आजकल भारत के सवर्ण तबके में उबाल है. आरक्षण, धारा 370 और राम मंदिर मुद्दे पर ढुलमुल और अवसरवादी रवैए की वजह से सत्ताधारी भाजपा के खिलाफ सवर्णों में असंतोष तो पहले से ही धीरे-धीरे निर्मित हो रहा था, लेकिन अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 (SC/ST एक्ट) को लेकर केंद्र सरकार ने संसद में जो पलटी मारी और संशोधन के जरिए जिस तरह इस एक्ट में धारा 18 ए जोड़ी, उसने आग में घी का काम कर दिया है. नई धारा कहती है कि इस कानून का उल्लंघन करने वाले के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच की जरूरत नहीं है और न ही जांच अधिकारी को गिरफ्तारी करने से पहले किसी से इजाजत लेने की जरूरत है. संशोधित कानून में ये भी कहा गया है कि अपराध करने वाले आरोपी को अग्रिम जमानत के प्रावधान (सीआरपीसी धारा 438) का लाभ नहीं मिलेगा. इससे सशंकित सवर्णों द्वारा 6 सितंबर को किया गया देशव्यापी बंद पानी सर से ऊपर चले जाने का संकेत माना जा सकता है.


सवर्णों का क्रोध इस बात को लेकर भी है कि जब बीते 20 मार्च को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने SC/ST एक्ट को शिथिल कर दिया था तो केंद्र सरकार को क्या जरूरत आन पड़ी थी कि वह संसद में अपने बहुमत के दम पर फैसला पलट कर एक्ट को पूर्ववत करे. उनका तर्क है कि राम मंदिर के मुद्दे पर केंद्र सरकार कहती है कि मामला सर्वोच्च न्यायालय में है, और उसी का फैसला स्वीकार्य होगा. लेकिन जब बात SC/ST एक्ट की आई तो शाहबानो मामले में कांग्रेस की तरह भाजपा ने भी सर्वोच्च न्यायालय का फैसला पलट दिया. एक्ट शिथिल होने पर SC/ST समुदाय ने जिस बड़े पैमाने पर सफल भारत बंद आयोजित किया था, उस दबाव में भाजपा शायद पहले ही घबरा उठी थी. यह दलित-पिछड़ा वर्ग का हितैषी दिखने की रणनीति ही थी कि पार्टी ने बीते पूरे मॉनसून सत्र को ही सामाजिक न्याय के प्रति समर्पित कर दिया और अपने सभी सांसदों से कहा कि वे SC/ST एक्ट में बदलाव और पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने की उपलब्धि का पूरे देश में प्रचार करें, लेकिन भाजपा को शायद इस बात का अंदाजा नहीं था कि उसकी झोली में पड़े अगड़े वर्ग में इसकी इतनी तीखी प्रतिक्रिया होगी. अगड़ों का बंद चुनाव झेलने जा रहे राज्यों का चक्का जाम करने में काफी हद तक कामयाब रहा.


आम बोलचाल में हरिजन एक्ट कहे जाने वाले SC/ST एक्ट के बारे में यह कहा जा रहा था कि लंबे समय से ऊंची जाति के लोगों के खिलाफ इसका दुरुपयोग किया जा रहा है. इसके उदाहरण स्वरूप महाराष्ट्र के एक सरकारी अधिकारी काशीनाथ महाजन का उदाहरण दिया जाता है, जिन्होंने एससी समुदाय के एक अधीनस्थ कर्मचारी द्वारा लिखाई गई एफआईआर खारिज कराने के लिए बॉम्बे उच्च न्यायालय का रुख किया था, लेकिन न्याय नहीं मिला. महाजन शीर्ष अदालत में चले गए, जहां उन पर दर्ज एफआईआर हटाने का आदेश देते हुए एक्ट के तहत तत्काल गिरफ्तारी पर रोक भी लगाई गई. यही नहीं, सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत को भी मंजूरी दे दी थी. शीर्ष अदालत ने कहा कि सरकारी अधिकारी की गिरफ्तारी अपॉइंटिंग अथॉरिटी की मंजूरी के बिना नहीं की जा सकती और गैर-सरकारी व्यक्तियों के मामले में कोई एसएसपी पहले शिकायत की प्रारंभिक जांच करके पता लगाएगा कि मामला झूठा या दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं है.


