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BLOG: हिंद के गुलशन में जब आती है होली की बहार: हैप्पी एवं सुरक्षित होली!
आप भी कुदरती रंगों से बचने की कोशिश हरगिज न कीजिए और राग-द्वेष भूलकर अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार प्यार और दोस्ती के फूल खिलाइए.
होली अभी नहीं हो ली! यह मानव चित्त के हर्षोल्लास का एक ऐसा पर्व है जो देश के अलग-अलग हिस्सों में फागुन की पूर्णिमा के हफ्तों पहले से शुरू हो जाता है और हफ्तों बाद तक चलता रहता है. रंग, गुलाल, अबीर, पिचकारी, भंग, ढोल-नगाड़े-शहनाई और झांझ-मजीरों वाला विविधवर्णी नृत्य-गीत-संगीत और नाना प्रकार के व्यंजनों की छटा बिखेरता यह मदनोत्सव इन दिनों पूरे शवाब पर है...और जब वसंतोत्सव को चरम पर पहुंचाने में पूरी सृष्टि ही लगी हुई है, तो मिट्टी के पुतले मानव की क्या बिसात कि वह मदन-बयार में न बह जाए! जनकवि स्वर्गीय कैलाश गौतम की पंक्तियां याद आती हैं- ‘बहै फगुनहट उड़ैं धुरंधर, बस भउजी से खुलैं धुरंधर.”
कमाल की बात यह है कि होली जीवन और मृत्यु दोनों के रंग अपने आप में समोए हुए है. जब पंडित छन्नूलाल मिश्र का पक्का कंठ तान छेड़ता है- ‘खेलैं मसाने में होरी दिगंबर, खेलैं मसाने में होरी’, तो साक्षात् विराट शिव समूचे ब्रह्माण्ड में भभूत उड़ाते साकार हो उठते हैं और जब धमार व ठुमरी की तर्ज पर प्रस्तुत की जाने वाली सुंदर बंदिश ‘चलो गुइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर’ की टेक लगती है तो साक्षात् राधा-कृष्ण के प्रेम में पगे जीवनराग गमक उठते हैं.
ऋतुराज वसंत के स्वागत में आम बौरा जाते हैं, कोयलें कूकने लगती हैं, गेंहूं की बालियां बल खाने लगती हैं, निर्वसन टेसू के दहकते फूल वनप्रांतर में आग-सी लगा देते है. ऐसे में कविहृदय कैसे काबू में रहे! प्राचीनकाल में ही महाकवि हर्ष ने अपनी ‘प्रियदर्शिका व ‘रत्नावली’ तथा कालिदास ने ‘कुमारसंभवम्’ व ‘मालविकाग्निमित्रम्’ में रंगपर्व मना लिया था. कालिदास रचित ‘ऋतुसंहार’ में तो पूरा एक सर्ग ही वसंतोत्सव को अर्पित है. हिंदी साहित्य के आदिकाल में चंदबरदाई ने पृथ्वीराज रासो में चौहानकेसरी के होली खेलने का आकर्षक और राजसी वर्णन किया है.
आधुनिक काल के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र की तड़प देखिए- ‘गले मुझको लगा लो ऐ दिलदार होली में, बुझे दिल की लगी भी तो ऐ यार होली में/ गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो, मनाने दो मुझे भी जानेमन त्योहार होली में’. महाप्राण निराला इस वातावरण की पवित्र मादकता में खोकर रचते हैं- ‘नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे, खेली होली! जागी रात सेज प्रिय पति संग रति सनेह-रंग घोली, दीपित दीप, कंज छवि मंजु-मंजु हंस खोली- मली मुख-चुम्बन रोली.’ लाड़ले गीतकार हरिवंशराय बच्चन सामाजिक समरसता का संदेश देते हुए आवाहन करते हैं- ‘होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो, होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो, भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को, होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!’
आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, मलिक मुहम्मद जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, पद्माकर, घनानंद आदि अनेक कवि होली के संयोग-वियोग से अछूते नहीं रह पाए. महाकवि सूरदास माहौल बनाते है- ‘डफ, बांसुरी, रंजु अरु मउहारि, बाजत ताल ताल मृदंग, अति आनंद मनोहर बानि गावत उठति तरंग.’ मीरा बाई का समर्पण है- ‘रंग भरी राग भरी रागसूं भरी री, होली खेल्यां स्याम संग रंग सूं भरी, री!’ रीतिकालीन महाकवि पद्माकर होली का वितान कुछ इस तरह फैलाते हैं- ‘फाग की मीर अमीरनि ज्यों, गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी, माय करी मन की पद्माकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी, छीन पितंबर कम्मर ते, सुबिदा दई मीड़ कपोलन रोरी, नैन नचाय कही मुसकाय, लला फिर आइयो खेलन होरी.’ शब्दार्थ के जादूगर महाकवि बिहारी अपना हाल कुछ यों बयान करते हैं- ‘पीठि दयैं ही नैंक मुरि, कर घूंघट पटु डारि, भरि गुलाल की मूठि सौं गई मूठि सी मारि.’
