समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता की मांग से संबंधित तमाम याचिकाओं पर 17 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आया. देश की शीर्ष अदालत ने समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देने से इंकार कर दिया. संविधान के तहत विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में शक्ति के बँटवारे को मुख्य आधार बनाते हुए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ की ओर से इस तरह का फ़ैसला आया. कोर्ट ने स्पष्ट किया कि क़ानून बनाने या उसमें बदलाव करने  का अधिकार विधायिका या'नी संसद का है.


भविष्य के लिहाज़ से मील का पत्थर


सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को किसी पक्ष की जीत या किसी पक्ष की हार के नज़रिये तक ही सीमित नहीं किया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट का 17 अक्टूबर का फ़ैसला दूरगामी परिणाम वाला है. इसे एलजीबीटीक्यू समुदाय के अधिकारों के नज़रिये से देखने और समझने की ज़रूरत है. इस आधार पर पर ग़ौर करें, तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश में जो भी बातें कही गई है, वो भविष्य में एलजीबीटीक्यू समुदाय के अधिकारों के लिहाज़ से मील का पत्थर बनेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है.


समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देने की मांग से जुड़ी याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट की पाँच सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनवाई की और इसके बाद फ़ैसला दिया. इस पीठ में चीफ जस्टस ऑफ इंडिया डी.वाई चंद्रचूड़ के साथ ही जस्टिस संजय किशन कौल, पीएस नरसिम्हा, जस्टिस एस रवींद्र भट्ट और महिला जस्टिस हिमा कोहली शामिल थे.


एलजीबीटीक्यू समुदाय के लिए संवेदनशील मुद्दा



सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 21 याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए चार अलग-अलग फ़ैसले दिये. चीफ जस्टिस  डी.वाई. चंद्रचूड़ ने 247 पन्नों का अलग आदेश लिखा. जस्टिस संजय किशन कौल ने ने 17 पन्नों का फ़ैसला लिखा.  जस्टिस संजय किशन कौल चीफ जस्टिस के अधिकांश विचारों से सहमत नज़र आये. वहीं जस्टिस एस रवींद्र भट्ट ने अपने लिए और जस्टिस हिमा कोहली के लिए 89 पन्नों का आदेश लिखा. जस्टिस पी.एस नरसिम्हा के 13 पन्नों के आदेश में जस्टिस एस रवींद्र भट्ट और जस्टिस हिमा कोहली के निष्कर्षों से सहमति जतायी गयी. कुल मिलाकर यह आदेश 366 पन्नों का हो जाता है. एक संविधान पीठ, लेकिन चार अलग-अलग फ़ैसले.....समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता से जुड़ा मुद्दा एलजीबीटीक्यू समुदाय के साथ ही देश और समाज के लिए कितना गंभीर था, यह इससे समझा जा सकता है.


समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता नहीं


हालांकि संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से विशेष विवाह क़ानून के तहत या'नी स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देने से मना कर दिया. दरअसल इन याचिकाओं में समलैंगिक विवाह को स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954 के दायरे में लाने की मांग की गई थी. मौटे तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश के ज़रिये ऐसा करने से मना कर दिया. लेकिन संविधान पीठ के चार अलग-अलग फ़ैसलों में ऐसा बहुत कुछ है, जिससे एलजीबीटीक्यू या फिर कहें..LGBTQIA समुदाय के साथ-साथ समलैंगिक रिश्ते में रहने वाले लोगों के अधिकारों को लेकर भविष्य में बहुत कुछ होने का रास्ता खुल गया है.


समान अधिकार और सुरक्षा से जुड़ा विषय


एलजीबीटीक्यू समुदाय के दायरे में वाले लोगों के लिए समान अधिकार और उनकी सुरक्षा के साथ ही समलैंगिक संबंधों में रहने वाले लोगों के अधिकार और सुरक्षा का मसला बेहद ही महत्वपूर्ण है. जब भी इस तरह का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में पहुंचता है, तो अपने आप उस पर देशभर में बहस होती है. एक वक्त़ था, जब भारत में इन लोगों के अधिकार और सुरक्षा पर बात तक नहीं होती थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 6 सितंबर 2018 को ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था. उसके बाद से धीरे-धीरे ही सही देश में उन मुद्दों के प्रति आम लोगों में भी संवेदनशीलता आने लगी.



