मणिपुर में हिंसा का सिलसिला थम नहीं रहा है. ढाई महीने से भी ज्यादा वक्त से मणिपुर के लोग हिंसा की आग में झुलसने को मजबूर हैं. मणिपुर को लेकर एक और बात है, जिसका सिलसिला थम नहीं रहा है. वो है मणिपुर हिंसा को लेकर राजनीति और इतने गंभीर मुद्दे पर भी पक्ष-विपक्ष में तर्क का सिलसिला.
ये राजनीति 19 जुलाई को वायरल हुए उस वीडियो के बाद तो और चरम पर पहुंच गई, जिसमें भीड़ में से चंद दरिंदे दो महिलाओं को निर्वस्त्र कर उनके साथ बर्बरतापूर्ण हरकत करते हुए नजर आ रहे हैं. ऐसे तो मणिपुर में हिंसा की ये आंच पहले से ही सुलग रही थी, लेकिन 3 मई से इसकी ज्वाला तेज होती गई.
लोगों के गुस्सा और आक्रोश के बाद कार्रवाई
जब कुछ दिन पहले महिलाओं से जुड़ा वीडियो वायरल हुआ तो पूरे देश में इस घटना को लेकर मीडिया के तमाम मंचों ख़ासकर सोशल मीडिया पर लोगों का जबरदस्त आक्रोश और गुस्सा देखा गया. घटना 4 मई की थी. इस घटना को दरिंदों ने थोबल जिले में अंजाम दिया था. वीडियो वायरल होने के बाद लोगों के आक्रोश और उबाल को देखते हुए घटना के ढाई महीने बाद आरोपियों की गिरफ्तारी का सिलसिला शुरू होता है.
पुलिस-प्रशासन को शुरू से थी घटना की जानकारी
ऐसा इसलिए भी कह सकते हैं कि अगर वीडियो वायरल नहीं होता तो शायद ये कार्रवाई अभी भी नहीं हुई होती क्योंकि घटना की जानकारी मणिपुर पुलिस को पहले ही दिन से थी. यहां तक कि घटना को लेकर पुलिस की भूमिका भी शक के घेरे में है. जैसी खबरें आ रही है और पीड़ितों का बयान सामने आ रहा है, उसके मुताबिक पुलिस ने ही इन पीड़िता को भीड़ के हवाले किया था. अगर इसे न मानकर ये माना जाए कि भीड़ ने पुलिस से इन महिलाओं को छीन लिया था, तब भी एक बात तो साफ है कि इस घटना की पूरी जानकारी डे वन से ही मणिपुर पुलिस और प्रशासन को थी. जब पुलिस और प्रशासन को थी तो इसका मतलब है कि मणिपुर सरकार के आला नुमाइंदों को भी इसकी जानकारी रही ही होगी, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है.
राजनीतिक जवाबदेही तय करना मुश्किल
इतना सब होने के बावजूद देश के लोगों की प्रतिक्रिया और गुस्सा ही वो वजह थी, जिसने मणिपुर सरकार को घटना के ढाई महीने बाद कार्रवाई करने को मजबूर किया. इतना ही नहीं, मणिपुर में हिंसा के भीषण दौर को शुरू हुए लंबा अरसा हो गया था, उसके बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पर न तो एक भी बयान दिया था और न ही मणिपुर गए थे. महिलाओं के साथ हुई बर्बरतापूर्ण घटना का वीडियो वायरल होने के बाद जनमानस की प्रतिक्रिया को देखते हुए प्रधानमंत्री ने इस घटना पर बयान दिया. हालांकि मानसून सत्र की शुरुआत पहले 20 जुलाई को दिए गए प्रधानमंत्री के बयान में सिर्फ़ इसी घटना का जिक्र था, उनके बयान में ढाई महीने से ज्यादा वक्त से जारी मणिपुर हिंसा को लेकर कुछ भी नहीं कहा गया था.
जनमानस की प्रतिक्रिया का काफी महत्व
कहने का मतलब ये है कि जनमानस की प्रतिक्रिया लोकतांत्रिक व्यवस्था में काफी मायने रखती है. लेकिन सच्चाई ये भी है कि वीडियो वायरल होने के बाद तत्काल लोगों की प्रतिक्रिया आ रही थी, वो चंद घंटों के बाद ही खांचों में बंटती दिखी. राजनीतिक उलझन में फंसती दिखी. धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा कि अतीत की तरह इस बार भी बेहद ही गंभीर मुद्दा राजनीति में उलझकर दम तोड़ने लगा है.
