संभल की सर्वे रिपोर्ट पूरी पर विवाद अभी अनसुलझा, कहानी तो अभी बाकी है...
सम्भल के शाही जामा मस्जिद की सर्वे पूरी कर ली गयी है. कोर्ट कमिश्नर रमेश राघव ने लगभग 45 पन्नों की इस रिपोर्ट को बंद लिफ़ाफ़े में सिविल जज सीनियर डिवीजन की अदालत में गुरुवार देर शाम को पेश कर दिया है. अब इस रिपोर्ट में निहित सच्चाई और सर्वे का औचित्य कब तक सामने आ पाएगा यह देखने वाली बात होगी क्योंकि गत महीने ही माननीय सर्वोच्च न्यायालय, धर्मस्थलों को लेकर ऐसे किसी भी पुराने न्यायालयाधीन मामलों पर निर्णय देने पर पूर्णतया रोक लगा चुका है. इसके अलावा किसी भी मजहबी स्थल के सर्वे के नये आदेश भी नहीं दिए जा सकेंगे. हालांकि, कोर्ट ने यह फैसला प्लेसेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट कानून पर चल रही सुनवाई के दौरान दिया था मगर इसका पूरा प्रभाव सम्भल मामले में प्रत्यक्ष रूप से पड़ेगा. असदुद्दीन ओवैसी की एक याचिका को भी सर्वोच्च न्यायालय ने बाकी मुकदमों के साथ नत्थी कर दिया है.
रिपोर्ट में है हिंदू प्रतीकों का जिक्र
रिपोर्ट पर जब सुनवाई होगी तब होगी मगर सूत्रों के हवाले से जो खबरें सामने आ रही हैं वो शाही मस्जिद के लिए मुश्किलें बढ़ाती नज़र आ रही हैं. अपुष्ट खबरों की माने तो इस रिपोर्ट में मस्जिद के अंदर सनातन में पूज्य दो वट वृक्ष, फूलों और पत्तियों की नक्काशी की गयी दीवारें, एक कुआं आदि मिलने की बात आ रही है. मस्जिद में कई जगहों पर गुंबदों पर सीमेंट और प्लास्टर चढ़ाकर पुराने निर्माण पर नया कलेवर देकर उसके स्वरूप को बदलने की आशंका भी जतायी जा रही है. मस्जिद में एक जगह बड़ी सी जंजीर का भी उल्लेख किया जा रहा जैसे मंदिरों में बड़े घंटों को बांधकर लटकाने में प्रयुक्त होता है. मगर इन सारी दबी चर्चाओं पर सार्थक नतीजे तब तक बेबुनियाद हैं जब तक अदालती कार्यवाही पूरी नहीं हो जाती. कुएं, बरगद का पेड़, नक्काशी या जंजीर किसी भी स्थल पर हो सकते हैं. ये किसी मंदिर की निशानदेही तो नहीं ही हो सकती मगर पूरे रिपोर्ट के आ जाने और सुनवाई होने तक कुछ बिल्कुल स्पष्ट कहा भी नहीं जा सकता. हालांकि, बड़ी बात यह कि इतिहासकारों के दावों और पुराणों तथा बाबरनामा जैसी पुष्ट पुस्तकों में उजागर तथ्यों को तो नज़र अंदाज नहीं ही किया जा सकता है. अब चाहे असदुद्दीन ओवैसी एएसआई संरक्षित स्थल को वक्फ की जमीन तक बता दें मगर सच्चाई और कानूनी दस्तावेज ही निर्णय के आधार कभी भी रहेंगे.
बाबरनामा में भी है मंदिर तोड़ने का जिक्र
हरिहपनाथ मंदिर को तोड़ने का वर्णन मुगल अक्रांता बाबर ने अपनी आत्मकथा बाबरनामा में भी किया है क्या इस साक्ष्य को झुठलाया जा सकता है? हालांकि इस किताब के पेज 687 में मंदिर तोड़ने के आदेश का जिक्र है जो अधुना मस्जिद के शिलालेख में भी वर्णित है पर मंदिर के नाम का जिक्र नहीं है. स्कन्द पुराण में वर्णित कल्कि अवतार के इसी स्थल पर प्रादुर्भाव को चाहे झुठला दिया जाए मगर क्या आईना– ए-अकबरी और बाबरनामा में सम्भल के मंदिरों को ध्वस्त करने का वर्णन है, इसे भी झुठलाया जा सकेगा?
सम्भल के पूरे मामले को और सर्वे के आदेश से लेकर रिपोर्ट पेश करने की घटना तक इसे कई आयामों पर समझने की जरूरत है. सबसे पहले तो यह क्षेत्र एएसआई संरक्षित है तो यहाँ पर वर्शिप ऐक्ट 1991 लागू नहीं होता, इसलिए निचली अदालत द्वारा सर्वे का आदेश देना पूर्ण रूपेण संविधान सम्मत था. मगर तुष्टीकरण की राजनैतिक रोटी सेंकने वालों ने जैसे यहां झूठ और फरेब का भ्रम फैलाया उससे तो यही लग रहा था जैसे निचली अदालत हिन्दुत्व वाले किसी पर्सनल एजेंडे को आगे बढ़ा रही हो!