भेदभाव से बचाने के लिए सोच में बदलाव


सुप्रीम कोर्ट ने 17 अक्टूबर के फ़ैसले में भी माना है कि एलजीबीटीक्यू समुदाय और समलैंगिक संबंधों में रहने वाले लोगों के अधिकार और सुरक्षा का मसला बेहद गंभीर है. एक तरह से कोर्ट के फ़ैसले से उनके अधिकारों और सुरक्षा को मान्यता मिली है. कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि इस दिशा में आम लोगों को संवेदनशील होने की ज़रूरत है. कोर्ट ने माना है कि ऐसे समुदाय से आने वाले लोगों को किसी भी भेदभाव से बचाया जाना चाहिए. इसके लिए सरकार की ओर से कदम भी अपनाया जाना चाहिए. साथ में आम लोगों के बीच भी सोच में बदलाव बेहद ज़रूरी है.


लोग धीरे-धीरे संवेदनशील और जागरूक हो रहे हैं


पहले आम लोग इस तरह के समलैंगिक संबंधों को अपराध के साथ ही मानसिक बीमारी के तौर पर देखते थे. लेकिन एक लंबी लड़ाई के बाद जब सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में सहमति से वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों को अपराध की कैटेगरी से बाहर कर दिया, तो समाज में ऐसे संबंधों को लेकर जागरूकता बढ़ने लगी. सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी और 17 अक्टूबर के फ़ैसले में भी इस बात को स्पष्ट किया है कि समलैंगिकता कोई बीमारी नहीं है और न ही यह एलीट क्लास या उच्च वर्ग तक सीमित कोई अवधारणा है. एलजीबीटीक्यू से जुड़ा पहलू पूरी तरह से नैसर्गिक है. यह कोई बीमारी या कुप्रवृत्ति नहीं है. चिकित्सा विज्ञान में भी इसे बहुत पहले ही प्रमाणों के साथ मान लिया गया है.


समलैंगिक संबंध शहरी अभिजात्य अवधारणा नहीं


सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि यह बिल्कुल ग़लत है कि समलैंगिक संबंध या ऐसे विवाह को क़ानूनी मान्यता देने की याचिका शहरी अभिजात्य अवधारणा तक सीमित है. शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार की ओर से दी गई दलील से जुड़ी प्रकार की सोच की आलोचना भी की है. कोर्ट का इतना तक कहना है कि इसे शहरी इलाकों तक सीमित करने का प्रयास ऐसे लोगों को मिटाने जैसा है. कोर्ट के मुताबिक किसी भी जाति या तबक़े के लोग समलैंगिक हो सकते हैं.


समलैंगिकता कोई बीमारी या कुप्रवृत्ति नहीं


चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़ ने इस बात को भी स्पष्ट किया है कि क्वीयरनेस (Queerness) एक नैसर्गिक गुण या घटना है, जिसके बारे में भारत में प्राचीन समय से जाना जाता है. उन्होंने यह भी कहा कि अब यब प्रश्न प्रासंगिक है ही नहीं कि समलैंगिकता या क्वीयरनेस अप्राकृतिक है क्योंकि 2018 के नवतेज सिंह जौहर केस में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया था कि यह जन्मजात और प्राकृतिक है. चीफ जस्टिस ने यह भी स्पष्ट किया कि नवतेज सिंह जौहर केस के बाद अगर केंद्र सरकार की इस दलील को नहीं स्वीकार किया जा सकता है कि विपरीत लिंगी मिलन क़ानून के मुताबिक़ है, जबकि समलैंगिक मिलन क़ानून के विपरीत. समलैंगिक प्रेम प्राचीन काल से ही भारत में पनपा है.


