लोकसभा चुनाव 2024 से पहले समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव एक ऐसे फ्रंट की बात कर रहे हैं जो केन्द्र की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी का मुकाबला कर सके. अखिलेश ने बकायदा ये कहा कि इसके लिए कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को अपनी भूमिका तय करनी होगी. इसके अलावा, अखिलेश ने तेलंगाना के सीएम के. चंद्रशेखर राव, तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और बिहार के सीएम नीतीश कुमार के प्रयासों का जिक्र किया. सपा अध्यक्ष ने ये भी कहा कि यूपी में बीजेपी को सभी 80 सीटों पर शिकस्ता का सामना करना पड़ेगा. सवाल उठ रहा है कि आखिर कौन से फ्रंट की अखिलेश यादव बात कर रहे हैं?
अखिलेश यादव जो कुछ बोल रहे हैं उसको समझने के लिए हमें राजनीतिक बाउंड्री से खुद को बाहर लेकर जाना पड़ेगा. जैसे हम तीसरे मोर्चे की बात करने लगे, लेकिन अखिलेश ने कहीं भी तीसरे मोर्चे की बात नहीं कही है.
तीसरा मोर्चा मतलब क्या है?
तीसरा मोर्चा मतलब क्या है? नॉन BJP और नॉन कांग्रेस मिलाकर तीसरा मोर्चा होता है. तीसरे मोर्चे के लिए एक ऐसी पार्टी का केन्द्र में होना जरूरी है, जिसका पैन इंडिया प्रजेंस हो, जैसा जनता दल हुआ करता था.
जनता दल का राष्ट्रीय स्तर का वोट एक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में क्षेत्रिय दलों के साथ म्युचुअली हस्तांतरित होता था. यानी, क्षेत्रीय दलों का वोट राष्ट्रीय पार्टी जनता दल में और जनता दल का वोट क्षेत्रीय पार्टियों में होता था. इसलिए नॉन बीजेपी और नॉन कांग्रेस बोलकर एक तीसरा मोर्चा अस्तित्व में था. आज कोई भी ऐसा राष्ट्रीय पार्टी नहीं है, जिसके इर्द-गिर्द क्षेत्रीय पार्टियां इकट्ठी हो पाए.
जो ममता बनर्जी हैं, वो एक भी सीट सपा सुप्रीमो अखिलेश की नहीं जीतवा सकती हैं और न अखिलेश यादव एक सीट ममता बनर्जी को जीतवा सकते हैं. ऐसे में इन दलों का गठबंधन कैसे तीसरा मोर्चा का स्वरूप ले सकता है? ये बातें सिर्फ अटकलबाजी है.
बिना अनुभव के दिया जा रहा बयान
जो भी लोग तीसरे मोर्चे की बात कर रहे हैं वो बिना अतीत के अनुभव और बिना ज्यादा इसमें पड़ताल किए हुए बोल रहे हैं. दरअसल, अखिलेश यादव ये चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश में उनका बेहतर परफॉर्मेंस कैसे हो सकता है. वे बीजेपी को कैसे रोकेंगे? इसके लिए चुनाव के बाद राष्ट्रीय स्तर पर क्षेत्रीय पार्टियों के सहयोग से एक अलग विकल्प हो, ये संदेश देना और कांग्रेस जैसी पार्टियों से उम्मीद करना कि ये उनकी मदद कर दे, ताकि इनका परफॉर्मेंस सुधरे, बिना चुनाव पूर्व गठबंधन किए हुए. अखिलेश यादव के कहने का सही मायने में यही मतलब है. ये कांग्रेस से त्याग की उम्मीद कर रहे हैं. कोई तीसरा मोर्चा नहीं है. अगर तीसरा मोर्चा होगा तो फिर ये कांग्रेस से क्यों उम्मीद करेंगे या फिर बीजेपी से ही क्यों उम्मीद करेंगे.
निश्चित तौर पर अखिलेश जिस गठबंधन की बात कर रहे हैं, वो चुनाव लड़ने के लिहाज से बिल्कुल भी फ्रूटफुल नहीं है. ये चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिहाज से ये गठबंधन महत्वपूर्ण होगा. चुनाव लड़ने और जीतने के लिए आपको राष्ट्रीय पार्टी इर्द-गिर्द म्युचुअली वोट ट्रांसफर जहां पर हों, वहां गठबंधन अगर करेंगे तो कुछ नतीजा वहां पर निकल पाएगा. अखिलेश यादव अगर ऐसा कुछ कह रहे हैं तो आपको ये बात स्पष्ट समझ में आनी चाहिए कि वो चुनाव पूर्व गठबंधन की बात कर रहे हैं, गठबंधन बनाकर एकजुट रखने की.
चाहे ममता बनर्जी, अखिलेश यादव या फिर टीआरएस हो, या अपने अलावा किसी अन्य पार्टी को चुनाव नहीं जीतवा सकती है. ऐसे में इनका किसी और के साथ गठबंधन के कोई मायने नहीं है. 2024 चुनाव के नतीजे के बाद इसकी वैल्यू होगी. वो भी तब जब ये परफॉर्म करेंगे और परफॉर्म तब करेंगे जब कांग्रेस जैसी कोई भी राष्ट्रीय पार्टी म्युचुअल तरीके से वोटों को हस्तांतरित करके अपनी सीटें बढ़ा सके. चाहे बीजेपी के साथ हो, क्योंकि बहुथ क्षेत्रीय पार्टियां हैं, जिनकी बीजेपी के साथ नजदीकियां है, जो चुनाव से पहले मिलकर सीटें बढ़ा लेते हैं और चुनाव बाद अलग रणनीतियां तय करते हैं. नीतीश कुमार इसके सबसे बड़े उदाहरण रहे हैं.
क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस को कितना महत्व देगी?
कांग्रेस ने वास्तविक स्तर पर बिहार और महाराष्ट्र जो दो बड़े राज्य हैं, वहां पर बीजेपी को शिकस्त देने के लिए गठबंधन कारगर होगा, इस चीज को वो समझ चुकी है. उसी हिसाब से कांग्रेस वहां पर रणनीति बना चुकी है. यूपी में अखिलेश यादव कांग्रेस से दूरी बना रहे हैं, चूंकि उनका अनुभव कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का अच्छा नहीं रहा था.
कांग्रेस चाहती है कि उनके साथ गठबंधन हो. लेकिन अखिलेश के लिए ये बेहतर नहीं है क्योंकि उनको लगता है कि कांग्रेस का वोट उनको नहीं मिल पाता है. उल्टा कांग्रेस का वोट छिटककर बीजेपी के पास चला जाता है. लेकिन, आपस में संबंध राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में सहयोग की संभावना और एक दूसरे से नजदीकी कांग्रेस के साथ उनकी है, मगर चुनावी रणनीति में एक दूसरे के साथ सहयोग करते हुए नहीं दिख रहे हैं. संबंध खराब नहीं है, लेकिन चुनाव मैदान में मिलकर लड़ने से रणनीति उल्टी पड़ जाती है.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. ये आर्टिकल वरिष्ठ पत्रकार प्रेम कुमार से बातचीत पर आधारित है.]