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BLOG: धर्म के पटाखे में तीली: मंदिर-मस्जिद में पूजा करने क्या लाशें जाएंगी?
कर्नाटक और इसके बाद तीन प्रमुख राज्यों के चुनाव और उसके तत्काल बाद आम चुनावों का फलदार मौसम आता देख बीजेपी के एक सांसद को जिन्ना की तस्वीर नागवार गुजरी और यूनिवर्सिटी कैम्पस में जमकर बवाल काटा गया.
भारत में सभी धर्मों के क्रिया-कलाप और कर्मकाण्ड साल भर चलते रहते हैं. कहीं खुले में यज्ञ हो रहे होते हैं, कहीं आरती हो रही होती है, कहीं गणेश या दुर्गा की प्रतिमा विसर्जित की जा रही होती है, कहीं ताजिया का जुलूस निकल रहा होता है, कहीं तीर्थयात्रियों को चाय-शरबत-पानी पिलाया जा रहा होता है, कहीं ढोल-नगाड़ों के साथ धर्म की दीक्षा ली जा रही होती है, कहीं दान का कार्यक्रम चल रहा होता है, कहीं पंथ की रक्षा के लिए युद्धकला का प्रशिक्षण दिया जा रहा होता है, कहीं सड़क पर नमाज पढ़ी जा रही होती है तो कहीं बकरे की कुरबानी दी जा रही होती है. देश में कहीं कांवड़ियों की यात्रा निकल रही होती है तो कहीं लंगर बंट रहा होता है. किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अधिकतर देशवासी धार्मिक और सहिष्णु हैं. असुविधा होने पर भी लोग बच-बचा कर निकल लेते हैं. लेकिन मुश्किल तब होती है, जब किसी भी धार्मिक संगठन, राजनीतिक दल अथवा धर्मांध संस्था को कोई मुद्दा बलवान करना होता है तो सारी सहिष्णुता काफूर हो जाती है और एक दूसरे के सांस लेने पर भी ऐतराज होने लगता है.
ऐसे मौके भी रोज-रोज नहीं आते. इनके लिए सबसे मुफीद समय होता है चुनाव की वेला का या साम्प्रदायिक दंगा कराने के लिए पृष्ठभूमि रचने का. अभी देख लीजिए कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में बीते 70 सालों से जिन्ना की तस्वीर लटकी रही लेकिन उस पर किसी को कोई ऐतराज नहीं हुआ. अब कर्नाटक और इसके बाद तीन प्रमुख राज्यों के चुनाव और उसके तत्काल बाद आम चुनावों का फलदार मौसम आता देख बीजेपी के एक सांसद को जिन्ना की तस्वीर नागवार गुजरी और यूनिवर्सिटी कैम्पस में जमकर बवाल काटा गया. दूसरी तरफ बॉम्बे हाई कोर्ट के म्यूजियम में जिन्ना का पूरा पोट्रेट, उनकी 1896 में मिली बैरिस्टर डिग्री और वह पहला आवेदन भी रखा हुआ है, जो उन्होंने वकालत की इजाजत प्राप्त करने के लिए दिया था. लेकिन वहां किसी को कोई ऐतराज नहीं लगता. जिन्ना हाउस तो मुंबई में शान से खड़ा ही है.
अभी और देखिए कि पिछ्ले शुक्रवार को जब गुरुग्राम में अल्पसंख्यक समुदाय के लोग, अतुल कटारिया चौक, साइबर पार्क, इफको के पास उद्योग विहार में नमाज पढ़ने के लिए इकट्ठा हुए तो कई हिंदूवादी संगठन सड़क पर नमाज पढ़े जाने का विरोध करने लगे. इसके बाद इलाके में माहौल बिगड़ने की स्थति में आ गई. 6 अप्रैल को भी गुरुग्राम के वजीराबाद में कुछ लोगों ने सेक्टर 43 के मैदान में नमाज पढ़े जाने का विरोध किया था. इतना ही नहीं, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर भी इस विवाद में कूद कर नसीहत दे रहे रहे हैं कि पिछले कुछ समय से सड़क पर नमाज पढ़ने का चलन बढ़ गया है और मुसलमानों को सार्वजनिक स्थानों की बजाय मस्जिद और ईदगाह में ही नमाज पढ़नी चाहिए. अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनका यह बयान किन ताकतों और कार्यकर्ताओं को बल देने के लिए है और खट्टर के बयान की टाइमिंग भी देखिए. पहले जिन्ना विवाद और अब नमाज विवाद और ये चुनाव की बयार!