समलैंगिक संबंध भारत में पूरी तरह से वैध हैं


चीफ जस्टिस की ये टिप्पणी इस नज़रिये से बेहद अहमियत रखती है कि भले ही फिलहाल विवाह को क़ानूनी मान्यता न मिले, लेकिन समलैंगिक संबंधों को लेकर लोगों में कोई ग़लत-फ़हमी नहीं होनी चाहिए. इस तरह के संबंध पूरी तरह से नैसर्गिक होने के साथ ही क़ानूनी तौर से भी वैध हैं.


चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ मानते हैं कि जीवन साथी के चयन की क्षमता का संबंध संविधान के मौलिक अधिकार से जुड़े भाग तीन के अनुच्छेद 21 के तहत मिले अधिकार से है. यानी इसका संबंध जीवन और स्वतंत्रता के हक़ से है. चीफ जस्टिस ने संबंधों के अधिकार में ही जीवन साथ चुनने और उसे मान्यता देने को शामिल माना है. उनका स्पष्ट विचार है कि ऐसे संबंधों को मान्यता नहीं देना भेदभाव है. चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने एक और बात कही है. उनका मानना है कि समलैंगिक लोगों के साथ भेदभाव का मसला समानता के अधिकार से जुड़ा है और उसी नज़रिये से इस पर गौर होना चाहिए.


समलैंगिक को भी साथी के चयन का अधिकार


अपने निष्कर्ष में चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने स्पष्ट तौर से कहा है कि बाक़ी नागरिकों की तरह समलैंगिक जोड़े को भी संबंध या रिश्ते में रहने का अधिकार संविधान के भाग तीन या'नी मौलिक अधिकार का हिस्सा है. उनका मानना है कि इस तरह के जोड़े को भी क्या-क्या अधिकार मिलने चाहिए, उनकी पहचान करना किसी भी सरकार के लिए ज़रूरी है. चीफ जस्टिस ने कहा है कि सरकार का यह दायित्व है कि ऐसे संबंधों की पहचान करे और उन्हें बाक़ी जोड़े की तरह क़ानून के तहत सारे लाभ मिल सके, इसकी ओर ध्यान देना चाहिए.


उच्च स्तरीय कमेटी से भविष्य की राह खुलेगी


चीफ जस्टिस ने यह बात कही है कि स्पेशल मैरिज एक्ट में बदलाव की दरकार है या नहीं, इस पर फ़ैसला लेना संसद का काम है. उन्होंने स्पष्ट तौर से कहा कि अदालत सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के उस बयान को दर्ज करता है कि केंद्र सरकार समलैंगिक लोगों के अधिकारों के सिलसिले में निर्णय लेने के लिए एक समिति गठित करेगी. चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की यह बात अपने आप में भविष्य के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है.


सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा था कि कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में केंद्र सरकार एक कमेटी गठित करेगी. कमेटी इस पर विचार करेगी कि समलैंगिक संबंधों में रह रहे जोड़े को किस तरह से परिभाषित किया जाये, ऐसे जोड़े के लिए क्या और किस तरह से अधिकार सुनिश्चित हों. कमेटी इस मुद्दे से संबंधित सभी स्टेकहोल्डर से विस्तृत विचार के बाद ही कोई सिफ़ारिश करेगी. 


सुप्रीम कोर्ट से कमेटी के लिए कुछ बातें तय


एलजीबीटीक्यू और समलैंगिक जोड़े के लिए अधिकारों के लिहाज़ से कमेटी का काम बेहद महत्वपूर्ण है. चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने इस कमेटी के लिए कुछ बातों को तय किया है. कमेटी को अपनी रिपोर्ट तैयार करने में  सुप्रीम कोर्ट के 17 अक्टूबर के फै़सले को ध्यान में रखना होगा. कमेटी विचार करेगी कि समलैंगिक संबंध में रह रहे जोड़े को राशन कार्ड के मकसद से उसी परिवार का हिस्सा माना जाये या नहीं. कमेटी इस पर भी विचार करेगी कि समलैंगिक जोड़े के लिए बैंक खाते की सुविधा हो, जिसमें पार्टनर को मृत्यु होने की स्थिति में नॉमिनी बनाने का विकल्प हो. कमेटी को  इस पर भी विचार करना है कि ऐसे जोड़े में से किसी एक के अस्पताल में भर्ती होने पर दूसरे पार्टनर को इलाज की अनुमति के मकसद से फैमिली का हिस्सा माना जाये.


