राजद्रोह और सेक्शन 124A: लॉ कमीशन की रिपोर्ट से नहीं सुलझता दिख रहा दुरुपयोग का मसला
हमारे यहां लंबे वक्त से इंडियन पीनल कोड में शामिल देशद्रोह यानी राजद्रोह से जुड़े सेक्शन को हटाने की मांग की जा रही है. अब भारत के 22वें विधि आयोग की रिपोर्ट के बाद एक बार फिर से सिडीशन से जुड़े सेक्शन को लेकर बहस तेज हो गई है. आईपीसी के सेक्शन 124A में सिडीशन का जिक्र है. कर्नाटक हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस ऋतु राज अवस्थी की अध्यक्षता वाले लॉ कमीशन ने जो इस मसले पर अंतिम रिपोर्ट दी है, उसके मुताबिक सेक्शन 124A को खत्म नहीं किया जाना चाहिए. आयोग ने कुछ संशोधन के साथ इसे बनाए रखने की जरूरत बताया है.
विधि आयोग सेक्शन 124A बरकरार रखने के पक्ष में
विधि आयोग ने इस सेक्शन को बनाए रखने के पीछे देश की एकता और अखंडता का हवाला दिया है. इसके साथ ही विधि आयोग ने सेक्शन 124A को संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत शामिल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध (Reasonable Restriction) के दायरे में माना है. इसके साथ ही आयोग का कहना है कि UAPA जैसे आतंकवाद विरोधी कानूनों के अस्तित्व से सेक्शन 124A की जरूरत समाप्त नहीं हो जाती है. आयोग का ये भी कहना है कि इस सेक्शन को सिर्फ इस आधार पर खत्म नहीं किया जा सकता है कि ये औपनिवेशिक विरासत से जुड़ा है.
आईपीसी के सेक्शन 124A में सिडीशन यानी राजद्रोह या देशद्रोह को इस तरह से परिभाषित किया गया है कि:
“राजद्रोह -जो कोई भी बोले गए या लिखित शब्दों द्वारा या संकेतों या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा या दूसरे तरीके से भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के लिए घृणा या अवमानना का कारण बनता है या प्रयास करता है, असंतोष पैदा करेगा या करने का प्रयास करेगा, तो उसे आजीवान कारावास से जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा, या जुर्माने से दंडित किया जा सकेगा.”
22वें विधि आयोग ने 81 पन्ने की अपनी रिपोर्ट में आईपीसी के इस सेक्शन के शब्दों में बदलाव की सिफारिश की है.विधि आयोग के मुताबिक आईपीसी की धारा 124A को कुछ इस तरह से संशोधित किया जाना चाहिए:
''राजद्रोह - जो कोई भी बोले गए या लिखित शब्दों द्वारा या संकेतों या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा, या दूसरे तरीके से भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के लिए घृणा या अवमानना का कारण बनता है या प्रयास करता है, असंतोष पैदा करेगा या करने का प्रयास करेगा और उसमें हिंसा भड़काने या लोक व्यवस्था बिगाड़ने की प्रवृत्ति होगी तो उसे आजीवन कारावास से जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या सात वर्ष तक के कारावास से जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा, या जुर्माने से दंडित किया जा सकेगा."
सज़ा में बदलाव चाहता है विधि आयोग
अगर आईपीसी के सेक्शन 124A के परिभाषा पर जाएं, तो विधि आयोग चाहता है कि राजद्रोह के आरोप में मामला बनाने के लिए हिंसा भड़काने या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की प्रवृत्ति को भी शामिल किया जाए. साथ ही विधि आयोग चाहता है कि पहले या तो उम्रकैद होती थी या फिर 3 साल तक की सज़ा होती थी. अब आयोग ने उम्रकैद वाले प्रावधान में तो कोई बदलाव की सिफारिश नहीं की है, लेकिन आयोग चाहता है कि 3 साल तक के सज़ा के प्रावधान को बदलकर 7 साल तक कर दिया जाए.
हिंसा भड़काने की प्रवृति जोड़ने के पक्ष में आयोग
यहां पर गौर करने वाली बात है कि विधि आयोग भले ही चाहता है कि सेक्शन 124A बना रहे, लेकिन आयोग ने जो बड़े बदलाव की सिफारिश की है, उसमें सबसे प्रमुख बात ये हैं कि आयोग इसके सेक्शन 124A के शब्दावली में ही बदलाव चाहता है. सज़ा के प्रावधान से भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये हो जाती है कि विधि आयोग ने नए परिभाषा में 'हिंसा भड़काने या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की प्रवृत्ति के साथ (with a tendency to incite violence or cause public disorder) जोड़ने की बात कही है.
