एक बार फिर मूंग दाल की नई फसल बाजार में है. इसके बाद उड़द और फिर तूर यानी अरहर बाजार में आने वाली है. एक बार फिर किसान को उसकी उपज के उचित दाम नहीं मिल रहे हैं. एक बार फिर सरकारी खरीद में देरी हुई है. एक बार फिर उत्पादन कम हुआ है. एक बार फिर दालों के दाम में तेजी आने के आसार हैं. कुल मिलाकर दाल में जरुर कुछ काला है. सवाल उठता है कि जब उत्पादन कम हुआ है तो फिर क्यों दाल के निर्यात को मंजूरी दी गयी जिसपर पिछले दस सालों से रोक लगा रखी थी. सवाल उठता है कि चने को वायदा कारोबार में अचानक ही क्यों शामिल कर लिया गया जब वह न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा भाव किसानों को दे रहा था. सवाल उठता है कि भारत सरकार अगर मोजाम्बिक और तंजानिया के किसानों से निश्चित मात्रा में और तय दर पर अनाज खरीदने का समझौता कर सकती है तो ऐसा ही समझौता भारत के दाल उगाने वाले किसानों के साथ क्यों नहीं कर सकती. सवाल दर्जनों है लेकिन जवाब नदारद हैं या फिर असंतोषजनक.


इन सवालों के जवाब तलाशते हुए हम पहुंचे राजस्थान के जयपुर जिले की फागी तहसील के गांव केरिया. वहां मूंग उगाई जाती है. एक बीघा में सौ किलो से लेकर दो सौ किलो और किसी साल तो तीन सौ किलो तक मूंग हो जाती है. गांव के किसान मूलाराम के घर मूंग का ढेर लगा था. उस ढेर पर बच्चों का खिलौना हवाई जहाज औंधा पड़ा था. मैंने उस हवाई जहाज को सीधा किया तो मूलाराम मुस्कराने लगा. कहने लगा कि इसे सीधा करने से हमारी उम्मीदें संभावनाओं के आसमान पर नहीं पहुंच जाएंगी. मूलाराम का दर्द जायज है. मूलाराम ने 25 पक्का बीघा में मूंग बोई थी. उन्हें पूरी उम्मीद थी कि कि 70 से 80 बोरी मूंग की पैदावार होगी लेकिन सात से आठ बोरी से ज्यादा मूंग पैदा नहीं हुई. जब बारिश की जरुरत थी तो पानी बरसा नहीं और जब मूंग पूरी तरह से पक गयी थी तो इतना पानी बरसा कि एक फुट के फलियों से लदे मूंग के पौधे पानी में पूरे डूब गये और फलियां काली पड़ गईं. दाना काला होकर सड़ गया. यही हाल जयनारायण गुर्जर का भी है जिन्होंने मूंग का खेत पशुओं की चराई के लिए छोड़ दिया है. गांव में हर तरफ मूंग के सूखे और कुम्हलाए हुए पौधे, सूखी फलियां, दाल के खेतों को चरते हुए पशु, काली पड़ चुकी फलियों से अंधकार में किसानों का भविष्य और काले भूरे दानों के ढेर ग्राहकों का इंतजार करते हुए दिख जाते हैं. फागी से लेकर किशनगढ़ और मेड़ता सिटी तक यही नजारा दिखता है जहां मूंग सबसे ज्यादा उगाई जाती है. अगर बारिश कहर न बरपाती तो जयनारायण के एक सिंचित बीघा खेत में सौ किलो से लेकर दो सौ किलो तक मूंग पैदा होती. प्रति बीघा चार हजार रुपये की लागत के साथ. अगर मूंग सरकारी दर पर यानि 5575 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बिकती तो जयनारायण को प्रति बीघा 1575 रुपये का फायदा होता लेकिन यहां तो तस्वीर ही उल्टी है.

