खबर बासी है. तनुश्री दत्ता ने नाना पाटेकर पर हैरेसमेंट का आरोप लगाया है- हम उकताए भाव से खबर सुनकर भूल जाने की कोशिश कर रहे हैं. तनुश्री बीते दिनों की हीरोइन हैं. कुछेक फिल्में की हैं, इतनी पॉपुलर कभी नहीं रहीं कि कोई उनकी बात पर ध्यान दे. फिर बात भी दस साल पहले की है- तब क्यों नहीं बोलीं? अब करियर खत्म होने के बाद क्यों कह रही हैं- जाहिर सी बात है, लोकप्रियता बटोरने की कोशिश है. उनसे पहले अमेरिकी एक्ट्रेस, ऑथर पद्मा लक्ष्मी भी 30 साल पहले के डेट रेप की बात कह चुकी हैं. ये औरतें सालों पहले के केसेज़ को क्यों उछालती हैं? तब मुंह सिए क्यों बैठी रहती हैं?
जाहिर सी बात है, न 80 के दशक में डेट रेप कोई इश्यू था, न ही दस साल पहले सेक्सुअल हैरेसमेंट एट वर्क प्लेस. भारतीय वोकैबलरी में ये शब्द फिट ही नहीं होते. फिर फिल्में वर्कप्लेस में काउंट ही कहां होती हैं. न तब, न अब. जब वर्कप्लेस ही नहीं तो वर्कप्लेस हैरेसमेंट का क्या मतलब! यहां सब कुछ एडजस्टमेंट है या एक्सचेंज. जैसा कि तनुश्री ने भी अपने इंटरव्यू में कहा है. ए ग्रेड हीरोज़ अपनी पसंद की हीरोइनों को फिल्मों में रखवाते हैं- कास्टिंग डायरेक्टर चूं भी नहीं कर सकता. तो, इस भयावहता की कल्पना भी नहीं की जा सकती कि फिल्मी दुनिया में नई लड़कियों को क्या झेलना पड़ता है. यूं लड़कियों को हर जगह एक सी तकलीफ उठानी पड़ती है. किसी भी क्षेत्र में. फिल्मों में अक्सर ज्यादा, क्योंकि वहां पैसा है, ग्लैमर है, पर रेगुलेशन कोई नहीं. सैलरी से लेकर सुविधाओं तक, सब मनमर्जी का. हीरोइनों को कम, हीरोज़ को ज्यादा भारी-भरकम चेक. काम के घंटों का तय न होना. कोई सोशल सिक्योरिटी नहीं- न ही उत्पीड़न से बचने के कोई सुरक्षात्मक उपाय. हैरेसमेंट की तो इंतेहा ही नहीं.
यह कोई नई बात नहीं. यासिर उस्मान की किताब ‘रेखा- द अनटोल्ड स्टोरी’ का जिक्र यहां करना जरूरी है. इस किताब में बीते दिनों की मशहूर ऐक्ट्रेस रेखा का एक अंजान किस्सा पढ़कर हालात का जायजा लिया जा सकता है. बात 1969 की फिल्म ‘अंजाना सफर’ की ही है. फिल्म की शूटिंग के दौरान रेखा और बिस्वजीत के बीच एक किसिंग सीन फिल्माया जाना था. इसके बारे में रेखा को बिल्कुल पता नहीं था. यह डायरेक्टर राजा नवाठे और बिश्वजीत की कारस्तानी थी. किसिंग सीन पांच मिनट का था जिसके बाद रेखा की हालत ही खराब हो गई. वह उस समय इंडस्ट्री में नई-नई थीं. आंसूओं और शर्म से पानी-पानी होने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं था. आज से पचास साल पहले सेक्सुअल हैरेसमेंट को लेकर क्या हम कोई वोकैलबरी बना पाए थे? हीरो एकदम आजाद थे.
