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कर्नाटक का चुनाव कुल मिलाकर अगले साल के लोकसभा चुनाव की दशा दिशा तय करने वाला है. बीजेपी अगर कर्नाटक जीती तो उसे सारा श्रेय हिंदुत्व और मोदी को देना होगा. अब विकास की बातें सिर्फ बातें हैं.
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कर्नाटक में चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगा? यह कहना सचमुच बहुत मुश्किल होता जा रहा है. कांग्रेस ने अपने चुनावी चरम को पहले ही पा लिया था और बीजेपी चुनावी चरम पर पहुंच रही है. अभी तक के तमाम सर्वों का औसत बता रहा है कि कांग्रेस को 94 और बीजेपी को 86 सीटें मिल सकती हैं. ऐसे में कुछ का कहना है कि कांग्रेस चुनाव जीतेगी लेकिन बीजेपी की सरकार बनेगी. कुछ का कहना है कि त्रिशंकु विधानसभा की सूरत में कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्दारमैया और बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार येदुरप्पा दोनों को झटका लग सकता है. यहां देवेगोड़ा तय करेंगे कि वह जिस भी दल का समर्थन करेंगे, उस का मुख्यमंत्री कौन होगा. देवेगोड़ा सिद्दरमैया और येदुरप्पा दोनों को ही नापसंद करते हैं. सबसे बड़ा सवाल है कि राज्यपाल सबसे बड़े दल को क्या सरकार बनाने का पहला मौका देंगे या फिर विधायकों की सूची मांगेगे. वैसे हैरानी की बात है कि कर्नाटक के ही एक पूर्व मुख्यमंत्री एस आर बोम्मई के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सदन में बहुमत साबित करने के निर्देश दिये थे और तभी से आमतौर पर राज्यपाल इन निर्देशों का पालन करते हुए सबसे बड़े दल को न्यौता देकर सदन में बहुमत साबित करने का मौका देते रहे हैं. हाल में गोवा, मेघालय, मणिपुर में जरुर सबसे बड़े दल की जगह चुनाव बाद या यूं कहा जाए कि चुनाव परिणाम बाद के गठबंधन को मौका दिया गया.
कर्नाटक की जनता की दो खासियतें हैं. एक जनता हर पांच साल बाद सरकार बदल देती है. यह सिलसिला 1985 से चल रहा है. दो, जनता जिस दल को राज्य में मौका देती है उस दल को लोकसभा चुनाव में कम सीटें देती हैं. साल 2013 में कर्नाटक की जनता ने राज्य में कांग्रेस की सरकार बनवाई लेकिन अगले ही साल यानि 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में 28 में से 17 सीटें बीजेपी की झोली में डाल दीस जिसे विधानसभा चुनावों में सिर्फ चालीस सीटों पर निपटा दिया था. अगर कर्नाटक में जनता इस बार परंपरा को निभाती है तो बीजेपी और कांग्रेस के पास खुश होने और गमकीन होने के कारण होंगे. बीजेपी विधानसभा चुनाव जीती तो उसे लोकसभा चुनाव 2019 में सीटें कम होने के अंदेशे से गुजरना होगा. (वैसे भी यह माना जा रहा है कि बीजेपी की 2014 के मुकाबले लोकसभा सीटें कम होंगी और भरपाई की चिंता उसे करनी होगी). उधर अगर कांग्रेस कर्नाटक हारी तो वह अंदर ही अंदर इस बात को लेकर खुश हो सकती है कि लोकसभा चुनाव में उसकी सीटों की संख्या कर्नाटक में 9 से बढ़ सकती हैं. वैसे राज्य जाने का दुख कांग्रेस को ज्यादा रहेगा और वह पंजाब और पुडुचेरी तक ही सिमट कर रह जाएगी. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो अभी से पीपीपी कहने लगे हैं यानि पंजाब, पुडुचेरी और परिवार. कुछ सीधे सीधे कह रहे हैं कि जो दल कर्नाटक जीतता है वह अगले साल होने वाला लोकसभा चुनाव ही हार जाता है. 2008 में बीजेपी ने कर्नाटक में सरकार बनाई थी और 2009 का लोकसभा चुनाव हार गयी थी. 2013 में कांग्रेस ने कर्नाटक में सरकार बनाई लेकिन 2014 में लोकसभा चुनाव में निपट गयी. तो इस हिसाब से देखा जाए तो 2018 में कर्नाटक जीतने वाले को 2019 में लोकसभा चुनाव क्यों हारना नहीं पड़ेगा. यह सवाल जब बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से पूछा गया तो उनका कहना था कि यह सब अंधविश्वास है और 1967 पहले तो कांग्रेस कर्नाटक में भी थी और केन्द्र में भी. अब यह सब दिलचस्प संयोग हैं जिनपर कर्नाटक चुनाव के नतीजे आने के बाद भी चर्चा गर्म रहेगी.