ऐसे जोड़े में से किसी एक के जेल जाने पर मुलाक़ात का अधिकार हो और मरने पर बॉडी को हासिल करने और अंतिम संस्कार करने का अधिकार हो. कमेटी को इस पर भी विचार करना है. उत्तराधिकार से जुड़े मसले, भरण-पोषण, आयकर अधिनियम 1961 के तहत वित्तीय लाभ, रोजगार से मिलने वाले अधिकार जैसे ग्रेच्युटी और पारिवारिक पेंशन और बीमा जैसे मसलों पर भी कमेटी विचार करेगी. कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता वाली इस समिति की रिपोर्ट को केंद्र सरकार के साथ ही राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों की ओर से प्रशासनिक स्तर पर लागू किया जायेगा.


जस्टिस एस रवींद्र भट्ट के फ़ैसले में भी उम्मीद


यह बात सही है कि जस्टिस एस रवींद्र भट्ट के फ़ैसले में पहले से चली आ रही व्यवस्था या'नी विपरीत लिंगों के बीच विवाह को ही क़ानूनी मान्यता पर फोकस किया गया है. निष्कर्ष के तौर पर उन्होंने कहा है कि रीति रिवाज के हिसाब से जिस विवाह को क़ानूनी मान्यता मिलती आ रही है, उसके अलावा किसी और तरह के विवाह का अधिकार नहीं है. मिलन के अधिकार को क़ानूनी दर्जा सिर्फ़ अधिनियमित क़ानून या'नी संसद से पारित क़ानून के माध्यम से ही संभव है. इन दोनों के आधार पर उन्होंने समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देने से इंकार कर दिया.


हिंसा या धमकी का सामना नहीं करना पड़े


इसके बावजूद जस्टिस एस रवींद्र भट्ट के फ़ैसले में एक तथ्य बेहद महत्वपूर्ण है. उन्होंने स्पष्ट किया है कि भले ही विवाह को क़ानूनी मान्यता न मिले, लेकिन ऐसे समलैंगिक जोड़े में रहने वाले लोगों को एक-दूसरे के प्रति प्यार दिखाने और साथ रहने का पूरा अधिकार है. जस्टिस एस रवींद्र भट्ट ने अपने फ़ैसले में ये भी कहा है कि समलैंगिक और एलजीबीटीक्यू जोड़े किस तरह से सहवास करेंगे, इसमें कोई बाहरी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए. उन्हें किसी हिंसा या धमकी का सामना नहीं करना पड़े. इसे सुनिश्चित करने के लिए हर ज़रूरी कदम उठाए जाने चाहिए.


उन्होंने सरकार से यह भी सुनिश्चित करने को कहा है कि  किसी भी समलैंगिक जोड़े और ट्रांसजेंडर लोगों को अनैच्छिक चिकित्सा उपचार या सर्जरी के लिए किसी उत्पीड़न का सामना नहीं करना पड़े. जस्टिस एस रवींद्र भट्ट ने स्पष्ट किया है कि विपरीत लिंगी संबंधों में ट्रांसजेंडर लोगों को मौजूदा वैधानिक प्रावधानों के तहत विवाह करने की पूरी स्वतंत्रता है, यह उनका अधिकार है.


समानता और गैर-भेदभाव बुनियादी अधिकार


समानता और गैर-भेदभाव बुनियादी मूलभूत अधिकार हैं, इस पहलू का ज़िक्र करते हुए जस्टिस एस रवींद्र भट्ट ने स्पष्ट तौर से कहा है कि अगर वैवाहिक स्थिति की वज्ह से किसी समलैंगिक जोड़े को सामाजिक कल्याण से जुड़ी योजनाओं या दूसरी बेनेफिट का लाभ नहीं मिल पा रहा है, तो इस दिशा में सरकार को काम करना चाहिए.


