कभी कट्टर दुश्मन रहे इस्लामिक देश सऊदी अरब और ईरान ने हाल में राजनयिक संबंध को दोबारा शुरू करने का ऐलान किया. चीन में बैठक के बाद ऐलान ने दुनियाभर को हैरान किया. भारत की तरफ से इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी गई. हालांकि, अमेरिका, फ्रांस समेत कई देशों ने इसका स्वागत किया है. लेकिन अगर सऊदी अरब-ईरान के बीच हुई डील और चीन की इसमें भूमिका पर अगर गौर करें तो इसमें कई चीजें हैं. 


पहली बात तो ये है कि ये बातचीत काफी समय से चल रही थी. पहले ये बातचीत इराक में चल रही थी. इसके बाद ओमान में भी सिक्योरिटी को लेकर बातचीत हुई. दोनों देशों के बीच में और उसके पीछे कई कारण हैं- सऊदी अरब पहले सोच रहा था कि अमेरिका का ईरान में रिजिम चेंज उसकी पॉलिसी है और उसमें कामयाब हो जाएगा.  फिर उसको लगा कि इजरायल बार-बार धमकी दे रहा था अटैक करने की वो भी नहीं हुआ और न ही रिजीम चेंज हुई.  ये दोनों खाड़ी देशों में एक बड़ी पावर है..तो उनको लगा कि इससे बेहतर है कि एक बातचीत का दौर चले. इसके जरिये मसले का समाधान हो. 



दूसरी चीज ये भी है कि खाड़ी के अंदर जो ईरान की सुरक्षा का मसला है, उसको लेकर जो वहां के लोकल देश हैं, उनका दायित्व बनता है कि वो उसकी सुरक्षा करें न कि सऊदी अरब को ये चाहिए कि वो सब मिलकर करे अमेरिका और पश्चिमी देशों को और खुद हम सब मिलकर करें. अब सऊदी अरब की भी पॉलिसी में भी काफी बदलाव नजर आ रहा है. वो भी एक स्वतंत्र विदेश नीति की राह पर चल रहे हैं. जो उसे अपनी सुरक्षा को लेकर अमेरिका के साथ निर्भरता थी वो भी कम हो रही है. एक बड़ा चेंज सऊदी अरब में भी आ रहा है. दूसरी तरफ अमेरिका का जो प्रभाव है वो अब अरब देशों में कम होता हुआ दिखाई पड़ रहा है. 


ईरान ने सोचा बातचीत जरूरी


आम जनता उससे खुश नहीं थी और प्रो-अरब जो रिजीम थी, उससे उनको खतरा लगने लगा था जैसे कि 2011 में जो हुआ था. अपराइजिंग हो गई थी तो उनको भी डर लगता था कहीं दोबारा से वो स्थिति न हो जाए. वो अब इंडिपेंडेंट विदेश नीति को अपना रहे हैं. दूसरी तरफ ये भी था कि ईरान ने भी सोचा की बातचीत करना जरूरी है मसलों को हल करने के लिए और उनके ऊपर पहले से ही अमेरिका के इतने प्रतिबंध लगे हुए हैं तो बेहतर ये होगा कि कम से कम पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संबंधों को स्थापित किया जाए. ये दोनों के हितों में था कि उनके बीच बेहतर संबंध बनाएं. इसमें चाइना का रोल जरूर था और ये रोल भारत भी निभा सकता था जहां तक मैं समझता हूं. लेकिन चाइना का चुपके से इसमें रोल था और उसने चुपके से दोनों देशों के बीच बातचीत कराई.


लेकिन मुझे नहीं लगता कि चाइना का बहुत ज्यादा वहां प्रभुत्व बढ़ेगा. चूंकि सऊदी अरेबिया अब स्वतंत्र विदेशी नीति को अपना रहा है और आने वाले दिनों में मुझे ऐसा लगता है कि वो अमेरिका और चाइना के बीच जो खाई है या मनमुटाव वो उसका लाभ उठाएंगे. खाड़ी देशों से अमेरिका के हटने से खास करके सऊदी अरेबिया में एक वैक्यूम पैदा हो गया. मैं नहीं समझता की उसको चीन पूरा कर पाएगा. दूसरी बात ये भी है कि चाइना अभी तक एक ग्लोबल पावर नहीं बन पाया है. वो एक इकोनॉमिक पावर है, दुनिया का एक बड़ा ट्रेडर है. लेकिन उसका प्रभाव नहीं है. चीन का जो बेल्ट और रोड इनिशिएटिव है उससे उसकी छवि और खराब हो गई है अरब और अफ्रीकी देशों में...तो मैं समझता हूं कि सऊदी अरब  बहुत समझबूझ कर इन रिश्तों को रखेगा. चाइना का प्रभाव बढ़ रहा है इसमें कोई शक नहीं है. लेकिन ये कहना कि चाइना अमेरिका का रिप्लेसमेंट हो जाएगा तो ऐसा नहीं है. मैं समझता हूं कि चाइना से ज्यादा भरोसा उनका रशिया पर है.