एक साम्य और देखिए. हिंदू संघर्ष समिति की दलील है कि मुसलमान सरकारी जमीन पर साजिशन उसे हथियाने के इरादे से नमाज पढ़ते हैं और बीजेपी व विहिप के प्रवक्ता चैनलों पर घूम-घूम कर कह रहे हैं कि नमाज पढ़ने के बाद उस जमीन को वक्फ की जमीन करार दे दिया जाता है. यानी विरोध स्वयंस्फूर्त नहीं बल्कि सुनियोजित है. वरना तो जुमे की नमाज तो दशकों से सड़क पर पढ़ी जाती रही है क्योंकि उस दिन नमाजियों की तादाद ज्यादा होती है और मस्जिद या ईदगाह में जगह कम पड़ जाती है.
भारतीयों की सहिष्णुता देखिए कि जुमे के इन नमाजियों को हिंदू लोग सेवा देते हैं, उनके वाहनों को पार्किंग की जगह देते हैं. कई जगह तो मंदिर के परिसर में व्यवस्था कर दी जाती है. ऐसी मान्यता है कि इस दिन नमाज पढ़ने से अल्लाह इंसान की पूरे हफ्ते की गलतियों को माफ कर देते हैं. इसी वजह से हर मुस्लिम शुक्रवार के दिन मस्जिद में जाकर नमाज अदा करना चाहता है. जबकि धार्मिक कट्टरवादी इसे मुसलमानों के शक्ति प्रदर्शन की तरह देखते हैं.
मुझे याद है 1992 में विवादित बाबरी ढांचा ढहाए जाने के बाद मुंबई में जुमे की नमाज को इसी प्रकार शिवसेना ने शक्ति प्रदर्शन के तौर पर देखा था और रातों रात मंदिरों और सड़कों पर अभूतपूर्व जवाबी महाआरती शुरू हो गई. जिन हिंदुओं ने कभी घर में घड़ियाल भी नहीं बजाया था वे खुले में घंटा बजाने लगे थे. नतीजे में घृणा और बदले का ऐसा माहौल ऐसा बना कि मुंबई में देखते ही देखते आजादी के पहले की कत्लोगारत का मंजर पैदा हो गया और मुंबई हमेशा के लिए बदल गई.
यहां यह रेखांकित करना भी जरूरी है कि आयोजन या कर्मकाण्ड किसी भी धर्म का हो, अगर वह लोगों के लिए असुविधा पैदा करता है या साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए खतरा बनता है तो उस पर कानून को सख्त रहपट लगाना चाहिए. हमने देखा है कि कांवड़ यात्रा और शब-ए-बारात को कुछ लोग नशाखोरी और हुड़गंदी का लाइसेंस समझ लेते हैं और सड़क पर नमाज पढ़ने से मुंबई जैसे शहरों में ट्रैफिक जाम हो जाता है, जिससे कामकाजी लोगों के मन में नमाजियों के प्रति श्रद्धा नहीं बल्कि गुस्सा पैदा होता है.
लेकिन ज्यादातर अनुभव यही रहा है कि आम तौर पर सदाचारी और धार्मिक लोगों को किसी के सड़क पर नमाज पढ़ने या मंदिर के बाहर आरती करने से कोई फर्क नहीं पड़ता. फर्क भावनाएं भड़काने से पड़ता है. वैसे आम आदमी आसानी से भड़कता नहीं है फिर भी भड़काने वाले कोई न कोई मुद्दा खोज ही लेते हैं, जैसा कि आजकल चल रहा है. एक ऑटोरिक्शा वाले चचा गोवंडी में कल ही मुझसे कह रहे थे-
आपस में ही लड़-लड़ कर जब ये कौमें मिट जाएंगी
तब मंदिर मस्जिद में पूजा करने क्या लाशें जाएंगी
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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
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राजेश कुमार
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