केरिया गांव में ही सीताराम के खेत पर मूंग की बची खुची फसल को सहेजने में लगी हैं हंसा और अन्य महिलाएं. सभी का कहना है कि कहां तो प्रति बीघा कम से कम सौ किलो मूंग पैदा होने की उम्मीद थी और कहां बीस किलो मूंग तक नसीब नहीं. सीताराम को 65 बीघा में 180 बोरी मूंग की उम्मीद थी लेकिन सिर्फ 15-20 बोरी ही हुई है. घर पर मूंग रखी हुई है भाव बढ़ने के इंतजार में. अभी मंडी में ढाई हजार से लेकर चार हजार तक के भाव ही मिल रहे हैं. सीताराम की तरह अन्य घरों में भी मूंग के ढेर मिल जाते हैं. सभी को भाव बढ़ने की उम्मीद है. लेकिन इस बार एक तरफ मूंग कम बोई गई है और दूसरी तरफ बारिश की बेवफाई के चलते उपज खराब हुई है. राजस्थान में खरीफ की एक मुख्य दलहनी फसल मूंग है. हम पहुंचे किशनगढ़ की मंडी में. इस बार भारत सरकार ने मूंग का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5575 रुपये प्रति क्विंटल रखा है लेकिन छोटे किसानों को कम भाव पर मूंग बेचने को मजबूर होना पड़ रहा है. मंडी पहुंचे तो जगह जगह मूंग के छोटे बड़े ढेर देखने को मिले. आसपास कुछ व्यापारी खड़े हैं. एक आदमी मूंग के कुछ दाने हथेली में लेकर देखता है. व्यापारियों को दिखाता है और फिर शुरु होती है बोली. बोली तीन हजार से शुरु होती है और 3800 पहुंचते पहुंचते हांफने लगती है. नजदीक के गांव से आठ बोरी यानि आठ सौ किलो मूंग लेकर आए गोपाल की मूंग 3800 रुपये प्रति क्विंटल के भाव पर बिकती है. कहने लगे कि मजबूरी है बेचना. घर में चूल्हा जलाने के लिए पैसे चाहिए. खेत खाली पड़ा है, बारिश हो गयी तो चना बो दिया जायेगा, उसके लिए भी पैसे चाहिए. सरकारी खरीद अभी शुरु हुई नहीं है और हुई भी तो उनकी खराब हुई मूंग सरकारी बाबू खरीदेंगे नहीं.

यहीं मिले रघुवीर चौधरी, 10 बोरी मूंग के साथ. कहने लगे कि एक तरफ तो भाव नहीं मिल रहा है तो दूसरी तरफ सरकारी संस्था नेफेड ने अपना पिछले साल खरीदा हुआ मूंग बेचना शुरु कर दिया है. नेफेड ने फिछली खरीफ में 5100 रुपये प्रति क्विंटल के भाव से मूंग खरीदा था जिसे वह 4100 से 4400 के बीच बेच रही है. यह अच्छी क्वालिटी का मूंग है. ऐसे में व्यापारी क्यों भला किसान का मूंग खरीदेगा. किसानों का कहना है कि सरकार को अपना मूंग छह सात महीने बाद निकालना चाहिए था. हैरानी की बात है कि किसान को मूंग का भाव चालीस रुपए किलो से ज्यादा का नहीं मिल रहा है और खुदरा बाजार में मूंग के भाव 80 से 90 रुपये प्रति किलो के बीच हैं. इस बारे में केन्द्रीय खाद्य और उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान से पूछा गया तो उनका कहना था कि समय आने पर उचित फैसला लिया जाएगा. लेकिन दिल्ली के दाल व्यापारी मनीष सिंघल इसे दाल माफिया का खेल मानते हैं. उनका कहना है कि एसोचैम के अनुसार इस बार खरीफ में 10 लाख टन दलहन का उत्पादन कम होगा. भारत सरकार ने करीब छह लाख टन दलहन कम होने का अनुमान लगाया है. इस कमी को अभी से भुनाने में जमाखोर लग गये हैं. छोटा किसान अभी मजबूरी में सस्ते में मूंग बेच रहा है. इसे बड़े किसान या व्यापारी खरीद रहे हैं. जब एसएसपी पर सरकारी खरीद शुरु होगी तो यही मूंग सरकार को एमएसपी पर बेच कर यह वर्ग घर बैठे मुनाफा कमा लेगा.