कर्नाटक का चुनाव कुल मिलाकर अगले साल के लोकसभा चुनाव की दशा दिशा तय करने वाला है. बीजेपी अगर कर्नाटक जीती तो उसे सारा श्रेय हिंदुत्व और मोदी को देना होगा. अब विकास की बातें सिर्फ बातें हैं. असली रणनीति तो हिंदुत्व के साथ साथ मोदी के चेहरे और रैलियों का तड़का है. बीजेपी राजस्थान , मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में इसी साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों में आक्रामक अंदाज में उतरेगी. कर्नाटक में बीजेपी की जीत से ज्यादा कांग्रेस सरकार की एंटी इनकम्बैंसी की हार होगी. यह बात बीजेपी अच्छी तरह से जानती है. त्रिपुरा , हिमाचल प्रदेश , मेघालय , उतराखंड में भी बीजेपी ने कांग्रेस की सत्तारुढ़ सरकारों को हराया था. पंजाब में बीजेपी अकाली दल सरकार की एंटी इनकम्बैंसी की हार हुई थी और मोदी का नाम और रैलियां करिश्मा नहीं कर सकी थी. इस हिसाब से देखा जाए तो कर्नाटक में बीजेपी की संभावित जीत से कांग्रेस को विचलित नहीं होना चाहिए और बीजेपी को तीनों उत्तर भारत राज्यों की चिंता करनी चाहिए. अलबत्ता लोकसभा चुनावों में कर्नाटक जीतने के बाद बीजेपी हिंदुत्व , मोदी और आधे सांसदों के टिकट काट कर नये चेहरों को मौका देने के तीन सूत्री फार्मूले पर चल सकती है. हमने विकास भी किया के नारे के साथ.
कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्दारमैया ने लिंगायतों को अल्पसंख्यक का दर्जा देकर , अलग झंडे की मांग का समर्थन कर और कर्नाटक अस्मिता का बात उठाकर बीजेपी को उसी की रणनीति से मारने की कोशिश की है. ऐसा पहले कभी कांग्रेस में नहीं हुआ. पंजाब में अमरेन्द्रसिंह को आगे करने का प्रयोग कामयाब रहा और कर्नाटक में राहुल गांधी ने सिद्दारमैया को आगे किया है. यहां तक कि चुनावी रैलियों में वह पहले बोलते हैं और उसके बाद सिद्दारमैया. जाहिर है कि कांग्रेस में स्थानीय क्षत्रपों को आगे लाने पर जोर दिया जा रहा है. आलाकमान कल्चर हाशिए पर दिख रहा है. उसके उल्ट बीजेपी में आलाकमान के नाम पर मोदी और अमित शाह ही धुरी बन रहे हैं. हो सकता है कि बीजेपी की यह चुनावी रणनीति का हिस्सा हो क्योंकि अगर कोई दल ऐसा रणनीति अपना कर एक के बाद एक राज्य जीतता है तो जाहिर है कि वह दल जीत के इस सिलसिले को कायम रखना चाहेगा और उसमें बदलाव नहीं करेगा. वैसे भी बीजेपी जानती है कि येदुरप्पा को सामने रखकर सिद्दारमैया से लड़ा नहीं जा सकता. रेडडी भाइयों को टिकट देकर बीजेपी ने साफ कर दिया है कि उसके लिए जीत ज्यादा जरुरी है और फिलहाल के लिए राजनीतिक शुचिता को ताक पर रख दिया गया है.
दोनों दलों के चुनाव घोषणा पत्र भी दिलचस्प हैं. दोनों में लैपटाप से लेकर स्मार्ट फोन और तीन ग्राम सोना से लेकर किसानों के कर्ज माफ करने जैसी बातें कही गयी हैं. हैरानी की बात है कि दोनों ही दल दूसरे दल के घोषणा पत्र का माखौल उड़ा रहे हैं. हैरानी की बात है कि दोनों दलों के घोषणा पत्र में जिस तरह के वायदे किये गये हैं उनको पूरा करने लगभग असंभव है और चुनाव आयोग खामोश है. हाल ही में चुनाव आयोग ने कहा था कि वह ऐसे चुनावी वायदों को संदेह की नजर से देखेगा जिन्हें पूरा करना संशय के खाते में आएगा. सिद्दारमैया अभी इंद्रिरा कैंटीन चलाते हैं और बीजेपी का कहना है कि वह सत्ता में आने पर अन्नपूर्णाना कैंटीन चलाएगी. अभी बीजेपी उज्जवला योजना के तहत गैस सिलेंडर देती है लेकिन सब्सिडी उपभोक्ता को तब तक नहीं देती जब तक कि वह चूल्हे की रकम नहीं लौटा देता. उधर सिद्दारमैया ने ऐसे गैस सिलेंडरों पर सब्सिडी भी देने की अलग योजना चला रखी है. मंदिर मठ राहुल भी जा रहे हैं और अमित शाह भी. इसमें अब नवीनता नहीं रही है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
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