विधि आयोग ने प्रवृत्ति (Tendency) को भी स्पष्ट किया है. आयोग का कहना है कि 'प्रवृत्ति' का अर्थ वास्तविक हिंसा या हिंसा के लिए आसन्न खतरे के सबूत के बजाय, केवल हिंसा भड़काने या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की ओर झुकाव से होगा.
अगर देशद्रोह से जुड़े सेक्शन को बनाए ही रखना है तो विधि आयोग ने सेक्शन 124A में जो बदलाव की सिफारिश किया है, वो इस सेक्शन के दुरुपयोग को रोकने के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण बदलाव साबित हो सकता है. ये बात सही है कि आयोग के इस संशोधन से ये तय हो जाएगा कि देशद्रोह का मामला बनाने के लिए जो भी आरोप बनाए जाएंगे, उसमें ये जरूर देखना होगा कि उसमें हिंसा भड़काने या कानून व्यवस्था बिगाड़ने की मंशा है या नहीं.
सुप्रीम कोर्ट से मामला दर्ज करने पर है रोक
ऐसे तो विधि आयोग के पास ये मामला मार्च 2016 में ही पहुंच गया था. आईपीसी के सेक्शन 124A की संवैधानिकता को एस.जी. वोम्बटकेरे बनाम भारत संघ केस में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी. उस दौरान केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को भरोसा दिया था कि वो इस सेक्शन की समीक्षा कर रहा है और सर्वोच्च अदालत इस पर अपना बहुमूल्य समय बर्बाद न करे.
एस.जी. वोम्बटकेरे बनाम भारत संघ केस में 11 मई 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश पारित किया. तत्कालीन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एन.वी रमना की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ के आदेश में तीन प्रमुख बातें थी. पहला अब देशद्रोह कानून के तहत कोई मामला दर्ज नहीं किया जाएगा. दूसरा, इस कानून के तहत जो पहले से दर्ज मामले हैं, उन पर आगे कोई कार्रवाई नहीं की जाएगा यानी फिलहाल ये सभी मामले ठंडे बस्ते में रहेंगे. तीसरा, ऊपर के दोनों आदेश तब तक लागू रहेंगे, जब तक सुप्रीम कोर्ट कोई और आदेश नहीं देता या सरकार राजद्रोह कानून पर कोई फैसला नहीं लेती.
सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद एक तरह से सेक्शन 124A की स्थिति बिल्कुल निरस्त होने जैसी हो गई. उस वक्त कानून मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाल रहे केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा था कि न्यायालय कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण कर रहा है और किसी को भी अपनी सीमा पार नहीं करनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के मई 2022 के आदेश के बाद केंद्र सरकार के लिए ये लाजिमी हो गया कि वो जल्द से जल्द इस कोई फैसला ले.
जब नवंबर 2022 में 22वें विधि आयोग के चेयरमैन और सदस्यों की नियुक्ति हो जाती है, तो आयोग इस मुद्दे पर तेज गति से विचार करता है और उसके बाद हाल ही में सेक्शन 124A पर अपनी अंतिम रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंप देता है. रिपोर्ट तैयार करने में आयोग आजादी के पहले और उसके बाद देशद्रोह से जुड़े कानून के इस्तेमाल से जुड़े इतिहास की स्टडी करता है. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट और अलग-अलग हाईकोर्ट में इस सेक्शन को लेकर जो भी सुनवाई या आदेश हुआ है, उन पर भी आयोग ने विचार किया.
मॉडल गाइडलाइन्स जारी करने की सिफारिश
इसके बाद आयोग का मानना है कि कुछ संशोधनों के साथ सेक्शन 124A को आईपीसी में बरकरार रखा जाना चाहिए. आयोग ने इन संशोधनों के लिए केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार 1962 के केस में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को सबसे ज्यादा आधार माना है. विधि आयोग का मानना है इस सेक्शन के इस्तेमाल में केदारनाथ मामले जो कुछ कहा गया है, उसका ध्यान रखा जाना चाहिए.
