक हरियाणा के पेहोवा में स्थित कार्तिकेय का मंदिर भी है. वहां आने वाली महिलाओं को भगवान श्राप दे देते हैं- ऐसा कहा जाता है. कुछ मस्जिदों में महिलाएं नमाज अदा नहीं कर सकतीं, और रोमन कैथोलिक औरतें पादरी नहीं बन सकतीं. इन चली-चलाई परंपराओं पर आप सवाल खड़ेनहीं कर सकते. अगर सवाल किया जाएगा तो धर्म की सत्ता की चूलें हिलने लगेंगी. वह आधिपत्य चकनाचूर हो जाएगी, जो औरतों पर कब्जा जमाने की फिराक में रहता है.

यह आधिपत्य हर समाज का हिस्सा है. वह समाज चाहे कितना भी संपन्न और शिक्षित क्यों न हो जाए. अक्सर विकास केरोमांटिक आइडियाज़ में कई दुखड़ों को छिपा लिया जाता. विकास के वृहद संकेतकों में दमित वर्गों और के अनुभवों को शामिल नहीं किया जाता. देश की गंगा जमुनी तहजीब और धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वाले इस बात पर सवाल नहीं करते कि हिंदू और मुस्लिम समाज में दलितों के लिए अलग कब्रिस्तान और कुएं क्यों होते हैं. जीडीपी के आंकड़े यह नहीं बताते कि समाज का उत्थान हुआ या नहीं. वह सिर्फ आय-व्यय केभ्रमजाल को फैलाते रहते हैं. इसीलिए किसी राज्य की साक्षरता और विकास के आंकड़े उसमें फैले भेदभाव और स्त्री विरोध को व्यक्त नहीं कर पाते. किसी ने कहा था, केरल का समाज तभी तक प्रगतिशील है, जब तक उसके वैल्यूज़ पर आप सवाल न करें. केरल देश के सबसे अधिक धार्मिक विविधता वाले राज्यों में से है. यहां लगभग 45 प्रतिशत अल्पसंख्यक रहते हैं. इसके बावजूद सबरीमाला का नजारा सारी पोल-पट्टी खोलकर रख देता है.

प्रगतिशील होने का मतलब यह नहीं कि आप पुरुषवादी सोच नहीं रखते. इटली के मशहूर प्रगतिशील फिल्मकार बर्नांदो बरतोलुची ने अपनी क्लासिक ‘लास्ट टैंगो इन पेरिस’ में सचमुच मार्लेन ब्रांडो से मारिया शिनेसदेर का रेप करवा लिया था. मकसद था, असलियत को शूट करना. फिल्मों को पीस ऑफ आर्ट होना चाहिए- भले ही वह किसीऔरत का सत्यानाश ही क्यों न कर दे. मार्लेन ब्रांडो भी एक प्रगतिशील ऐक्टर थे. अमेरिका में रंगभेद के खिलाफ ऑस्कर तक ठुकरा चुके थे. नेटिव अमेरिकन्स के साथ होने वाले अन्याय पर भाषणबाजियां करते रहते थे. यानी किसी आर्ट फॉर्म में प्रोग्रेसिव होने का मतलब यह नहीं कि औरतों के प्रति आपका नजरिया बदल जाएगा.

सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला पर फैसला देते हुए संवैधानिक नैतिकता को ऊपर रखा था. संविधान के अनुच्छेद 25-26 की जगह, 14-15 को महत्व दिया था और कहा था कि अदालत किसी भी रीति-रिवाज को संवैधानिक नैतिकता के आधार पर जांचती परखती है. पर जिद अब भी कायम है. इधर बेफिकर और बेखौफ औरतें भी ढिठाई पर उतारू हैं. ऊर्जा का अक्षयवट- छलछलाता सा उत्साह. पाकिस्तान की मशहूर फेमिनिस्ट राइटर किश्वर नाहीद जिन्हें गुनहगार औरतें कहती हैं, ‘जो न सिर झुकाए, न हाथ जोड़े’. सो, मर्दों को सोचना होगा कि उनके गुनाह पुराण को बांध- बूंधकर नहीं रखा जाएगा. उनका हिसाब तो लेना ही होगा.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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