![ABP Premium](https://cdn.abplive.com/imagebank/Premium-ad-Icon.png)
समलैंगिक विवाह को मान्यता देने से खड़ी हो जाएंगी कई अड़चनें, लेकिन पहचान के लिए हो कोई व्यवस्था
![समलैंगिक विवाह को मान्यता देने से खड़ी हो जाएंगी कई अड़चनें, लेकिन पहचान के लिए हो कोई व्यवस्था same sex marriage centre opposes in supreme court many constraints समलैंगिक विवाह को मान्यता देने से खड़ी हो जाएंगी कई अड़चनें, लेकिन पहचान के लिए हो कोई व्यवस्था](https://feeds.abplive.com/onecms/images/uploaded-images/2023/04/17/7b542a2abb46838d5c9a33ea20d676591681742046344606_original.jpg?impolicy=abp_cdn&imwidth=1200&height=675)
हमारे देश में समलैंगिक विवाह एक नया कॉन्सेप्ट है. सरकार कोई भी हो, हर सरकार संसद में जनता का प्रतिनिधित्व करती है. सरकार जनता की आवाज को कोर्ट में पहुंचाती है. समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के मुद्दे पर भी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए कहा है कि समलैंगिक विवाह भारतीय परंपरा के विरुद्ध है और इस कारण से इस तरह के विवाह को कानूनी मान्यता देने की आवश्यकता नहीं है.
सरकार ये बात कह रही है तो उसके पीछे कई कारण हैं. अगर समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दे दी जाती है तो यह व्यापक तौर से हर कानून को प्रभावित करेगा. ख़ासकर हिन्दू मैरिज एक्ट 1956, स्पेशल मैरिज एक्ट को भी प्रभावित करेगा. हिन्दू उत्तराधिकार कानून को भी प्रभावित करेगा.
जितने भी कानून बने हैं ऐसे, वो व्यक्ति के संबंधों को रेग्युलेट करने के लिए बने हैं. जब व्यक्ति के संबंधों की परिभाषा को बदल दिया जाएगा तो निश्चित रूप से जितने भी कानून हैं, उनमें बदलाव करना पड़ेगा. जैसे आईपीसी में भी कुछ परिवर्तन करने की जरूरत पड़ेगी.
ये सारे कानून विपरीत जेंडर के बीच संबंधों के लिहाज से बनाया गया है. अगर आप विवाह की व्याख्या को ही बदल देते हैं, तो स्वाभाविक है कि अन्य कानूनों में परिवर्तन की जरूरत पड़ेगी. केंद्र सरकार इन सारे पहलुओं को अच्छे से समझ रही है कि क्या-क्या व्यवधान आ सकते हैं.
भारत की सभ्यता, संस्कृति और यहां का समाज एक यूनिक समाज है और देशों की तुलना में बहुत अलग है. यहां पर धर्म और परंपराओं को बहुत ही मान्यता प्राप्त है. आप यूरोप, नॉर्थ अमेरिका, साउथ अमेरिका या अफ्रीका में चले जाएं को देखेंगे कि उन लोगों की परंपरा और संस्कृति हम लोगों से बिल्कुल अलग है. हमारे समाज में नारियों को बहुत ही पवित्र स्थान दिया जाता है. शायद इस तरह की परंपरा पश्चिम देशों में नहीं है. वहां पर विवाह एक कॉन्ट्रैक्ट होता है या अरेंजमेंट होता है. वहीं हमारे यहां जन्म-जन्म का साथ होता है.
हमारे यहां जो कानून व्यवस्था है, सुप्रीम कोर्ट है, हाईकोर्ट है. इनके फैसलों में भी बदलाव होता है. उस वक्त के चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने एकमत से 6 सितंबर 2018 को समलैंगिक संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था. आईपीसी की धारा 377 के तहत दो बालिग के बीच के सहमति से बने संबंधों को अपराध की कैटेगरी से बाहर कर दिया. उस वक्त का विचार अलग होगा और अब का विचार अलग होगा. उस पीठ में मौजूदा चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ भी थे. मैंने उस वक्त के जजमेंट को पढ़ा है और उसमें जो तर्क दिए गए हैं, उससे मेरी सहमति नहीं है. जब सुप्रीम कोर्ट ने सेक्शन 377 को डिक्रिमिनलाइज कर दिया, तो अप्रत्यक्ष तौर से तो समलैंगिक विवाह ऑटोमेटिक लीगल हो गया.
उस वक्त सरकार की सोच रही होगी, आज की सोच बदल गई है. कानून एक डायनेमिक विषय है. कानून में बदलाव होते रहते हैं. सरकार अगर चाहे तो संसद से कानून बनाकर समलैंगिक संबंधों को फिर से अपराध की श्रेणी में डाल सकती है. जैसे सुप्रीम कोर्ट कोई जजमेंट देती है तो उसको शून्य (void) करने के लिए सरकार संसद से कानून बना सकती है. संसद के पास ही कानून बनाने का अधिकार है. लेजिस्लेटिव जजमेंट सर्वोपरि होता है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट भी कानून बना सकती है. विशाखा गाइडलाइन्स सुप्रीम कोर्ट से ही तो कानून बना, तो सुप्रीम कोर्ट ये नहीं कह सकती है कि वो कानून नहीं बना सकती है. वो कानून की तरह ही गाइडलाइन्स दे ही सकती है. चूंकि सुप्रीम कोर्ट के हर निर्णय को कानून माना जाता है तो ये कानून तो रोज बनाते हैं. लेकिन पता नहीं सुप्रीम कोर्ट क्यों कह रही है कि वो कानून नहीं बनाती है.
संसद से बने कानून का टेस्ट सुप्रीम कोर्ट में होता है. सुप्रीम कोर्ट या तो उसे स्वीकार करती है या निरस्त करती है. अगर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में ये कहा है कि वो समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के खिलाफ है, तो निश्चित रूप से सुप्रीम कोर्ट इस मसले के हर एंगल को देखेगी. पक्ष और विपक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं. मेरा ये मानना है कि जब इंडिया में होमो सेक्सुअलिटी 30% हो गया है, तो भले ही समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता नहीं मिले, लेकिन इतनी बड़ी आबादी के लिए कोई न कोई व्यवस्था होनी चाहिए. ये लोग बिना किसी पहचान के रह रहें हैं, तो उनके लिए कानूनी व्यवस्था करने की जरूरत है.
(ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)
ट्रेंडिंग न्यूज
टॉप हेडलाइंस
![ABP Premium](https://cdn.abplive.com/imagebank/metaverse-mid.png)
![प्रफुल्ल सारडा](https://feeds.abplive.com/onecms/images/author/c5ef6dff88b1e29afef1302b64c18ecb.jpg?impolicy=abp_cdn&imwidth=70)