समलैंगिक जोड़े को वो सारे लाभ मिल सकें, इसके लिए सरकार की ओर से उचित रूप से निवारण और निराकरण के लिए तेज़ गति से ज़रूरी क़दम उठाया जाना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता है तो हर नागरिक को समान लाभ मिलने की कसौटी के तहत यह अन्यायपूर्ण और अनुचित है. जस्टिस एस रवींद्र भट्ट ने भी माना है कि रोजगार लाभ, भविष्य निधि, ग्रैच्युटी, पारिवारिक पेंशन, कर्मचारी राज्य बीमा, चिकित्सा बीमा, वैवाहिक मामलों से जो मुद्दे नहीं जुड़े हैं...ऐसे अधिकारों और बेनेफिट से जुड़ी नीतियों और अधिकारों के प्रभाव पर सरकार को अध्ययन करना होगा. उन्होंने भी कहा है कि कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में बनने वाली कमेटी इस मसले से जुड़े हर पहलू की गहनता से समीक्षा करे.


बहु-विषयक दृष्टिकोण और बहु केंद्रित समाधान


जस्टिस एस रवींद्र भट्ट ने अपने फ़ैसले में माना है कि एलजीबीटीक्यू समुदाय को जो भी भेदभाव और अत्याचार झेलना पड़ा, उन भावनाओं को कोर्ट समझता है. उन्होंने माना कि इस दिशा में बहु-विषयक दृष्टिकोण और बहु केंद्रित समाधान के लिए व्यापक अध्ययन की ज़रूरत है. यह अदालत से संभव नहीं है. इस बातों से जस्टिस एस रवींद्र भट्ट ने स्पष्ट कर दिया कि सरकार को इस दिशा में भविष्य में गंभीरता से क़दम उठाने की ज़रूरत है.


अलग-अलग बिंदुओं पर संविधान पीठ के सदस्यों में मतभेद के बावजूद समलैंगिक जोड़ों को कुछ अधिकार देने को लेकर 17 अक्टूबर को चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस संजय किशन कौल एक साथ दिखे. जस्टिस संजय किशन कौल का मानना था कि समलैंगिक संबंधों और विपरीत लिंग के बीच संबंधों को एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह देखना चाहिए.


समलैंगिक संबंध वैवाहिक समानता की ओर क़दम


चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस संजय किशन कौल इन दोनों ने ही एक महत्वपूर्ण बात लिखी है. इनका मानना है कि समलैंगिक संबंधों को क़ानूनी मान्यता देना वैवाहिक समानता की ओर ही एक क़दम है. सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में शामिल सभी जज 17 अक्टूबर के फ़ैसले में इस बात पर सहमत दिखे कि अदालत समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता नहीं दे सकती. दरअसल सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि कोर्ट क़ानून बनने के बाद उसकी व्याख्या कर सकती है, उसकी संवैधानिकता की समीक्षा कर सकती है. स्पेशल मैरिज एक्ट में बदलाव का काम संसद का है.


चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल के साथ ही जस्टिस एस रवींद्र भट्ट ने भी माना कि विवाह करना संविधान के तहत कोई मौलिक अधिकार नहीं है. इस आधार पर समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देने से बाक़ी नागरिकों की तरह ही एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों के मौलिक अधिकार का हनन नहीं हो रहा है.


आम लोगों को जागरूक करने पर ज़ोर


चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने एक और काम किया है, जिससे इस फ़ैसले की अहमियत बढ़ जाती है. उन्होंने समलैंगिक अधिकारों के बारे में आम लोगों को जागरूक करने के लिए कदम उठाने को लेकर केंद्र के साथ ही राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को निर्देश दिया है. इसके साथ ही उन्होंने स्पष्ट किया है कि लिंग-परिवर्तन ऑपरेशन की अनुमति उसी उम्र में दी जाये, जब इच्छुक लोग इसके हर तरह के नतीजे समझने में ब-ख़ूबी सक्षम हो जायें.