भारत को नहीं हैरानी


मैं नहीं समझता हूं कि भारत इस डील से हैरान है. भारत ने इसे इग्नोर किया है. बहुत ज्यादा बयान नहीं दिया है और न ही कुछ इसके खिलाफ बोला है और अगर टेंशन कम होता है तो ये भारत के लिए अच्छा है. चूंकि भारत अभी देख रहा है कि क्या इसके ऊपर चाइना का प्रभाव पड़ रहा है, क्या चीन एक बड़ी शक्ति के रूप में उभर रहा है, क्या चीन भारत के हस्तक्षेप को कम करने की कोशिश करेगा आगे आने वाले दिनों में तो ऐसा नहीं है. भारत का संबंध सऊदी अरेबिया के साथ हजारों साल पुराना है और इस दिशा में हम लगातार बढ़ते गए हैं. भारत की एक बड़ी अच्छी छवि पूरे अरब देश में है. दूसरी बात ये भी है कि भारत एक बहुत बड़ी अर्थव्यवस्था है और हम बड़े पैमाने पर वहां से तेल का आयात करते हैं. भारत का एक बड़ा व्यापार है इन देशों के साथ और खासकर के सऊदी अरेबिया के साथ भी है. पीएम मोदी का व्यक्तिगत तौर पर वहां के क्राउन प्रिंस और किंग सलमान के साथ अच्छे रिश्ते भी हैं. भारत ने हमेशा अरब देशों का साथ दिया है. इस वजह से भारत की छवि वहां बेहतर है और चूंकि भारत की अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही है तो सऊदी अरेबिया व अन्य खाड़ी देश ये भी देख रहे हैं कि उनको भारत में निवेश करने से बहुत ज्यादा फायदा होगा.


अब दबदबे का दौर खत्म हो रहा है. मल्टी पोलर दुनिया उभर रह रही है. सऊदी अरेबिया जो है वो खुद रीजनल संस्थाओं जैसे ब्रिक्स देशों के समूह में शामिल होने की बात कर रहा है. मैं नहीं समझता हूं कि चाइना का वहां पर दबदबा होगा जैसा कि अमेरिका और यूरोप का था. अब ये है कि सऊदी अरेबिया चीन, भारत और रशिया सभी के साथ डील करेगी और वो अमेरिका को भी पूरी तरह से छोड़ नहीं सकते हैं. चूंकि अमेरिका के इन देशों से बहुत घनिष्ठ संबंध हैं. देखिये, मैं नहीं समझाता ये कि आर्थिक इंटरेस्ट की वजह से सऊदी अरेबिया इस बात को अच्छी तरह से समझता है कि सस्ता तेल भारत को मिल रहा है रूस से और रूस के साथ हमारे पुराने संबंध हैं और पहले भी हम रूस के बहुत तेल लेते थे और इस समय सऊदी अरेबिया अपना तेल और गैस पश्चिमी देशों को सप्लाई कर रहा है और इससे उसे कोई आर्थिक तौर पर हानी नहीं हो रही है और भारता का खाड़ी के देशों के साथ पहले की तरह संबंध बने हुए हैं. ये एक तात्कालिक दौरा है जंग चल रहा है इस वजह से ये सारे बदलाव आ रहे हैं. ग्लोबल आर्थिक मंदी का डर है. जिस तरीके से यूरोप और अमेरिका में बैंक फेल हो रहे हैं इस दौरान भारत ने रूस से सस्ता तेल लेकर अपनी इकोनॉमी को बचाया है. मैं समझता हूं कि ये सारी दुनिया के हित में हैं और अरब देशों के भी हित में है.


मैं नहीं समझता कि अमेरिका का प्रभुत्व कम होगा लेकिन धीरे-धीरे उसका प्रभाव कम होता नजर आ रहा है और ये जो झगड़े हैं वो अमेरिका के बाइडेन प्रशासन से ज्यादा नजर आते हैं. रिपब्लिकन अगर वहां फिर से सत्ता में आते हैं तो इसमें फिर से मजबूती आएगी. दूसरी बात ये भी है कि सऊदी अरेबिया अब दूसरों पर निर्भरता नहीं चाहता है. चूंकि समय बदल गया है. मल्टी पोलर दुनिया बनती जा रही है. सऊदी अरब का प्रभाव बढ़ रहा है. रूस और यूक्रेन के बीच के जंग के बाद से उसके तेल की वैल्यू और बढ़ी है. क्राउन प्रिंस सलमान बार-बार इस बात को कहते हैं कि अब हमें स्वतंत्र विदेश नीति अपनाने की जरूरत है. ये भी बात है कि सऊदी देश और वहां की जनता भी अमेरिका से बहुत खुश नहीं है. देखिये, भारत के संबंध जो हैं इन देशों से वो वैसे ही बने रहेंगे.


चीन के इस डील में होने से कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा. चूंकि भारत का इन देशों में निवेश है और भारत के 75 लाख नागरिक अरब देशों में काम करते हैं और हमारा 70 से 80 प्रतिशत तक तेल वहीं से आता था और बाद में भी आएगा. भारत का 100 बिलियन से अधिक का ट्रेड है इन देशों के साथ, भारत की निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां यहां पर निवेश कर रही हैं...तो ये कहीं से नहीं लगता है कि स्थिति एक दम से पलट जाएगी. दूसरी बात ये भी है कि भारत के पास सस्ता लेबर है अमेरिका और यूरोपीय देशों की तुलना में, उतने ही पढ़े-लिखे हैं, समझदार भी है. टेक्निकल क्लास है तो कुल मिलाकर ये है कि इस डील से भारत के साथ संबंधों पर कोई असर नहीं पड़ेगा.


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. ये आर्टिकल कमर आगा से बातचीत पर आधारित है.]