गंभीर मुद्दों पर भी खांचों में बंटते लोग
इतने गंभीर और मानवता के अस्तित्व को ही नकारने से जुड़े मसले पर भी समाज के लोगों में जो बंटवारे की प्रवृति दिख रही है, वो किसी भी नजरिए से देश के आम लोगों के लिए फायदेमंद नहीं है. मुद्दा चाहे कोई भी, खांचों या खेमों में बांटने या बंटने की प्रवृत्ति राजनीति से जुड़े लोगों, राजनीतिक दलों और नेताओं में तो शुरू से रहा है, लेकिन जब समाज में आम लोग भी इस तरह के बंटवारे का हिस्सा बन जाते हैं, तो इसमें नुकसान सिर्फ़ और सिर्फ़ देश के नागरिकों का होता है.
उसमें भी व्यापक स्तर पर हिंसा का कोई भी मामला नागरिक अधिकारों और मानव अस्तित्व के खिलाफ होता है. वायरल वीडियो में महिलाओं के साथ जो कुछ भी किया गया, वो जीवन के अस्तित्व, जीवन की गरिमा और महिलाओं को लेकर संवेदनशीलता से जुड़ा मुद्दा है. ऐसे मामलों में पक्ष-विपक्ष, तर्क-वितर्क की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है.
मणिपुर हिंसा को लेकर तो लोग पहले से ही खांचों में बंटते दिख रहे थे. मैतेई समुदाय के लिए एसटी स्टेटस की मांग और कुकी समुदाय की ओर से विरोध से शुरू 3 मई को व्यापक स्तर पर हिंसा की शुरुआत होती है. मैतेई और कुकी समुदाय के बीच संघर्ष से शुरू हुई इस हिंसा को लेकर राज्य से बाहर के लोगों की प्रतिक्रियाएं भी समुदाय विशेष से लगाव और जुड़ाव के आधार पर आने लगी. हालांकि इंटरनेट बंद होने से मणिपुर से बहुत सारी खबरें और घटनाएं इस दौरान बाहर आ ही नहीं पाई. लेकिन जब 19 जुलाई को वीडियो वायरल होता है तो देखते ही दखते देशभर से इसके खिलाफ प्रतिक्रिया आने लगती है.
राजनीति में उलझकर दम तोड़ते गंभीर मुद्दे
वीडियो वायरल होने के चंद घंटे बाद ही बहस और विमर्श राजनीतिक रंग लेते दिखने लगता है. पूरी बहस बीजेपी शासित राज्य बनाम गैर बीजेपी शासित राज्य की ओर मुड़ जाती है. मणिपुर की वायरल वीडियो से जुड़ी घटना को लेकर प्रतिक्रियाएं धीरे-धीरे मीडिया के तमाम मंचों पर राजनीतिक रंग से रंगने लग जाती है. फौरन ही छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और राजस्थान से जुड़ी घटनाओं का जिक्र करते हुए सोशल मीडिया के अलग-अलग मंचों के साथ ही मुख्यधारा के टीवी न्यूज़ चैनलों में भी तुलना करने का खेल शुरू हो जाता है. सोशल मीडिया की वजह से अब किसी भी घटना या मुद्दे पर आम लोगों की प्रतिक्रिया तेजी से आने लगती है और जिसे तत्काल जानना भी हर किसी के लिए आसान हो गया है.
आम लोग तो खांचों में बंटे हुए थे ही, पत्रकारों में भी मणिपुर की घटना को दूसरे राज्यों में घटी घटनाओं से तुलना करने की होड़ मच गई. उस वक्त और इस वक्त का खेल खेला जाने लगा. उस वक्त और इस वक्त, उस राज्य और इस राज्य, बीजेपी शासित राज्य और कांग्रेस या टीएमसी शासित राज्य के बीच की तुलना के ट्रेंड ने ज़ोर पकड़ लिया.
राजनीतिक दल तो शुरू से ऐसा करते ही आए हैं कि हर मुद्दे को अपने हिसाब से पार्टी के नफा-नुकसान से जोड़ देते हैं. लेकिन आम लोग और पत्रकारों में भी ऐसा विभाजन हो जाए तो फिर इससे एक लोकतंत्र में हर मुद्दे से राजनीतिक फायदे को साधना राजनीतिक दलों के लिए बेहद आसान हो जाता है.