आयोग जब कहता है कि इस सेक्शन के दुरुपयोग पर अंकुश लगाने के लिए केंद्र सरकार की ओर से मॉडल गाइडलाइन्स जारी किया जाना चाहिए, उसे स्पष्ट है कि कहीं न कहीं विधि आयोग इस बात को स्वीकार रहा है कि सेक्शन 124A का दुरुपयोग होता रहा है. हालांकि विधि आयोग ये भी चाहता है कि इस कानून के तह एफआईआर दर्ज होने से पहले आवश्यक प्रक्रियात्मक सुरक्षा होना चाहिए. इसके लिए आयोग ने सुझाव दिया है कि CrPC 1973 की धारा 196(3) के अनुरूप एक प्रावधान को CrPC की धारा 154 के परन्तुक (proviso) के रूप में शामिल किया जा सकता है.
सेक्शन 124A के दुरुपयोग का मसला
इस पूरे विवाद में दरअसल आईपीसी के सेक्शन 124A के दुरुपयोग का मसला जुड़ा हुआ है. अंग्रेजी हुकूमत के दौरान 1860 में IPC लागू किया गया. उस वक्त राजद्रोह से जुड़ा सेक्शन 124A आईपीसी का हिस्सा नहीं था. इसे 10 साल बाद 1870 में आईपीसी में शामिल किया गया. राजद्रोह के इस कानून को जेम्स स्टीफन ने तैयार किया था. उस शख्स ने राजद्रोह कानून लागू करने को पुलिस के विवेक पर छोड़ दिया था. ये परंपरा भारत में अभी तक चली आ रही है.
आजादी के पहले भारत के स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ इस सेक्शन का अंग्रेजी हुकूमत धड़ल्ले से इस्तेमाल करती थी. आजादी के बाद से ये आरोप लगते रहे हैं कि सेक्शन 124A का दुरुपयोग सरकारी तंत्र की ओर से राजनीतिक मकसद के लिए किया जाता रहा है. इसके अलावा पुलिस पर भी इसके दुरुपयोग का आरोप लगते रहा है.
राजनीतिक तौर से होता रहा है दुरुपयोग
सेक्शन 124A के दुरुपयोग को लेकर जो भी आरोप लगते रहे हैं, उनसे दो वर्ग जुड़े हुए हैं. पहला राजनीतिक वर्ग है और दूसरा पुलिस. उसमें भी जब राजनीतिक वर्ग इसका दुरुपयोग करता है तो पुलिस की मिलीभगत की संभावना बढ़ जाती है.
छत्तीसगढ़ के निलंबित पुलिस अधिकारी गुरजिंदर पाल सिंह का ही मामला देख लें. आय से अधिक संपत्ति के मामले के साथ ही उन पर राजद्रोह का भी केस दर्ज किया गया था. जमानत की मांग को लेकर जब जीपी सिंह सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे तो मार्च 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि जब तक पुलिस अधिकारी सत्ताधारी पार्टी का समर्थन करते रहता है, तब तक तो सब-कुछ ठीक रहता है और जैसे ही दूसरी पार्टी की सत्ता आती है तो नई पार्टी द्वारा पुलिस अधिकारियों के खिलाफ राजद्रोह के आरोप भी लगाए जाते हैं.
पिछले साल अप्रैल में हमने देखा था कि महाराष्ट्र में हनुमान चालीसा पढ़ने से जुड़े मामले में पुलिस ने सांसद नवनीत राणा और उनके पति पर बाकी मामलों के साथ राजद्रोह का मामला दर्ज कर दिया था. ये तो वैसे उदाहरण हैं, जिनमें आरोपी कोई छोटा-मोटा हस्ती नहीं है, बल्कि उसकी एक पहचान है.
देश में बहुत सारे ऐसे राजद्रोह के मामले दर्ज हैं, जिनमें आरोपी कोई बड़ा नाम नहीं है. उनमें से कई मामले तो ऐसे हैं, जो सरकार के विचारों से मेल नहीं खाने पर दर्ज होते रहे हैं. सरकार से सहमति नहीं, सरकारी योजनाओं का विरोध, सरकार के खिलाफ कार्टून बना देना...ये सब कुछ ऐसे आधार रहे हैं, जिनको लेकर भी राजद्रोह का केस दर्ज होने के मामले सामने आते रहे हैं.
केदारनाथ सिंह केस 1962 काफी अहम
केदारनाथ सिंह केस 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने भले ही राजद्रोह कानून को बरकरार रखा था, लेकिन ये कहा था कि यह संविधान से हासिल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के खिलाफ है और सिर्फ़ नारेबाजी को राजद्रोह के बराबर नहीं माना जा सकता है. इस केस में आदेश के जरिए 60 साल पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने कोशिश कि थी कि सेक्शन 124A के दुरुपयोग की कम से कम गुंजाइश हो. उस आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि जब तक हिंसा के लिए उकसाने या हिंसा का आह्वान न किया जाए, तब तक सरकार की आलोचना को देशद्रोह नहीं कहा जा सकता. उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि देशद्रोह का केस दर्ज करने में आम तौर पर पुलिस की कार्रवाई कानून के मुताबिक न होकर पक्षपातपूर्ण होती है.
