व्हॉट्सएप पर दुबई से जब एक शौहर ने अपनी बीवी को तलाक दिया था तब उसने सवाल किया था, अगर हम सेब खाते हैं तो क्या हम दूसरे फल पसंद नहीं कर सकते ? बेशक इस सवाल ने कई दूसरे सवालों के लिए दरवाजे खोल दिए थे. औरतों को आप फल या किसी सामान से ज्यादा समझते ही क्या हैं ? बात किसी एक धर्म या समुदाय की नहीं है. सच्चाई तो यह है कि हमारे यहां हर समुदाय, धर्म में ऐसे मर्दवादी रिवाज हैं कि आप बलिहारी जाएंगे. धर्म के पहरुए इन्हें पर्सनल लॉ कहते हैं. हम इसे पैट्रिएकल यानी पितृसत्तात्मक रिवाज कहते हैं.


आप ट्रिपल तलाक पर सिरफुटौव्वल करते रहें, पर पतियों से तलाक लेने के लिए ही नहीं, बच्चों की कस्टडी के लिए, माता-पिता के साथ के लिए, कारोबार या जमीन-जायदाद पर अपने हक के लिए. औरतों को अपने अधिकार के लिए हर धर्म और समाज में संघर्ष करना पड़ता है. यहां तक कि सेक्यूलर कानूनों में भी उन्हें उनके हक से महरूम करने के कई प्रोविजन्स हैं. और मजे की बात तो यह है कि औरतें खुद इनसे वाकिफ नहीं हैं.


ईसाई औरतों की ही मिसाल लीजिए. वे अब भी डेढ़ सौ साल पुराने कानून इंडियन क्रिस्चियन मैरिज एक्ट से बंधी हुई हैं. इससे उनके लिए तलाक लेना मुश्किल होता है. पति से तलाक लेने से पहले उन्हें दो साल के सेपरेशन की जरूरत होती है. इस संबंध में दिल्ली के अल्बर्ट एंथोनी इस एक्ट के सेक्शन 10 के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं. परस्पर सहमति से तलाक होने की स्थिति में अगर हिंदू मैरिज एक्ट के तहत हिंदुओं और पारसी मैरिज एंड डिवोर्स एक्ट के तहत पारसियों को एक साल अलग-अलग रहने के बाद डाइवोर्स सूट फाइल करने की इजाजत है तो ईसाइयों के लिए यह मियाद दो साल है. इसके अलावा यह कानून कहता है कि याचिका दायर करने के समय पति-पत्नी दोनों को भारत का निवासी होना चाहिए. याचिका सिर्फ वहीं दायर की जा सकती है, जहां शादी की गई थी या जहां कपल साथ-साथ रहता है या रहता था. एक बात और है, देश के ईसाई समुदाय के लोग इंडियन सक्सेशन एक्ट, 1925 के अंतर्गत नहीं आते. इससे ईसाई औरतों को उत्तराधिकार या जमीन-जायदाद से जुड़े अधिकार नहीं मिल पाते. वे सिर्फ अपने परिवार के पुरुषों के रहमो-करम पर रहती हैं.


जमीन-जायदाद के मामले में हिंदू बेटियां भी पिता की विल पर, यानी इच्छा और वसीयत, दोनों के भरोसे हैं. लगभग 12 साल पहले यानी 2005 में हिंदू सक्सेशन एक्ट में संशोधन किया गया था और पिता की संपत्ति पर बेटी का हक चस्पा किया गया था, लेकिन इसमें भी एक पेंच था. पहली बात तो यह है कि यह संशोधन पूर्व प्रभाव से लागू नहीं है. मतलब 2005 के बाद ही औरत पिता की संपत्ति पर अपना दावा कर सकती है. इससे पहले हुए बंटवारे में उसका हिस्सा नहीं माना गया था. कोई इच्छा से दे तो दे दे. फिर अगर पिता अपनी वसीयत करता है और बेटी को उसमें हिस्सा नहीं देना चाहता तो बेटियों को पिता की कमाई हुई संपत्ति में कोई हक नहीं मिल सकता. पिता चाहे तो अपनी कमाई हुई पूरी की पूरी संपत्ति को बेटे को दे दे. क्या ऐसे कानूनी प्रावधान के साथ, ज्यादातर लड़के अपनी बहन को संपत्ति में हिस्सा देना चाहेंगे?


दिल्ली की सुजाता शर्मा के साथ भी ऐसा ही हुआ था. पिता की मृत्यु के बाद पिता के कारोबार को संभालने का हक उसे नहीं मिल रहा था. उसका छोटा भाई कारोबार संभालना चाहता था. भाई का कहना था कि हिंदू सक्सेशन एक्ट के तहत आने वाला हिंदू अविभाजित परिवार के कारोबार में कर्ता बनने का हक सिर्फ लड़कों को है. सुजाता ने कानूनी लड़ाई लड़ी और कोर्ट ने कहा कि पुश्तैनी संपत्ति में कारोबार भी आता है और इस लिहाज से 2005 में हुआ संशोधन लड़कियों को भी कर्ता बनने का हक देता है. कर्ता यानी बिजनेस को चलाने वाला, खर्च करने का फैसला अकेले लेने वाला व्यक्ति और वह अकेले यह फैसला ‘ले सकता है’ (अब ‘ले सकती है’).


