बात 1999 की है. करगिल की लड़ाई चरम पर थी. शहीदों के शव उनके घर लौटाए जा रहे थे. ऐसा पहली बार हो रहा था. राजस्थान के शेखावाटी इलाके ( सीकर , चुरू , झुंझूनूं ) में तो हर तीसरे दिन एक शहीद का शव आ रहा था. शव आता तो टीवी वाले भी पहुंचते. उनमें लेखक भी था. हर जगह तब के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जरुर आते . शहीद का परिवार तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को जी भर कर कोसता. गांव वाले भी वहां आ जुटते और अटल सरकार को लानत भेजते. लेखक को लगा कि यह तो बीजेपी के खिलाफ माहौल है और उसे चुनाव में नुकसान उठाना पड़ सकता है. एक गांव में शहीद के शव का इंतजार कर रहे कांग्रेस के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से लेखक ने यही सवाल पूछा. गहलोत ने न में सर हिलाया और कहा कि देखो, शहीद का परिवार गलिया रहा है, गांव वाले भी हो सकता है कि बीजेपी से नाराज हो लेकिन देश भर में अटलजी की जयजयकार हो रही है. हो सकता है कि शहीद का परिवार या संभव है कि गांव वोट न दे लेकिन देश अटलजी की बीजेपी को वोट देगा.
गहलोत का कहना था कि राष्ट्रवाद के आगे न जाति ठहरेगी और न ही अन्य मुद्दे. गहलोत की बात सही साबित हुई. बीजेपी चुनाव जीती और पांच साल तक सत्ता में रही . सवाल उठता है कि क्या आज करगिल के बीस साल बाद भी इतिहास दोहराया जा रहा है. पुलवामा हमले और उसके बाद भारत के बदले के बाद यूपी, राजस्थान और बिहार के कुछ हिस्सों में घूमने के बाद लगता तो यही है कि बीजेपी आज चुनाव होने की सूरत में तीन सौ सीटें पार जा रही है. वैसे पहले चरण के चुनाव में एक महीने से ज्यादा वक्त बाकी है और राजनीति में तो कहा जाता है कि एक हफ्ता भी बहुत होता है. लेकिन माहौल तीन सौ पार का लग रहा है .
माहौल का गरमाने में पूरा मीडिया लगा है. पत्रकारिता की परिभाषा परछत्ती पर उछाली जा चुकी है. युद्ध् की बात इस तरह हो रही है मानो कोई खेल हो. टीवी चैनलों के एंकर्स को युदध् पर बनी हालीवुड फिल्में देखनी चाहिए ताकि उन्हें अहसास हो सके कि लड़ाई कैसी होती है, किस तरह बर्बाद करती है, कैसे बम गिरता है तो सिर्फ धमाका नहीं करता ..बम बड़े इलाके को अपने घेरे में लेता है. धुआं बहुत उपर तक जाता है और नीचे जमीन पर कुछ भी साबुत नहीं बचता. न जिस्म, न घर और न कोयल . पियानो फिल्म में खंडहर हो चुके शहर में किस तरह पियानो का संगीत जिंदगी के सात सुरों की याद दिलाता है वह एंकरों को जरुर सुनना चाहिए. स्पीलबर्ग की फिल्म शिंडलर्स लिस्ट हो या सेविंग प्राइवेट रियान, पर्ल हार्बर हो या टोरा टोरा टोरा या फिऱ दे ब्रिज टू फॉर...सभी फिल्मों में यही बताया गया है कि युद्ध सब कुछ खत्म कर देता है और दश्कों तक सिसकते रहने का गम दे जाता है.