मनीष सिंघल जिस खतरनाक स्थिति की तरफ इशारा कर रहे हैं वैसी हम 2015 में देख चुके हैं जब दाल के दाम खुदरा बाजार में 200 रुपये किलो पार कर गये थे. एक अध्ययन बताता है कि दो तीन साल में एक बार दाल के दाम बढ़ते हैं. हम 2006 से 2016 के बीच ऐसे चार चक्र देख चुके हैं लेकिन 2015 में जिस ढंग से दाल के दाम अप्रत्याशित रुप से बढ़े वह अपने आप में चौंकाने वाला था. 2014 के अंत में ही पता लग चुका था कि तूर यानि अरहर दाल की उपज बहुत कम होने वाली है. यह दाल जुलाई अगस्त में बोई जाती है और उपज जनवरी फरवरी में आती है. भारत में म्यांमार से तीस लाख टन के आसपास और अन्य अफ्रीकी देशों से तूर की दाल आयात की जाती है. कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने वहां तूर की दाल खरीद कर उसकी जमाखोरी कर ली. इधर कुछ घरेलू कंपनियों ने देश में ऐसी ही जमाखोरी की और फिर शुरु हुआ पैसा कमाने का खेल. विदेशी बंदरगाहों पर गोदाम लेकर दाल की जमाखोरी की गयी और भारत में भाव बढ़ने पर जहाज रवाना किए गये. इसी तरह देशी बंदरगाहों पर भी कुछ ऐसा ही खेल हुआ. खाद्य और उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान ने तो खुद संसद में इस मामले को उठाया था. उनका कहना था कि विदेश के बंदरगाहों पर क्या होता है इस पर तो भारत सरकार कुछ नहीं कर सकती लेकिन देश के बंदरगाहों पर निश्चित समय और निश्चित मात्रा से ज्यादा दाल रखने पर सरकार ने रोक लगा दी है. तब इस मामले की इनकम टैक्स और ईडी ने भी जांच की थी और हवाला के माध्यम से पैसा बाहर भेजने तक के आरोप लगे थे. हैरानी की बात है कि दिसंबर 2015 में जो तूर 11 हजार रुपए क्विंटल बिक रही थी उसके दाम एक साल बाद यानि दिसंबर 2016 में 3800 से 4000 के बीच आ गये. यह एमएसपी से बीस फीसद कम थे. इससे साफ है कि दाल के दाम में बढ़ोतरी या कमी आना प्राकृतिक कारणों से नहीं होता है. इसके पीछे कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कुछ घरेलु कंपनियों का आपसी षडयंत्र भी होता है.

देश में दाल की खपत दो करोड़ बीस लाख से लेकर दो करोड़ चालीस लाख टन के बीच है. हमारे यहां उत्पादन करीब एक करोड़ अस्सी लाख टन के आसपास होता है. यानि हर साल करीब चालीस पचास लाख टन की कमी होती है और इसकी विदेशों से भरपाई करना कोई मुश्किल काम नहीं है लेकिन सरकारी की दाल नीति में ही कुछ काला नजर आता है. ताजा मामला चना का है. चना का एमएसपी चार हजार रुपये प्रति क्विंटल है. जो चना 4800 रुपए के भाव पर आराम से बिकता रहा उसमें सरकार ने वायदा कारोबार खोल दिया जिससे चने के कारोबार में खलबली मच गयी. जो चना 4800 के भाव पर मिल रहा था वही चना वायदा कारोबार के बाद 6200 तक पार कर गया.

आपको जानकर हैरानी होगी कि कनाडा और आस्ट्रेलिया ने भारत से 1970 में दाल के बीज मंगवाए थे. आज इन दोनों देशों से भारत दाल का आयात करता है. 1993 में कुल दलहन की जरुरत का तीन फीसद ही आय़ात करता था लेकिन आज तीस से चालीस लाख टन दलहन का आयात किया जाता है. पिछले साल तो साठ लाख टन से ज्यादा का रिकार्ड आयात किया गया जबकि पिछले साल सवा दो करोड़ टन दलहन का रिकार्ड उत्पादन हुआ था. पिछले दस सालों से भारत सरकार ने चना को छोड़ बाकी की दालों के निर्यात पर रोक लगा रखी है. पिछले साल देश में रिकार्ड दो करोड़ 24 लाख टन के उत्पादन के बावजूद दालों का निर्यात खोला नहीं गया था लेकिन इस साल खरीफ में लाखों क्विंटल की संभावित कमी के बावजूद सरकार ने अचानक ही दालों के निर्यात की मंजूरी दे दी है. रामविलास पासवान का इस पर कहना है कि देश में दाल का 18-20 लाख टन का स्टाक है और किसान की शिकायत रही है कि एमएसपी का दाम नहीं मिल रहा है, इसलिए निर्यात की मंजूरी दी गयी है. वैसे विशेषज्ञ भी सीमित मात्रा में दाल का निर्यात खोलने की बात करते रहे हैं. लेकिन इनका साथ में यह भी कहना है कि आयातित दाल के भाव एसएसपी से नीचे नहीं होने चाहिए. 2016-17 में चने का एमएसपी 3500 रुपये प्रति क्विंटल था लेकिन देश में चना 2550 रुपये प्रति क्विंटल की दर से आयात किया गया जिससे किसानों को घाटा हुआ.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार और आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)