सेक्शन 124A में जिस तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया गया है, वो ऐसे हैं कि उनके आधार पर पुलिस किसी भी मामले में इस सेक्शन का इस्तेमाल कर सकती है. जिन शब्दों का जिक्र किया गया है, उनमें ही इसके दुरुपयोग की भरपूर गुंजाइश छोड़ दी गई है. ये आजादी के पहले तो एक प्रकार से स्वतंत्रता संग्राम के दमन के लिए अंग्रेजों के पास एक बड़ा हथियार था. उस वक्त के लिहाज से देखें तो इस कानून की प्रासंगिकता अंग्रेजों के लिए थी.
अब आजादी के बाद इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है. जिस मकसद से सेक्शन 124A को अंग्रेजों ने लाया था, अब उसका भारत के लिए आजादी के बाद कोई मायने नहीं रह जाता है. समय बीतने के साथ ही दुनिया के ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों में राजद्रोह कानून समाप्त कर दिया गया है. खुद यूनाइटेड किंगडम ने अपने यहां से इसे 2009 में खत्म कर दिया है.
कोर्ट में साबित नहीं हो पाते मामले
नेशनल क्राइम ब्यूरो रिकॉर्ड के आंकड़ों पर ध्यान दें तो ये पता चलता है कि राजद्रोह से जुड़े ज्यादातर मामले कोर्ट में साबित नहीं हो पाते हैं. 2019 में सबसे ज्यादा 93, 2020 में 73 और 2021 में 76 सिडीशन केस दर्ज किए गए. 2016 से 2020 के 5 साल की अवधि में राजद्रोह के 322 केस दर्ज हुए थे. इनमें से 144 में चार्जशीट दाखिल की गई. जबकि 23 मामले को गलत माना गया और 58 मामलों को सबूत के अभाव में बंद कर दिया गया. इनके तहत 422 लोगों की गिरफ्तारियां हुई थी लेकिन इनमें से महज 12 लोगों को देशद्रोह को लेकर दोषी ठहराया जा सका था.
2016 से बढ़े हैं इस सेक्शन के तहत मामले
राजद्रोह से जुड़े मामले में दोषी ठहराए जाने यानी कन्विक्शन रेट बहुत कम है. एनसीआरबी के मुताबिक आईपीसी के सेक्शन 124A के तहत 2016 और 2019 के बीच दर्ज मामलों की संख्या में 160% की वृद्धि हुई. इसके विपरीत जहां 2016 में ऐसे मामलों में कन्विक्शन रेट 33.3% , जो 2019 में घटकर 3.3% हो गई. 2019 में देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किए गए 96 संदिग्धों में से सिर्फ़ दो लोगों को दोषी ठहराया गया है. ये आंकड़े सेक्शन 124A के तहद दर्ज मामलों में गिरफ्तारी और चार्जशीट में खामियां बताने के लिए काफी है.
हालांकि भले ही कोर्ट से दोषी बहुत कम लोग ठहराए जाते हैं, लेकिन केस दर्ज होने, गिरफ्तारी और कोर्ट में सुनवाई के बीच आरोपी और गिरफ्तार लोगों को जो प्रताड़ना झेलनी पड़ती है, बरी होने के पहले कई साल तक जेल रहना पड़ा है, ये कुछ ऐसे पहलू हैं, जिनकी वजह से राजद्रोह का मामला न सिर्फ पुलिस की मनमानी तक सीमित रहता है, बल्कि इसका सरोकार मानवाधिकारों के घोर उल्लंघन से भी है. कई मामलों में जिस तरह से इसका दुरुपयोग हुआ है, उससे ये सेक्शन कुछ महीनों या दिनों के लिए पुलिस के लिए प्रताड़ना का बड़ा उपकरण बन जाता है. सेक्शन 124A राजद्रोह का अपराध गैर जमानती है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की पूर्व सदस्य ज्योतिका कालरा भी पहले कह चुकी हैं कि राजद्रोह कानून का सरकार और पुलिस की ओर से समान रूप से उपयोग किया गया है.