कमेटी से भविष्य में समुदाय की उम्मीदें


सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद इतना तो तय है कि एलजीबीटीक्यू समुदाय के अधिकारों, भेदभाव से जुड़े मसलों पर भविष्य में केंद्र सरकार की ओर से उच्च स्तरीय कमेटी गठित होगी. इस समुदाय के लोगों को कमेटी के सामने अपनी बात रखने का मौक़ा मिलेगा. बाद में कमेटी की सिफ़ारिशें इस समुदाय के लोगों के अधिकारों को बाक़ी नागरिकों की तरह ही सुनिश्चित करने में मददगार साबित होंगी.


पूरी प्रक्रिया ही अपने आप में महत्वपूर्ण


सुप्रीम कोर्ट में इस तरह का मामला पहुंचता है, तो वहां सुनवाई होती है, उसके पक्ष-विपक्ष में दलीलें रखी जाती हैं, उसका मीडिया कवरेज होता. कोर्ट से बाहर अलग-अलग मंचों पर पक्ष-विपक्ष में बहस तेज़ होती है. यह पूरी प्रक्रिया ही अपने आप में एलजीबीटीक्यू समुदाय से आने वाले लोगों के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है. उसके बाद जब सुप्रीम कोर्ट अपने आदेश में इस समुदाय के लिए सरकार और समाज से कुछ अपेक्षा ज़ाहिर करती है, तो अधिकारों की गारंटी और भेदभाव को दूर करने के लिहाज़ से बहुत महत्व रखता है. कुछ ऐसा ही समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देने से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के आदेश के साथ भी है. इसके दूरगामी परिणाम होंगे, इसमें कोई दो राय नहीं है.


समलैंगिक संबंध और विवाह के दो पहलू


यहाँ समलैंगिक संबंध और विवाह से दो पहलू जुड़े हैं. पहला, क्या समलैंगिक जोड़े साथ में रह सकते हैं.  दूसरा, उनके बीच के विवाह को भारतीय क़ानूनों के मुताबिक़ मान्यता मिल सकती है और विपरीत लिंगी विवाहों की तरह क़ानूनी तौर से उसका रजिस्ट्रेशन हो सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने 17 अक्टूबर के फ़ैसले में समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देने से ज़रूर इंकार किया है, लेकिन इसको समझना होगा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश में समलैंगिक जोड़े के साथ रहने या अपने आप से..अपने तरीके से विवाह करने पर कोई रोक नहीं है. इसके उलट संविधान पीठ के हर सदस्य ने माना है कि समलैंगिक संबंध में रहने वाले लोगों को ऐसे संबंध में रहने की पूरी छूट होनी चाहिए, उनके साथ सामाजिक भेदभाव नहीं होना चाहिए. साथ ही उनकी सुरक्षा को भी हर सदस्य में महत्वपूर्ण माना है और इस दिशा में सरकार से क़दम उठाने को कहा है.


गोद लेने के मुद्दे पर भी सोचने की ज़रूरत


समलैंगिक जोड़ों के लिए गोद लेने के अधिकार के नज़रिये से भी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की अहमियत है. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़ ने इस मामले में माना कि फ़िलहाल गोद लेने के जो नियम हैं, उनसे समलैंगिक लोगों के साथ भेदभाव हो रहा है. इस लिहाज़ से नियम अमान्य है. उन्होंने स्पष्ट कहा कि कोई भी क़ानून यह नहीं मान सकता कि सिर्फ़ विपरीत लिंग के जोड़े ही अच्छे माता-पिता साबित हो सकते हैं. अगर ऐसा माना जायेगा, तो यह समलैंगिक जोड़ों के खिलाफ भेदभाव होगा.