भारतवर्ष में होली पर्व की इब्तिदा का दिन या कारण कोई निर्धारित नहीं कर सकता. इससे हिरण्यकश्यप और भक्त प्रह्लाद वाली कथा से लेकर कामदेव के पुनर्जन्म, राक्षसी ढुंढी, पूतना-वध और राधा-कृष्ण के रास तक की कहानियां जुड़ी हुई हैं. लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि उमंग और उल्लास के साथ मनाया जाने वाला यह पर्व भारत का सबसे प्राचीन त्यौहार है. जिस विंध्य क्षेत्र से मैं आता हूं, उसके रामगढ़ नामक स्थान पर प्राप्त ईसा से 300 साल पुराने एक अभिलेख में भी होली मनाने का उल्लेख किया गया है. ईसा से शताब्दियों पूर्व भारत में 'होलाका' उत्सव प्रचलित था.
सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी भारत में रंगपर्व मनाने का विस्तृत वर्णन किया है. उर्दू साहित्य में दाग देहलवी, हातिम, मीर, कुली कुतुबशाह, महजूर, बहादुर शाह जफर, नजीर अकबराबादी, ख्वाजा हैदर अली 'आतिश', इंशा और तांबा जैसे कई नामीगिरामी शायरों ने होली की मस्ती अपनी शायरी में उड़ेली है. महान जनकवि नजीर अकबराबादी की पंक्तियां दृष्टव्य हैं- ‘हिंद के गुलशन में जब आती है होली की बहार/जांफिशानी चाही कर जाती है होली की बहार/इक तरफ से रंग पड़ता इक तरफ उड़ता गुलाल/जिंदगी की लज्जतें लाती है होली की बहार.’ नजीर का ही बखान है- ‘जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की, और डफ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की, परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की, खुम, शीशे जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की, महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की.’
अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे. इतना ही नहीं अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहांगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है. शाहजहां के ज़माने में होली को आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) नाम से मनाया जाता था. आगे चलकर अंग्रेजी राज में भी कई पलटनियों और मेमों के भारतीय राजाओं के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है. स्पष्ट है कि होली हिंदुओं का प्रमुख पर्व होने के बावजूद जाति-धर्म-भाषा-क्षेत्रवाद की संकीर्णताओं को गंगा में बहा देता है.
हमारे देश में विविध ढंग से होली मनाई और खेली जाती है, जैसे कि कुमाऊं की बैठकी होली, बंगाल की दोल-जात्रा, महाराष्ट्र की रंगपंचमी, गोवा का शिमगो, हरियाणा के धुलंडी में भाभियों द्वारा देवरों की फजीहत, पंजाब का होला-मोहल्ला, तमिलनाडु का कमन पोडिगई, मणिपुर का याओसांग, एमपी मालवा के आदिवासियों का भगोरिया आदि. लेकिन ब्रजभूमि की होली; विशेषकर बरसाने की लट्ठमार होली तो जगतप्रसिद्ध है! महाकवि रसखान का वर्णन है- ‘फागुन लाग्यो जब तें तब तें ब्रजमण्डल में धूम मच्यौ है/नारि नवेली बचैं नहिं एक बिसेख यहै सबै प्रेम अच्यौ है/सांझ सकारे वहै रसखानि सुरंग गुलाल ले खेल रच्यौ है/कौ सजनी निलजी न भई अब कौन भटू बिहिं मान बच्यौ है.’
आप भी कुदरती रंगों से बचने की कोशिश हरगिज न कीजिए और राग-द्वेष भूलकर अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार प्यार और दोस्ती के फूल खिलाइए. मैं ‘मदर इंडिया’ का दिलकश गीत गुनगुना रहा हूं- ‘होली आई रे कन्हाई, रंग छलके, सुना दे जरा बांसुरी.’ आप भी अपनी पसंद के गीत गुनगुनाइए. हैप्पी एवं सुरक्षित होली!!
नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.
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