एएसआई संरक्षित इमारत पर जोड़तोड़!
संविधान सम्मत तो यही है कि एएसआई संरक्षित स्थलों पर प्राचीन स्मारक और पुरातात्विक स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 (एएसआई एक्ट) लागू होता है और समय-समय पर विभाग को इनकी जांच पड़ताल का भी अधिकार होता है. मरम्मत के कामों को छोड़ दें तो ऐसे स्थलों के मूल स्वरूप या ढांचे में बदलाव गैर कानूनी होता है. मगर सम्भल के मामले में इस ऐक्ट की अनदेखी बारम्बार हुई. सम्भल की मस्जिद 1920 से ही एएसआई द्वारा संरक्षित है मगर एएसआई को इस मस्जिद में नियमित निरीक्षण करने से प्रतिबंधित किया गया था, यहां तक कि एएसआई अधिकारियों को भी निरीक्षण के उद्देश्य से भी मस्जिद में प्रवेश की अनुमति नहीं थी. सबसे पहले जिला प्रशासन के सहयोग से 1998 में इस स्थल का निरीक्षण एएसआई द्वारा किया गया था और हालिया निरीक्षण 25 जून 2024 का था. तत्कालीन एएसआई के अधीक्षण पुरातत्वविद्, वीएस रावत ने तब एक हलफ़नामा दायर कर यह बताया था कि स्मारक में विभिन्न हस्तक्षेप और परिवर्धन देखे गए हैं. इस आधार पर जिम्मेदार व्यक्तियों को कारण बताओ नोटिस भी जारी किया गया था और पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई गयी थी.
वर्शिप ऐक्ट नहीं देता कानून तोड़ने का अधिकार
वर्शिप ऐक्ट का बार-बार हवाला देने वाले, संविधान की दुहाई देकर ‘बहुसंख्यक अल्पसंख्यक मुसलमान समाज’ को पीड़ित बताने वाले राजनैतिक दल और रहनुमा क्या ये बताएंगे कि इस मस्जिद में कानून का पालन सही ढंग से क्यों नहीं किया गया? 19 नवंबर को हुई पहले सर्वे जब रोशनी की कमी, तकनीकी व्यवधानों और स्थानीय लोगों द्वारा विघ्न डालने से अपूर्ण रही तो 24 नवंबर को दुबारा सर्वे में व्यवधान डाल दंगे करना क्या कानून संगत था? प्रश्न तो यह भी उठता है कि वर्शिप ऐक्ट 1991 और एएसआई ऐक्ट 1958 में आपसी घमासान कब तक और कितने स्थलों पर चलेगा? क्या देश अयोध्या, काशी, मथुरा, सम्भल और भोजशाला जैसे विवादित स्थलों में उलझा रहेगा, दंगों का शिकार होता रहेगा या इन सबका एकमुश्त कोई समाधान कानूनी तरीके से निकाल जाएगा! कानून का ग्रे शेड बहुत ही खतरनाक होता है क्योंकि इसका फायदा सब अपने अपने तरीके से निकालते हैं और हथियार बना एक दूसरे पर हमला करते हैं. उक्त दोनों ऐक्ट ऐसे ही ग्रे शेड की तरह विभिन्न राजनैतिक और मजहबी संगठनों द्वारा दुरुपयोग में लाया जा रहा. दंगों का भय हिन्दू समाज को जहां एक ओर अपने धार्मिक स्थलों पर दावे के बजाय मौन और पलायन की ओर बढ़ने पर मजबूर करते हैं, वहीं तुष्टीकरण की राजनीति को और बल मिलता है.
केंद्र सरकार की बड़ी है जवाबदेही
ऐसे में केंद्र सरकार की जवाबदेही बहुत ज्यादा बढ़ जाती है, मगर जब वो वरशिप ऐक्ट की वैधता को चैलेंज किए गए याचिका पर माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा पूछे गए केंद्र सरकार के दृष्टिकोण पर चार साल से मौन है तो संदेह के दायरे में सरकार भी आ रही है. सात से आठ बार केंद्र सरकार वर्शिप ऐक्ट पर अपने मन्तव्य को बताने के लिए न्यायालय से समय अवधि बढ़वाने की मांग कर चुकी है जो कि देश के सौहार्द को हल्के में लेने जैसी बात लगती है. एक तरफ सरकार नतीजों तक पहुंचने में देर कर रही दूसरी ओर सम्भल जैसे जगहों पर सर्वे को गयी टीम पर हमला, 29 पुलिस वालों का घायल होना, अमेरिका और पाकिस्तान में निर्मित कारतूसों का मिलना, आईएसआई द्वारा फंडिंग की बातों का सामने आना किसी भी लिहाज से मस्जिद के रहनुमाओं, स्थानीय मुसलमान समाज और इनके सांसद की मानसिकता को क्लीन चिट नहीं दे रहा. किसी भी सोच या व्यवहार में कट्टरता और जिद्द सभ्य समाज के लिए ठीक नहीं है. सच्चाई को कानूनी तरीके से शीघ्र सामने लाकर ऐसे सभी स्थलों के विवाद को समाप्त करना ही राष्ट्र हित में है.
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