हालांकि जस्टिस एस रवींद्र भट्ट ने इससे असहमति जताते हुए कहा कि नियम को सिर्फ़ इस आधार पर अमान्य नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि समलैंगिक जोड़ों को गोद लेने की अनुमति नहीं है.  इसके बावजूद जस्टिस एस रवींद्र भट्ट ने स्पष्ट किया है कि सेंट्रल एडॉप्शन रिसोर्स अथॉरिटी और केंद्र सरकार को एक पहलू पर ज़रूर विचार करना चाहिए. वास्तविक परिवार के विपरीत  एकल व्यक्तियों को गोद लेने और उसके बाद गैर-वैवाहिक रिश्ते में रहने की अनुमति है. किसी अप्रत्याशित स्थिति में, ऐसे गोद लिए गए बच्चे...विवाहित जोड़ों के गोद लिए गए बच्चों को मिलने वाले लाभों से वंचित हो सकते हैं. उन्होंने माना कि इस पहलू पर सरकार को और विचार किये जाने की ज़रूरत है.


2018 के ऐतिहासिक फ़ैसले का अगला पड़ाव


देश में मौजूदा क़ानून के हिसाब से समलैंगिक जोड़े.. आम जोड़े की तरह साथ में रह भी सकते हैं.. अपने हिसाब से विवाह भी कर सकते हैं. इसको लेकर कोई ग़लत-फ़हमी या भ्रम किसी को नहीं होना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2018 में नवतेज सिंह जौहर केस में जो आदेश दिया था, उससे यह तय हो गया था. उस केस में सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय पीठ ने कहा था कि परस्पर सहमति से वयस्कों के बीच समलैंगिक यौन संबंध अपराध नहीं है. कोर्ट ने माना था कि ऐसे यौन संबंधों को अपराध के दायरे में रखने की आईपीसी की धारा 377 के प्रावधान से संविधान से मिले समता और गरिमा के अधिकार का हनन होता है. सहमति से समलैंगिक संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर करते हुये शीर्ष अदालत का कहना था कि यह प्रावधान तर्कहीन, सरासर मनमाना और बचाव किये जाने लायक नहीं है.


उस वक़्त सुप्रीम कोर्ट ने साथ में यह भी स्पष्ट किया था कि अगर दो वयस्कों में से किसी एक की सहमति के बगैर समलैंगिक यौन संबंध बनाए जाते हैं तो ये आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध की श्रेणी में आएगा और दंडनीय होगा. इसके जरिए सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह के संबंधों में भी वयस्कता और सहमति को सर्वोपरि माना था.


समलैंगिक आंदोलन को भविष्य में लाभ


समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देना या नहीं देना ...सुप्रीम कोर्ट के 2018 के फ़ैसले के अगले पड़ाव से ही जुड़ा पहलू है. अगर 2018 का फ़ैसला उस रूप में नहीं आता, तो समलैंगिक संबंधों में रहने वाले लोगों की ओर से समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देने की मांग का प्रश्न ही नहीं उठता. सुप्रीम कोर्ट का 17 अक्टूबर का फ़ैसला एक नज़रिये से समलैंगिक आंदोलन के लिए तात्कालिक झटका हो सकता है, लेकिन भविष्य में इससे नई राह बनेगी, इतना ज़रूर कहा जा सकता है. भारत में समलैंगिक संबंध क़ानूनी तौर से पूरी तरह से वैध है. हालांकि समलैंगिक संबंधों में रहने वाले लोग सामाजिक सुरक्षा और भेदभाव से बचने के लिए समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता दिये जाने की मांग कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से भले ही उनका इंतज़ार लंबा हो गया है, लेकिन उम्मीद क़ायम है.


एलजीबीटीक्यू समुदाय की लंबी लड़ाई


ऐसे भी इस समुदाय की लड़ाई बेहद लंबी रही है. भारत में एलजीबीटीक्यू समुदाय ने एक लंबी लड़ाई लड़ी तब जाकर समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर किया गया. ये लड़ाई तो लंबी थी लेकिन सबसे पहले 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने नाज़ फाउंडेशन केस में फैसला सुनाते हुए समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर करते हुए आईपीसी की धारा 377 को अवैध बताया था. हालांकि 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने सुरेश कुमार कौशल केस में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए समलैंगिक यौन संबंधों को फिर से अपराध की श्रेणी में शामिल कर दिया था. उसके बाद सितंबर 2018 में नवतेज सिंह जौहर केस में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने अपने पुराने आदेश को बदलते हुए समलैंगिकता को अपराध की कैटेगरी से बाहर कर दिया.