द डे आफ्टर फिल्म का आखिरी सीन याद कीजिए. परमाणु हमले में पूरी दुनिया नष्ट हो चुकी है और एक आदमी मिटटी हाथ में उठाता है. मिट्टी लिए हाथ का क्लोज अप है और मरता हुआ आदमी दुनिया की आंख में आंख डालकर पूछ रहा है कि सब कुछ मिट्टी होने के बाद किसके हिस्से में क्या आया. कुछ कुछ मोहन राकेश की कहानी मलबे का मालिक की याद दिला जाती है फिल्म. कुल मिलाकर हमें समझ लेना चाहिए कि लड़ाई तो खुद एक समस्या है तो फिर कैसे यह समाधान हो सकती है. एक छोटी कविता याद आती है...जब एक डर दूसरे डर के विरुद्ध होता है, युद्ध होता है
1971 के भारत –पाक युद्ध के एक पहलु की याद आती है. तब मैं सात साल का था. पिता एयर फोर्स में थे और हम लोग गाजियाबाद में हिंडन एयर बेस में रहा करते थे. पिता भी लड़ाई में भेजे गये थे. पंजाब सैक्टर में . युद्ध चल रहा था . रात को अचानक हूटर बज उठता था जो देर तक बजता रहता था. हमारे घर के सामने ही बंकर खोदा गया था. ब्लैक आउट होता था और लाइटें बुझानी पड़ती थी. खिड़कियों पर काला कंबल लटका दिया जाता था ताकि रोशनी बाहर न जाए. खैर , रात को हूटर बजता और फिर खामोस हो जाता लेकिन नींद रात भर नहीं आती. किसी अनजानी आशंका से दिल धड़कता रहता. खैर , युद्ध खत्म हो गया. फौजी वापस लौटने लगे. रोज दोपहर एक ट्रक आता जिसमें से मोर्चे पर गये फौजी लौटते. मां मुझे और बड़ी बहिन को लेकर ट्रक के आने की जगह रोज पहुंच जाती. ऐमां जैसे बहुत सी मांए होती और मेरी तरह बहुत से बच्चे अपनी अपनी मां का अंगुली थामे. जिनके पति ट्रक से काला ट्रंक और कंबल लिए उतरते उनकी पत्नियां खुशी में पुलकित हो जाती. बच्चें डैडी डैडी चिल्लाते हुए गलबहिया हो जाते. वह परिवार हाथों में हाथ लिए लौट जाता खुशी खुशी. जिनके पति ट्रक में नहीं होते उनकी पत्नियां अचानक उदास हो जाती. एक दम चुप. बच्चों को लेकर चुपचाप थके कदमों से वापस लौट आती मां. आंख में एक भी आंसू नहीं लेकिन अंदर ही अंदर रोते हुए. यह सिलसिला तब तक चलता जब तक फौजी पति लौट नहीं आता.
आज जब चैनलों पर युद्ध की चीख पुकार देखता हूं तो 1971 का वह मंजर याद आ जाता है. एक दृश्य और है जो भूलते नहीं भूलता. करगिल की लड़ाई के बाद शहीदों के शव घर आए तो गांव में शहीदों की मूर्तियां लगाने का चलन भी शुरु हुआ. जब शहीद की मूर्ति का खर्चा शहीद फंड से ही जाता था. मूर्ति लगाने से लेकर उसके अनावरण समारोह करवाने पर करीब करीब चार लाख रुपये खर्च हो जाते थे. यह शहीद फंड का एक तिहाई हिस्सा होता था. कई बार तो शहीद कि विधवा को मूर्ति लगवाने के लिए करीब करीब मजबूर किया जाता था. गांवों में होड़ सी लग गयी थी मूर्तियां लगवाने की. कई गांव राज्य सरकार ने फौजी गांव घोषित कर दिये थे.
खैर , मूर्ति का अनावरण करने कोई नेताजी आते, पूरा गांव उमड़ता और गांव के स्कूल का नाम शहीद के नाम पर करने जैसी घोषणाएँ की जाती. उसके बाद गांव शहीद को भूल जाता. मूर्ति की सफाई का जिम्मा परिवार पर ही आ जाता, शाम को दिया बत्ती करने से लेकर कबूतरों की बीट हटाने से लेकर सूखे पत्तों की सफाई का. ऐसे ही एक गांव में जाना हुआ था. सीकर जिले का एक गांव था. वहां पहुंचा तो शहीद की बूढ़ी मां मूर्ति के आसपास उगी घास काटने में लगी थी. शहीद की मूर्ति के आगे उनके दो बच्चे खड़े थे. एक ने अपनी शहीद पिता का हाथ ( मूर्ति का हाथ ) पकड़ रखा था. तभी धूल भरी आंधी चली. आंधी के साथ अखबार की एक कतरन भी उड़ती हुई आ गयी. तीन कॉलम की खबर छपी थी.चुनाव आयोग आजकल में चुनावों की घोषणा करेगा. यहां से निकल कर गांव में पहुंचा तो चाय की दुकान पर लोग चुनाव की चर्चा कर रहे थे. किस दल से किस जाति का उम्मीदवार उतरेगा और क्या सत्ताधारी दल को विकास का लाभ मिलेगा.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)