केदारनाथ सिंह मामलों के साथ ही कई अन्य मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि तर्कसंगत सीमा के साथ अभिव्यक्ति के अधिकार की पवित्रता को बनाए रखे जाने की जरूरत है. इन केस के जरिए सुप्रीम कोर्ट राजद्रोह के मामलों में कार्रवाई के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश निर्धारित भी किए हैं, उसके बावजूद सेक्शन 124A धड़ल्ले से इस्तेमाल जारी रहा है.
भारत के विधि आयोग ने 1968 और 1971 में सेक्शन 124A को लेकर रिपोर्ट दिया था. हालांकि इन दोनों बार में भी इसे समाप्त किए जाने का विधि आयोग की ओर से सिफारिश नहीं की गई थी. वहीं जब विधि आयोग ने हेट स्पीच पर 2017 में रिपोर्ट दिया, तो उसमें आयोग ने राजद्रोह और हेट स्पीट को अलग-अलग रखने की सिफारिश किया था.
किसी सरकार ने नहीं दिखाई है गंभीरता
अभी मौजूदा विधि आयोग ने सेक्शन 124A को बरकरार रखने के पक्ष में सिफारिश दिया है, तो कांग्रेस और विपक्ष के कई नेता भले ही इसे गणतंत्र की नींव बता रहे हो. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पूर्व वित्त और गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा है कि यह कानून शासकों को इसके दुरुपयोग का निमंत्रण देता है. वहीं कभी कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे और यूपीए सरकार में कानून मंत्री की जिम्मेदारी निभा चुके कपिल सिब्बल ने कहा है कि मैं इन सिफारिशों से परेशान हूं और ये सिफारिशें गणतंत्र के लोकाचार के विपरीत हैं. गणतंत्र के सार के विपरीत हैं और गणतंत्र की नींव के विपरीत हैं.
हालांकि सेक्शन 124A के दुरुपयोग का मामला कोई नया नहीं है या फिर एक पार्टी से जुड़ा हुआ नहीं है, जिस पार्टी की भी सरकार होती है, उस पर इसके दुरुपयोग के आरोप लगते रहे हैं. अब भले ही कांग्रेस के तमाम नेता इस सेक्शन को खत्म करने के पक्ष में बयानबाजी करते दिख रहे हैं, लेकिन ये एक कड़वा सच है कि लंबे वक्त तक केंद्र की सत्ता पर काबिज रहने के बावजूद कांग्रेस की ओर से 124A को खत्म करने या दुरुपयोग को रोकने को लेकर कभी कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया है. ऐसा नहीं है कि 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले इस सेक्शन के दुरुपयोग के आरोप नहीं लगते थे. फिर भी पूर्ववर्ती सरकारों की ओर से इस सेक्शन को खत्म करने के लिए कोई ललक नहीं दिखी. हालांकि ये बात सही है कि 2015 के बाद एस सेक्शन के तहत दर्ज मामलों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है.
अब भारत एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया वाला गणराज्य है, जहां राजद्रोह जैसे कानून की प्रासंगिकता नहीं रह जाती है. जहां तक बात रही देश की अखंडता और संप्रभुता की, तो unlawful activities prevention act में वो तमाम प्रावधान मौजूद हैं, जिनसे देश की सुरक्षा और संप्रभुता से खिलवाड़ करने वाले किसी भी गतिविधि और उसमें शामिल लोगों से निपटा जा सके. हमारे सामने उदाहरण है कि TADA का कितना ज्यादा दुरुपयोग हो रहा था, जिसके बाद इस कानून को खत्म किया गया. सेक्शन 124A को आधार बनाकर असहमति जताने के व्यक्तिगत अधिकार को नहीं छीना जा सकता है और सेक्शन 124A की समीक्षा पूरी तरह से इससे जुड़ा है.
पिछले साल मई में सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह से जुड़े इस सेक्शन को एक तरह से फ्रीज़ की स्थिति में डाल दिया और अब विधि आयोग की ओर से इसे बरकरार रखने की सिफारिश की गई है, तो अब सबकी निगाहें एक बार फिर से केंद्र सरकार पर टिक गई है. कानून मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाल रहे केंद्रीय मंत्री अर्जुन मेघवाल ने कहा है कि सरकार सभी पक्षकारों से रायशुमारी कर तर्कपूर्ण निर्णय लेगी. उन्होंने ये भी कहा है कि विधि आयोग की सिफारिश सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की चिंता को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस बार सेक्शन 124A को लेकर भारत सरकार की ओर से ऐसा निर्णय आ सकता है, जिससे इसके दुरुपयोग की संभावना बेहद ही कम हो जाए.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)