2018 के फ़ैसले से सब कुछ बदल गया


जब सुप्रीम कोर्ट से 2018 का फै़सला आ गया तो उसके बाद अपने आप यह परिस्थिति पैदा हो गई कि समलैंगिक संबंध वाले जोड़े साथ रह सकें, साथ घर ले सकें, साथ निवेश कर सकें, साथ बच्चे गोद लेकर परवरिश कर सकें. इसके अलावा एक कपल के तौर पर हर वो बुनियादी सुविधाओं को हासिल कर सकें, जिनसे उनके रिश्ते को सामाजिक और क़ानूनी सुरक्षा मिल सके. जिस तरह से 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि ब्रिटिश काल में बनी आईपीसी की धारा 377 में समलैंगिकता को अपराध के दायरे में रखने से संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 से मिले मौलिक अधिकारों का हनन होता है, वहीं आधार समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता नहीं देने पर भी लागू होता है. ऐसा मानकर ही समलैंगिक संबंधों में रह रहे लोगों ने अपने विवाह को क़ानूनी मान्यता देने की मांग सुप्रीम कोर्ट से की थी.


सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से जागरूकता बढ़ेगी


फ़िलहाल तो सुप्रीम कोर्ट से उनके पक्ष में उस रूप में फ़ैसला नहीं आया है, लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि इस विषय पर अब बहस और तेज़ होगी. सरकार पर दबाव भी बढ़ेगा. साथ ही आम लोगों के बीच भी इस विषय से जुड़े हर पहलू को जानने और समझने को लेकर उत्सुकता बढ़ेगी. पूरा विषय सिर्फ़ समलैंगिक संबंधों या समलैंगिक विवाह तक ही सीमित नहीं है. यह नागरिक होने के हक़ से जुड़ा मुद्दा है. इसके साथ ही यह इंसान होने के नाते नैसर्गिक हक़ के दायरे में भी आता है.


बतौर नागरिक हर किसी को गरिमापूर्ण जीवन और समानता का अधिकार एक संवैधानिक ह़क है..उससे भी बढ़कर ये अस्तित्व से भी जुड़ा मसला है. जब हमारे देश में समलैंगिक संबंध वैधानिक है, तो फिर समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता उसका अगला पड़ाव ही होना चाहिए. उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट ने 17 अक्टूबर के फ़ैसले में जिन मुद्दों पर फोकस किया है, उससे आगे चलकर एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों को अपने अधिकारों को पाने में मदद मिलेगी. साथ ही रोजमर्रा के जीवन में भेदभाव और हिंसा की आशंका से पैदा होने वाले भय से भी मुक्ति मिलेगी.


फ़िलहाल  दुनिया में 130 से अधिक देशों में समलैंगिकता अपराध के दायरे से बाहर है. उनमें 34 देशों में समलैंगिक विवाह या तो वैध हैं या उन्हें क़ानूनी मान्यता मिल चुकी है. वहीं 35 देशों में 35 देशों में समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता के साथ ही नागरिक संघों का गठन या पंजीकरण जैसी सुविधाएं भी मिली हुई हैं. इनमें जर्मनी, ब्रिटेन, मेक्सिको, अमेरिका, अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, स्लोवेनिया जैसे देश शामिल हैं. अधिकांश अमेरिकन और यूरोपीय देशों में समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता है, लेकिन अफ्रीका और एशियाई देशों में इस दिशा में अभी भी लंबी राह तय होनी है. अगर भविष्य में भारत में सरकार की ओर से इस दिशा में कोई बड़ा फ़ैसला लिया जाता है, तो निश्चित ही इसका असर अफ्रीका और एशिया के तमाम देशों पर भी पड़ेगा.


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