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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)

BLOG: रामजी की मूर्ति, रामजी की राजनीति

मूर्तिपूजा देश में सदियों से रही है. वह पंरपरा का हिस्सा है. वह आस्था और व्यक्तिगत निष्ठा का विषय है. इनमें श्रीराम का दर्जा सबसे उपर है, वह मर्यादा पुरुषोतम हैं, वह ईश्वर हैं इसलिए कम से कम रामजी को राजनीति का साधन नहीं बनाया जाना चाहिए.

अयोध्या में राम मंदिर तो पता नहीं कब बनेगा अलबत्ता वहां रामजी की सौ फीट की मूर्ति लगाने की घोषणा जरुर हो गयी है. पुराने लोग याद करेंगे कि तब बीजेपी ने नेता रामलला हम आएंगे, मंदिर यही बनाएंगे जैसे नारे लगाया करते थे. इस पर कांग्रेसी और समाजवादी नेता जोड़ दिया करते थे ‘लेकिन तारीख नहीं बताएंगे.’ राम मंदिर का मसला तो सुप्रीम कोर्ट में अटका पड़ा है. लेकिन राम मंदिर के मुद्दे को जिंदा भी रखना है लिहाजा राम मंदिर न सही, तब तक रामजी की मूर्ति ही सही. वैसे अयोध्या में राम मंदिर नहीं बनेगा तो कहां बनेगा. वहां राममंदिर बनना चाहिए. जरुर बनना चाहिए. रामजी की मूर्ति भी लगनी चाहिए. जरुर लगनी चाहिए. इसमें किसी को एतराज नहीं होना चाहिए. लेकिन यूपी की दुर्दशा अभी दूर होनी बाकी है, अभी गोरखपुर के सरकारी अस्पताल में बच्चों के मरने का सिलसिला रुका नहीं है, अभी बहुत बदहाली है, अभी सड़कों पर गडडे भी भरे नहीं गये हैं, अभी पूरा यूपी खुले में शौच से मुक्त नहीं हुआ है, अभी स्कूल बीमार हैं, अभी शासन व्यवस्था पंगु है, अभी बाबुओं को दफ्तर में बैठने की तमीज नहीं आई है, अभी कांग्रेस,सपा और बसपा के कुशासन के निशान बाकी हैं. कुल मिलाकर रामराज्य आना बचा हुआ है. लिहाजा रामजी की मूर्ति बाद में भी बनाई जा सकती थी.

दो सौ करोड़ रुपये का इस्तेमाल रामजी की नगरी के नागरिकों को नागरिक सुविधाएं देने में भी खर्च किया जा सकता था. जनकल्याण की हमेशा दुहाई देने वाले मर्यादा पुरुषोतम भी इससे खुश होते और उनके भक्त भी. लेकिन तब शायद हिंदु वोटों की गोलबंदी नहीं हो पाती. तब शायद राम मंदिर के मुद्दे को जिंदा नहीं रखा जा सकता था. तब शायद विपक्ष को कुछ भी खिलाफ बोलने के लिए उकसाया नहीं जा सकता था. तब शायद राम मंदिर की मांग कर रहे साधु संत समाज को काबू में नहीं रखा जा सकता था. तब शायद संघ को खुश नहीं किया जा सकता था. तब शायद चुनाव का माहौल नहीं बनाया जा सकता था. तब शायद हिंदुवादी ताकतों के जोश को गरम नहीं किया जा सकता था. तब शायद अगले लोक सभा चुनाव में यूपी से 2014 के चुनाव की तरह 71 सीटें निकालने में संदेह बना रहता. तब शायद जय श्रीराम का नारा बोलने में वह जोश नहीं दिखता. तब शायद विकास की राजनीति से राजनीति का विस्तार नहीं हो पाता.

वैसे रामजी की मूर्ति लगाने का जो फैसला है वह इस साल अयोध्या में भव्य तरीके से दिवाली मनाए जाने से भी जुड़ा है. बहुत बहुत साल बाद रामलीलाएं भव्य अंदाज में यूपी में आयोजित की गयी और अब दिवाली के दिन सुबह से लेकर देर शाम तक अलग अलग कार्यक्रमों का सिलसिला चलने वाला है. दिवाली राष्ट्रीय त्योहार है. मनाया जाना चाहिए.

जोरशोर से मनाया जाना चाहिए. लेकिन जनता को मनाना चाहिए. सरकार को उसमें शामिल होना चाहिए. एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश में त्योहार सरकार मनाए और जनता को उसका हिस्सा बनाया जाए यह ठीक नहीं है. यह उस सरकार के लिए तो बिल्कुल भी उचित नहीं है जो सबका साथ सबका विकास के मूलमंत्र पर काम करती है. यहां यह बात बिल्कुल साफ हो जानी चाहिए कि यह बात किसी भी धर्म के त्योहार पर लागू होती है. किसी भी सरकार पर लागू होती है जो जनता के वोट से चुनकर आती है.

वैसे यूपी सरकार के फैसले का विरोध शायद ही कोई दल कर पाने की हालत में होगा. बहन मायावती की बहुजन समाज पार्टी तो इसका बिल्कुल ही विरोध नहीं कर सकती जिसने अपने समय खुद की ही मूर्ति बनवा डाली थी. जहां अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की सैंकड़ों मूर्तियां सरकारी पैसों का दुरुपयोग कर के बनाई गयी. जहां महापुरुषों की मूर्तियां बनाने के नाम पर जमकर दलित राजनीति की गयी और दलित वोट बटोरने की कोशिश हुई. कांग्रेस को भी अपने समय में मूर्तियां बनाने के समय पंडित नेहरु से लेकर इंद्रिरा गांधी और राजीव गांधी ही याद आए जैसे कि इनके आलावा कांग्रेस में कोई दूसरा नेता हुआ ही नहीं हो. महात्मा गांधी की मूर्तियां जरुर लगी जो साल भर कबूतर की बीट से गंदी होती रही और साफ सफाई के लिए दो अक्टूबर का इंतजार करती रही. बीजेपी शासन के समय दीनदयाल उपाध्याय की मूर्तियां लगाने का काम तेजी से बढ़ा है. मूर्तिपूजा देश में सदियों से रही है.  वह पंरपरा का हिस्सा है. वह आस्था और व्यक्तिगत निष्ठा का विषय है. इनमें श्रीराम का दर्जा सबसे उपर है, वह मर्यादा पुरुषोतम हैं, वह ईश्वर हैं इसलिए कम से कम रामजी को राजनीति का साधन नहीं बनाया जाना चाहिए. राजनीति से हटकर रामजी की मूर्ति बनाइए. हम भी दर्शन करने जरुर जाएंगे.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार और आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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