राजनीतिक जवाबदेही से बचना आसान
मणिपुर में जिस तरह की घटना घटी या फिर जिस तरह से 80 से ज्यादा दिनों से वहां हिंसा हो रही है, उसमें चाहे केंद्र सरकार हो या फिर राज्य सरकार, उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वो जनता को जवाब दे. लेकिन होता ऐसा दिख रहा है कि सत्ताधारी दल विपक्षी दलों को जवाब देने में जुटी है.
मणिपुर में हालात कितने बुरे हैं, ये जब आम लोगों को समझ आ रहा है तो फिर मणिपुर की सरकार और केंद्र सरकार को तो ज्यादा अच्छे से पता होगा. मणिपुर की हिंसा में 140 से ज्यादा लोगों की जान चली गई है. हिंसा में 5 हजार आगजनी की घटनाएं होती हैं. 60 हजार से ज्यादा लोग बेघर हो गए हैं. महिलाओं के खिलाफ अपराध और यौन उत्पीड़न में सारी हदें पार कर दी जा रही हैं. अब तो मणिपुर की राज्यपाल अनुसुइया उइके तक ने टीवी पर आकर इन सारी बातों को स्वीकारा है. राज्यपाल अनुसुइया उइके ने इतना तक कहा है कि उन्होंने अपनी जिंदगी में इतनी हिंसा कभी नहीं देखी. इसके साथ ही राज्यपाल ने टीवी पर ही इस बात को स्वीकारा भी है कि मणिपुर की हालात से जुड़ी रिपोर्ट वो ऊपर भेज चुके हैं.
इतना होने के बावजूद मणिपुर की एन बीरेन सिंह सरकार को हटाकर वहां अब तक राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया गया है. मणिपुर हिंसा की राजनीतिक जवाबदेही को लेकर केंद्र सरकार की ओर से कुछ भी नहीं कहा गया है.
कैसे राजनीति में उलझ जाते हैं ऐसे मुद्दे?
इसके लिए सांचों में बंटे लोग भी उतने ही जिम्मेदार हैं क्योंकि जिस प्रवृति का हमने ऊपर जिक्र किया है, वो अब हर सत्ताधारी राजनीतिक दल के लिए राजनीतिक जवाबदेही से बचने का एक बड़ा हथियार बन चुका है. चाहे सत्ता में कोई भी पार्टी हो, हर मुद्दे को राजनीति में उलझाकर लोगों को पक्ष-विपक्ष के खांचों में बांट देने की फितरत सभी में देखी जाती है.
सत्ताधारी दलों के साथ विपक्षी दलों की भी भूमिका
सत्ताधारी दलों के साथ ही विपक्षी दलों की भूमिका भी इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देने में उतनी ही निर्णायक रही है. विपक्ष का ये मतलब नहीं होता है कि मौका मिले तो सत्ताधारी दल को घेर लो. जब उसी तरह का मुद्दा या वैसी ही बर्बरतापूर्ण और मानवता को शर्मसार करने वाली घटना आपके शासित राज्यों में सामने आए, तो वहीं मुखरता इन दलों को भी दिखानी चाहिए. हालांकि ऐसा होता नहीं है क्योंकि इन दलों को भी उस प्रवृत्ति या ट्रेंड का लाभ मिलता है, जिसका ऊपर जिक्र किया गया.
कुछ मुद्दे राजनीति से परे होते हैं
राजनीतिक दलों का तो काम ही है राजनीति करना, हमारे देश में ऐसा मान लिया गया है या मनवा लिया गया है. ये नैरेटिव ही बना दिया गया है कि राजनीति का मतलब ही है कि किसी भी तरह से सत्ता हासिल करो. हालांकि सही मायने में लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति की परिभाषा और दायरा उससे कहीं ज्यादा व्यापक है.
जब हम-आप या कहें कि देश के आम नागरिक मणिपुर हिंसा या वायरल वीडियो जैसी घटनाओं में पक्ष-विपक्ष में बंट जाते हैं तो फिर राजनीतिक जवाबदेही से बचना सबसे आसान होता है. उसमें भी अगर ऐसी घटनाओं में पत्रकारों में भी पक्ष-विपक्ष के आधार पर बंटवारा हो जाता है, तब तो ये स्थिति और भी गंभीर हो जाती है. यहीं वजह है कि हमारे यहां राजनीतिक जवाबदेही तय करना सबसे मुश्किल काम है.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]