प्रॉपर्टी और बिजनेस में हिस्सा देना तो दूर की बात है. ऐसे बहुत से मर्द हैं जो अपनी बहनों को अपनी मर्जी से पार्टनर चुनने की इजाजत भी नहीं देते. यह आंकड़ों के बोझ के बिना भी समझा जा सकता है कि ऑनर किलिंग के नाम पर खाप पंचायतें कितनी ही लड़कियों के खिलाफ फरमान जारी कर देती हैं. यह अलग-अलग समुदायों के पर्सनल विधान ही तो हैं जो सगोत्र विवाह की इजाजत नहीं देते. लड़कियां वहां भी पर्सनल विधान के चलते अक्सर अपने सपनों, और कई बार अपने जीवन को अलविदा कहने को मजबूर होती हैं.


पारसियों का पर्सनल लॉ कहता है कि लड़कियां अगर अपनी मर्जी से किसी और धर्म के लड़के से शादी करेंगी तो वे पारसी धर्म से आउट हो जाएंगी. न तो वे अपने मंदिर में पूजा कर सकती हैं और न ही अपने माता-पिता या दूसरे रिश्तेदारों की मौत के बाद के रिचुअल्स का हिस्सा बन सकती हैं. इस सिलसिले में पारसी बहनें गुलरुख एम. गुप्ता और शिराज कांट्रैक्टर पाटोदिया मुकदमा लड़ रही हैं. उन्होंने हिंदू लड़कों से शादियां कीं और पारसी समुदाय से निकाल दी गईं. यह सजा पारसी लड़कों को नहीं मिलती, वे चाहे किसी भी धर्म की लड़की से शादी करें, पारसी ही बने रहते हैं. मुसलिम पर्सनल लॉ पर तो बवाल कटा ही हुआ है. तीन बार तलाक बोलकर बीवी से पल्ला छुड़ाना यहां बहुत आसान है.


तमाम धर्मों के अलावा सेक्यूलर कानून कहलाने वाला स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954 भी किसी से कम नहीं है. आपको इसमें भी तमाम झोल मिल सकते हैं. स्पेशल मैरिज एक्ट कहता है कि अगर अविभाजित संयुक्त परिवार का कोई हिंदू व्यक्ति इस कानून के तहत शादी करता है तो वह अपने परिवार से अलग हो जाता है. इसलिए एक तरह से वह पुश्तैनी संपत्ति से भी महरूम हो जाता है. इस लिहाज से हिंदू परिवारों को अपनी बेटियों को संपत्ति से अलग करने का अच्छा रास्ता मिल जाता है.


वैसे सिर्फ पर्सनल लॉ ही नहीं, कई राज्यों के कानूनों में भी औरत विरोधी हैं. गुजरात में मर्द चाहे तो एक औरत से शादी करे और दूसरी से ‘मैत्री करार’. मेजिस्ट्रेट के सामने ‘शाश्वत प्रेम’ का वादा करके वह जेल जाने से बच सकता है. गोवा का कानून कहता है कि हिंदू मर्द दूसरी शादी कर सकते हैं, अगर उनकी बीवी 25 साल की उम्र तक बच्चा पैदा करने में कामयाब न हों या 30 साल की उम्र तक लड़का पैदा न करें (आप गूगल करें कि लड़का या लड़की पैदा होने के लिए असल ‘गुनहगार’ कौन होता है). ईसाई वहां सिविल रजिस्ट्रार से नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट लेकर चर्च में शादी कर सकते हैं और चर्च में शादी करने वाले कपल्स पर सिविल लॉ के तहत आने वाले डाइवोर्स के प्रोविजन्स लागू नहीं होते तो मुआवजा, बच्चे की कस्टडी सब गया तेल लेने.


ऐसे ही पर्सनल कानूनों के फेर में औरतों को उनके हक से बेदखल किया जाता रहा है. शादी-ब्याह की रस्मों से भी बड़ी बेदखली प्रॉपर्टी के राइट्स को लेकर है. जमीन में हक न मिलने से देश की कितनी ही किसान औरतें सिर्फ खेत मजदूर बनकर रह जाती हैं, क्योंकि पति की मौत के बाद भी उनके नाम जमीन नहीं होती. सरकारी आंकड़े कहते हैं कि किसानी में देश की एक तिहाई औरतें जुटी हुई हैं, लेकिन सिर्फ 13 परसेंट जमीन उनके नाम पर है. बरसों से हल को पुरुषत्व का प्रतीक मानने से औरतों को न हल चलाने और न जमीन के स्वामित्व का अधिकार दिया गया है. लेकिन अब जड़ता टूट रही है. अचकचा के ही सही, जागे तो हैं ही. दिसंबर 2015 में जस्टिस टीएस ठाकुर ने एक पीआईएल को ठुकराया था जो कहती थी कि कोर्ट को संसद या सरकार को यूनिफॉर्म सिविल कोड बनाने का निर्देश देना चाहिए. तब जस्टिस ठाकुर ने कहा था, आप इंतजार कीजिए कि औरतें ही पर्सनल कानूनों को चुनौती दें. ऐसा हुआ भी. शायरा बानो ने वह पहली मुसलिम औरत है जिसने 2016 में ट्रिपल तलाक को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. पर शायरा जैसी औरतों को अपने वक्त की रूदाली मान कर अपना काम भी उन्हीं के जिम्मे नहीं लगाया जा सकता. हर स्तर पर अपनी बात कहने- बिना घबराए कहने की कोशिश होनी चाहिए. धर्मनिरपेक्ष के तौर पर बदनाम होने में कोई बुराई नहीं है.


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