मोदी सरकार के मौजूदा शासनकाल में देश को लोकपाल मिल पाएगा. सुप्रीम कोर्ट की ताजा फटकार के बाद ऐसा लगता है कि आखिरकार देश को पचास साल बाद लोकपाल मिल सकेगा.  दरअसल लोकपाल की नियुक्ति एक तकनीकी पेंच के कारण फंसी हुई है. अगर मोदी सरकार चाहती तो इस पेंच को बहुत पहले ही सुलझा सकती थी लेकिन ऐसा लगता है कि न तो सरकार लोकपाल चाहती है और न ही विपक्ष. ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि विपक्ष अगर लोकपाल का इतना ही इच्छुक होता तो अब तक वह उस पेंच को सुलझाने और सरकार पर लोकपाल नियुक्त करने का दबाव डालने में कामयाब हो चुका होता.


तकनीकी पेंच है क्या


अब यह जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर यह तकनीकी पेंच है क्या. दरअसल लोकपाल कानून में लोकपाल की चयन समिति को लेकर साफ गाइडलाइन दी हुई हैं . इस चयन समिति में प्रधानमंत्री , लोकसभा अध्यक्ष , सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश , लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के अलावा इन सबकी सलाह से चुना गया कोई गणमान्य नागरिक होते हैं . बाकी चार तो हैं लेकिन नेता प्रतिपक्ष नहीं है . ऐसा इसलिए है क्योंकि लोकसभा चुनावों में कांग्रेस 44 पर ही अटक गयी थी. जबकि लोकसभा में विपक्ष का नेता बनने के लिए 54 सीटें ( लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या का दस फीसद ) होना जरूरी है. हालाकि मोदी सरकार चाहती तो नरमी दिखाते हुए कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष वाला दर्जा दे सकती थी लेकिन उसने नियमों का हवाला देते हुए कांग्रेस के लोकसभा में नेता को विपक्ष के नेता का दर्जा नहीं दिया. वैसे यह बात गौरतलब है कि नरेन्द्र मोदी ने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए 12 सालों तक लोकायुक्त नियुक्त नहीं किया था . केन्द्र में भी उन्हे लोकपाल को लटकाने का शायद तकनीकी बहाना मिल गया .


चयन समिति में संशोधन


 चयन समिति में संशोधन किया गया . विपक्ष के नेता को सबसे बड़ी विपक्षी दल के नेता से बदला गया. इस संविधान संशोधन बिल को राज्यसभा में रखा गया.राज्यसभा के सदस्यों ने कुछ अन्य संशोधनों की मांग की. मामले की संजीदगी को देखते हुए सारे संशोधन प्रवर समिति ( सेलेक्ट कमेटी ) को सौंप दिए गये. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट राज्यसभा को सौंप दी है लेकिन सरकार इसे सदन में पेश करने का समय ही नही निकाल पाई है. वैसे हैरानी की बात है कि सीवीसी (मुख्य सतर्कता अधिकारी), सीआईसी (मुख्य सूचना अधिकारी) और यहां तक की सीबीआई चीफ की नियुक्ति के लिए भी ऐसी शर्त जरुरी होती थी. यानि नेता प्रतिपक्ष की. लेकिन तीनों ही जगह संशोधन हो चुके हैं और नेता प्रतिपक्ष की जगह सबसे बड़े विपक्षी दल लिखा जा चुका है. सवाल उठता है कि जब सीबीआई , सीवीसी और सीआईसी के लिए संशोधन हो सकते हैं तो लोकपाल के लिए क्यों नहीं .


सुप्रीम कोर्ट में मामला


 सुप्रीम कोर्ट में इस मामले को ले जाने वाले प्रशांत भूषण बार बार यही तर्क दे रहे हैं. उधर एटार्नी जनरल यही दलीलें दे रहे हैं कि संशोधन का मामला संसद में अटका है और सुप्रीम कोर्ट इसमें कोई दखल नहीं दे सकता कि संसद कितनी जल्दी संशोधन पास करती है . सवाल उठता है कि बीच का रास्ता क्यों नहीं निकाला गया . अब सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार को आड़े हाथों लेते हुए  लोकपाल एक्ट की अन्य धारा का सहारा लिया है जो कहती है कि अगर चयन समिति में कोई एक उपस्थित नहीं है तो उसकी अनुपस्थिति लोकपाल के गठन की प्रक्रिया में आड़े नहीं आएगी . कोर्ट का कहना है कि जब तक संसद में संशोधन पारित नहीं होते तब तक इस धारा का इस्तेमाल करते हुए लोकपाल के गठन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाना चाहिए. संशोधन पारित होने के बाद बाकी की औपचारिकताएं पूरी हो जाएंगी .


सवालों के घेरे में पक्ष-विपक्ष


सवाल उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करते हुए मोदी सरकार लोकपाल के गठन की तरफ आगे बढ़ेगी... सवाल उठता है कि छोटी छोटी बातों पर सदन में हंगामा करने और कार्रवाई ठप्प करने वाला विपक्ष इस मुद्दे पर भी सदन में हंगामा करेगा और सरकार पर दबाव डालेगा. सवाल उठता है कि हर बात पर सरकार की आलोचना करने वाले जनलोकपाल के सबसे बड़े हिमायती अरविंद केजरीवाल क्या इस मुद्दे पर इंडिया गेट के बाहर धरने पर बैठेंगे. सवाल उठता है कि जनलोकपाल के मुद्दे पर अन्ना हजारे के आंदोलन के समय इंडिया गे से लेकर रामलीला मैदान पर पहुंचने वाली हजारों की भीड़ क्या सोशल मीडिया पर अपने गुस्से का प्रदर्शन करते हुए मोदी सरकार के साथ साथ समूचे विपक्ष को अपने निशाने पर लेगी.



(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)