अब भी हैं. और, अब हम हीरो की हीरोगिरी पर तालियां पीटते हैं. बड़े डायरेक्टर्स ऐसे हीरोज़ की गलतियों को सेलिब्रेट करते हैं. ‘संजू’ में हीरो से बायोग्राफर पूछती है- “अपनी बीवी के अलावा तुम कितनी औरतों के साथ सोए हो?’ हीरो कहता है, ‘प्रॉस्टीट्यूट्स को गिनूं या उनको अलग... अच्छा आप सेफ्टी के लिए 350 लिख लो.” हमें ऐसे मर्दाना हीरो पर जान छिड़कते हैं. वाह बाबा... क्या कमाल हैं आप. सुल्तान बना हीरो कमेंट कर देता है कि शूटिंग में उसका हाल रेप विक्टिम जैसा हो गया था. फिर भी उसकी फिल्म विश्व स्तर पर सातवीं सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बन जाती है. जाहिर सी बात है, उसकी फिल्में हम ही हिट करवाते हैं. मिस वर्ल्ड और अपने समय की मशहूर ऐक्ट्रेस के साथ उसके एब्यूस और हैरेसमेंट के किस्सों के बावजूद. हीरोइन किनारे लग जाती है, हीरो फोर्ब्स इंडिया के चार्ट्स में लोकप्रियता और कमाई के लिहाज से टॉप पर बना रहता है. लोगों को अच्छा ह्यूमन बीइंग बनने की सलाह देता रहता है. हम उस पर वारि-वारि जाते हैं.
तनुश्री दत्ता का कहना कहां गलत है? अपने चारों ओर औरतों को देखिए. औरतों के लिए काम करना, पढ़ाई करना, हमने कितना मुश्किल बनाया है. रायपुर के हियादतुल्ला नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स को हैरेसमेंट के मामले में भूख हड़ताल पर बैठना पड़ा तो इससे आगे क्या कहा जा सकता है. वहां एक टीचर हमेशा लड़कियों को हैरेस किया करता था. शिकायत करने पर भी उसे सस्पेंड नहीं किया जाता. ऐसे किस्से देश के बड़े से बड़े शहरों में सुनने को मिलते हैं. काम करने की जगहें भी बुरी तरह अनसेफ हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के डेटा चीख-चीखकर कहते हैं कि 2014 से 2015 के बीच ऑफिस परिसर में सेक्सुअल हैरेसमेंट के केस दोगुने से ज्यादा हो गए. सेक्सुअल हैरेसमेंट से जुड़े 2013 के कानून में साफ कहा गया है कि हर निजी और सरकारी संगठन में इंटर्नल कंप्लेन कमिटी (आईसीसी) बनाई जानी जरूरी है लेकिन फिक्की का 2015 का अपना सर्वे फॉस्टरिंग सेफ वर्कप्लेसेज़ कहता है कि 36% भारतीय और 25% बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ऐसी कोई कमिटी बनाई ही नहीं. फिर औरतें कहां शिकायत करें, किससे शिकायत करें- अगर हिम्मत जुटाए भी तो!! तभी 2017 के इंडियन बार एसोसिएशन के सर्वेक्षण में 70% औरतें कबूल करती हैं कि उन्होंने अपने सीनियर्स के खिलाफ सेक्सुअल हैरेसमेंट को रिपोर्ट तक नहीं किया. उन्हें डर था कि उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है.
नतीजा न भुगतना पड़े, इसलिए औरतें अपने बिहेवियर को मॉनीटर करने लगती हैं. अक्सर उसे बदल भी देती हैं. देर रात बाहर नहीं निकलतीं, कपड़े पहनने में ऐहतियात बरतने लगती हैं. कई बार काम करने की जगह, पढ़ने की जगह, पढ़ने के विषय तक बदल देती हैं. जो नहीं करतीं, इसकी कीमत चुकाती हैं. 2008 में नाना पाटेकर के फैन्स ने तनुश्री का जीना हराम कर दिया था. एक राजनीतिक दल उनके फेवर में उठ खड़ा हुआ था. सोशल मीडिया पर वे सभी तस्वीरें इन दिनों वायरल हैं. आज भी उनकी क्रेडिबिलिटी पर सवाल खड़े करने वाले कम नहीं. यही हाल दस साल पहले भी था. दस साल में देश की जीडीपी बदल गई. फोन के मॉडल्स चेंज हो गए. छोटे कस्बों से महानगरों में होने वाले माइग्रेशन के ट्रेंड्स पलट गए. लेकिन हैरेसमेंट की कहानी वही बाबा आदम के जमाने की बनी रही.
इस कहानी में नयापन लाना है तो ऐज़ अ रूल, आपको औरतों की बात पर भरोसा करना होगा. विक्टिम और प्रेडेटर में से विक्टिम को चुनना होगा. ट्विटर पर #MeToo में हर औरत ने अपनी आपबीती सुनाई, इसी से सोचा जा सकता है कि शायद ही कोई औरत यौन उत्पीड़न से बची हुई है. अलग-अलग तरीकों से उनके साथ कोई न कोई आपत्तिजनक व्यवहार तो हुआ ही है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)