नयी दिल्लीः भारत को आज़ाद कराने के लिए महज 23 बरस की उम्र में फांसी के फंदे को खुशी से गले लगाने वाले भगत सिंह ने कहा था-"प्रेमी,पागल और कवि एक ही चीज से बने होते हैं.देशभक्तों को अक्सर लोग पागल कहते हैं." भगतसिंह जैसे अनेकों वीरों की शहादत के बदौलत मिली इस आजादी के कारण ही आज 75 बरस का भारत  अब पहले से अधिक जवान हो चुका है और दुनिया के हर क्षेत्र में अपना झंडा गाड़कर ये अहसास कराया है कि इरादे अगर मजबूत हों, तो अपने बलबूते पर वह सब पाया जा सकता है जिसे विकसित देश अब तक सिर्फ अपनी ही बपौती समझते आये थे.


आज़ादी मिलने के सालों बाद तक जो मुल्क भारत को मदारियों-सपेरों का देश समझा करते थे,अमेरिका जैसे वही देश आज हिंदुस्तान से निकलीं प्रतिभाओं का लोहा मानने को मजबूर हैं और कई क्षेत्रों में उन्हीं के भरोसे तरक्की के रास्ते पर बढ़ भी रहे हैं. कुछ दशक पहले तक भारत को ललकारने वाले देश आज हमारी ताकत देखकर हैरान-परेशान हैं और दुश्मनी की शुरुआत करने से पहले सौ बार सोचते हैं.खेल के मैदान से लेकर अंतरिक्ष तक ऐसा कौन -सा  क्षेत्र बचा है,जहां भारत ने दुनिया की निगाह में अपना एक अलग मुकाम हासिल न किया हो.


यह सच है कि पहले मुग़लों और फिर अंग्रेजो की गुलामी से आज़ाद होकर खुली हवा में सांस लेने के लिए हमें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. खुदीराम बोस, रामप्रसाद बिस्मिल, अब्दुल हनीफ, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव जैसे अनेक वीरों की शहादत का कर्ज तो हम कभी अदा कर ही नहीं सकते लेकिन हां, उनके सपनों का भारत तो बना ही सकते हैं. कह सकते हैं कि इन 75 बरसों में हम उस मंज़िल को पाने के लिए आगे बढे तो हैं लेकिन उस मंज़िल तक पहुंचे नहीं हैं, लिहाज़ा सफर अभी खत्म नहीं हुआ है.


साल 1947 का विभाजन और उसके कारण हुए साम्प्रदायिक दंगे हमारी आज़ादी के इतिहास का एक ऐसा सियाह पन्ना है, जिसे हम न तो फाड़ सकते हैं और न ही भुला सकते हैं. अपनी ही जमीन का एक बड़ा हिस्सा देकर उस पर एक नया मुल्क बनाने से भी ज्यादा दर्द उन लाखों अनाम बेगुनाह लोगों का है जो 14-15 अगस्त को इन दंगों में मारे गए. उस दंश को हम आज भी झेल रहे हैं. लेकिन इसके बावजूद भारत ने हिम्मत नहीं हारी और हर मुश्किल को आसान करते हुए तरक्की के ऐसे नये रास्ते ईजाद किये, जिसे देखकर अब दुनिया के अधिकांश देश रंज करते हैं. रामकृष्ण परमहंस ने कहा था- "आपकी सफलता का पैमाना दूसरे लोग तय करते हैं लेकिन संतुष्टि का पैमाना आप खुद तय करते हैं." इसलिये, दुनिया की निगाह में बेशक हम एक सफल देश बन चुके हैं लेकिन अपनी निगाह में हमें अभी भी इससे संतुष्ट होने की गलतफहमी नहीं पालनी चाहिये.


बेशक आज़ादी पाने के लिए हमने बहुत कुछ खोया है,तो इसे संजोने-संवारने और आगे ले जाने के लिए इन 75 बरसों में हमने अपनी मेहनत के दम पर ही उम्मीद से ज्यादा पाया भी है.बैलगाड़ी से शुरु हुए सफ़र से चांद तक पहुंचने की दूरी के सपने को भारत ने साकार करके दिखाया है.


इन साढ़े सात दशकों में ना सिर्फ भारत का नक्शा  बल्कि और भी बहुत कुछ बदला है. पढ़े-लिखे लोगों की संख्या चार गुना बढ़ी है और प्रति व्यक्ति आय में भी काफी इजाफा हुआ है. साल 1947 में प्रति व्यक्ति की सालाना आय 274 रुपये थी, जो अब बढकर करीब 1.45 लाख रुपये हो गई है.तब जनसंख्या घनत्व (प्रति इकाई क्षेत्रफल पर निवास करने वाले लोगों की संख्या) 114 लोग प्रति वर्ग किलोमीटर थी, जो अब 410 लोग प्रति वर्ग किलोमीटर है. फर्टिलिटी रेट (प्रजनन क्षमता) की बात करें, तो आजादी के समय में एक महिला के औसत 5.9 बच्चे, यानी छह बच्चे होते थे.जबकि अब ये आंकड़ा 2.2 रह गया है, यानी अब एक महिला के दो बच्चे होते हैं.तब भारतीयों की औसत आयु 37 साल ही हुआ करती थी,जो अब 69 साल है.


शहरी जनसंख्या की बात करें, तो आजादी के समय में कुल जनसंख्या में इसका योगदान 17 फीसदी था, जो अब 35 फीसदी हो गया है. लोगों ने पढ़ने-लिखने के महत्व को समझा. पहले देश में साक्षरता दर 18 फीसदी थी, जो अब 78 फीसदी हो गई है. हालांकि अंतरराष्ट्रीय सीमा की बात करें तो भारतीय मानचित्र में बहुत बदलाव नहीं आया, लेकिन देश के भीतर राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन की प्रक्रिया आजादी के बाद से ही चलती आ रही है.



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