इस फैसले के खिलाफ हिंसक विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. एनडीए के भीतर से पासवान, आठवले और उदित राज जैसे सांसद अल्टीमेटम देने लगे. दलितों के भारत बंद में 6 लोगों की जान चली गई. दलित संगठनों का कहना था कि इससे 1989 का अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम कमजोर पड़ जाएगा. इस ऐक्ट के सेक्शन 18 के तहत ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत का प्रावधान नहीं था. ऐसे में यह छूट दी जाती है तो फिर अपराधियों के लिए बच निकलना आसान हो जाएगा. दलित बंद की तर्ज पर सवर्णों ने भी भारत बंद कराया. हालांकि यह उतना कामयाब नहीं रहा था. केंद्र सरकार ने सवर्णों की नाराजगी टालने के लिए पुनर्विचार याचिका भी दाखिल कर दी थी लेकिन मानसून सत्र के दौरान संसद में खुद ही कानून यथावत कर दिया. तर्क यह दिया गया कि जो दोषी नहीं है, उसे इस एक्ट से घबराने की क्या जरूरत है?


SC/ST एक्ट और आरक्षण के पक्ष-विपक्ष में दलीलें देना अलग बात है लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि भाजपा के लिए अगड़ों और पिछड़ों को एक साथ खुश रख पाना तलवार की धार पर चलने जैसा है. उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा का संभावित चुनावी गठबंधन उसकी पहले ही नींद उड़ाए हुए है. संख्या बल बताता है कि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को नाराज करने का जोखिम भाजपा किसी कीमत पर नहीं उठा सकती. SC/ST एक्ट को यथावत करने के विरोध में भाजपा से सवर्णों के साथ-साथ पिछड़े और अल्पसंख्यक भी बिदक गए हैं, जिसका असर सबसे ज्यादा मध्य प्रदेश में देखने को मिला. सतना में तो लोगों ने ऐलान कर रखा है कि 10 सितंबर को सीएम शिवराज को उड़नखटोले से धरती पर ही नहीं उतरने दिया जाएगा. सीएम के सवर्ण विरोधी बयान भी सोशल मीडिया पर वायरल किए जा रहे हैं.


देखा जाए तो SC/ST एक्ट के दुरुपयोग की बातें तथ्यों की कसौटी पर खरा नहीं उतरतीं. अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोगों पर होने वाले अत्याचार और उनके साथ होनेवाले भेदभाव को रोकने के मकसद से यह एक्ट बनाया गया था. जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में इसे लागू किया गया. अपराधों की सुनवाई के लिए विशेष व्यवस्था की गई ताकि SC/ST के लोग अपनी बात निर्भीक होकर रख सके.लेकिन देखने में यही आया कि 1989 से लेकर आज तक अनुसूचित जातियों/जनजातियों के खिलाफ अत्याचारों में खास कमी नहीं आई है और न ही उनकी सामाजिक स्थिति में विशेष बदलाव हुआ है. एनसीआरबी के रिकॉर्ड के मुताबिक 2011 की जनगणना के बाद इस एक्ट से बाहर भी लगभग 2.82 लाख विचाराधीन कैदियों में 55% से ज़्यादा मुस्लिम, दलित और आदिवासी थे और कुल दोषसिद्ध अपराधियों में इनका अनुपात 50.4% था.


सर्वोच्च न्यायालय के व्यवस्था देने के बाद SC/ST वर्ग आशंकित हो गया था और उसने भीषण प्रतिक्रिया दी थी. अब नए एक्ट को लेकर सवर्ण आशंकित हैं और साल में दूसरी बार सड़कों पर उतर गए हैं. प्रमोशन में आरक्षण को लेकर केंद्र और भाजपा सरकारों का रवैया भी उन्हें पच नहीं रहा है. नया डेवलपमेंट यह है कि एससी-एसटी क़ानून पर मचे बवाल के बीच सर्वोच्च न्यायालय केंद्र सरकार द्वारा संशोधित किए गए क़ानून का परीक्षण करेगा और बदलावों की जांच करेगा. वकील पृथ्वी राज चौहान और प्रिया शर्मा की याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार को नोटिस जारी करके 6 हफ़्ते में जवाब मांगा गया है. हालांकि कोर्ट ने कहा है कि बिना सुनवाई किए नए कानून पर रोक लगाना वाजिब नहीं है. लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि राजनीतिक और सामाजिक समीकरण साधने के चक्कर में SC/ST एक्ट को फुटबाल बनाया जा रहा है. इसका क्या भविष्य होगा और दोनों तरफ से कैसी प्रतिक्रिया होगी, वर्तमान में कहना मुश्किल है.


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