शरद पवार ने अचानक ही महाराष्ट्र की राजनीति में भूकंप ला दिया. मंगलवार यानी 2 मई को उन्होंने एनसीपी के अध्यक्ष पद से इस्तीफे का ऐलान कर दिया. वह 24 वर्षों से उस पद पर थे. उनके इस्तीफे के बाद एक तरफ जहां उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओंं ने रोने और उन्हें मनाने की कवायद शुरू की, तो प्रदेश की राजनीति को लेकर अटकलों और अफवाहों का बाजार भी गर्म हो गया. अजीत पवार से लेकर सुप्रिया सुले और प्रफुल्ल पटेल तक को अगला अध्यक्ष घोषित करने की जल्दबाजी होने लगी. हालांकि, पवार ने आगे की पूरी प्रक्रिया भी अपना इस्तीफा देते हुए बता दी है और एक कमेटी को नया अध्यक्ष चुनने का जिम्मा सौंपा है.
शॉक ट्रीटमेंट है यह पवार का
इसको लोग एक तरह से शॉक ट्रीटमेंट की तरह ले रहे हैं. आपने देखा होगा कि कुछ दिनों से अटकलें चल रही थीं. अजीत पवार जो बड़े नेता हैं एनसीपी के, उनके बारे में अटकलें थीं कि वो पार्टी छोड़कर कहीं जाएंगे, उनके साथ कुछ विधायक भी जाएंगे, वो पवार का साथ छोड़ेंगे और एक तरह से पार्टी में माहौल असहज था, अस्वस्थ था. पार्टी में जो अटकलबाजी चल रही थी, उसके बारे में पवार ने कुछ सोचा होगा और फिर ये निर्णय लिया होगा. खूब विचार कर योजना बनाने के बाद उन्होंने अपना निर्णय सार्वजनिक कर दिया. हालांकि, उन्होंने ये कभी नहीं कहा कि वह राजनीति छोड़ेंगे. उन्होंने बस ये कहा कि वह एनसीपी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया. उन्होंने स्पष्ट किया कि वह राज्यसभा में हैं तो अगले तीन साल रहेंगे और सक्रिय तौर पर रहेंगे. तो, प्रश्न यह उठता है कि सिर्फ एनसीपी की कमान छोड़ने से क्या होगा?
एक उदाहरण से इसे समझना चाहिए. कभी एक जमाने में बीजू पटनायक ने ऐसा ही किया था. वह ओडिशा के बहुत बड़े नेता थे. उन्होंने भी ऐसा ही किया था. और भी जो बड़े नेता होते हैं, वे थोड़ा सा पार्टी की लाइन और लेंग्थ दुरुस्त करने के लिए ऐसे कुछ कदम करते हैं. एनडीए की सरकार में अटलजी के स्वास्थ्य को लेकर बहुत अटकलबाजी हुई थी. तब उन्होंने भी ये कह दिया था कि अगर लोगों के मन में शंका है, तो वह त्यागपत्र देंगे. हालांकि, अटलजी ने रिजाइन तो नहीं किया, उन्होंने अपना प्रसिद्ध डायलॉग 'न टायर हूं, न रिटायर हूं' दिया था. तो, पवार के फैसले को भी इसी बैकग्राउंड में देख सकते हैं. पार्टी को इकट्ठा रखना, पार्टी में डिसिप्लिन कायम रखना और पार्टी पर नई कलई चढ़ाना यानी गैल्वनाइज करना ही उद्देश्य है. यहां अगर कांग्रेस को देखेंगे तो जब-जब कांग्रेस में कुछ ऐसा हुआ है, तो एक नयी ताकत का जन्म हुआ है. जब इंदिरा गांधी के समय पार्टी में विभाजन हुआ तो वह बहुत मजबूत बन कर उभरीं. शरद पवार के फैसले के पीछे, 2024 के इलेक्शन के पहले सारी विपक्षी पार्टियों को यह भरोसा दिलाना कि एनसीपी में सब ठीक है, भी एक कारण है.
पूरी योजना के साथ चले हैं पवार
अगर पवार के भाषण को देखें तो उन्होंने पूरा लिखित भाषण दिया. इस्तीफे के बाद क्या करना है, एक कमेटी बनानी है जो नए अध्यक्ष का चुनाव करेगी. यानी, उनका निर्णय किसी हवाबाजी में, आवेश में या भावना के आवेग में नहीं हुआ है. जो कुछ भी उन्होंने किया है, वह बहुत सोच-विचार कर और योजना के साथ किया है. इसीलिए उनके भाषण में कल क्या करना है, इसके भी पूरे दिशा-निर्देश हैं. एक बात जो आ रही है कि शरद पवार राष्ट्रीय राजनीति में जाएंगे, तो वो भला कब राष्ट्रीय राजनीति में नहीं थे? यह तो कहना ही गलत है. वह तो पीवी नरसिंहराव के समय से ही राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय थे. वह तो पीएम पद के उम्मीदवार भी थे उस समय.
रही बात तीसरे मोर्च या विरोधी दलों की राजनीति की, तो उसमें भी वह सक्रिय रहे हैं. उनके घर में भी कई मीटिंग हो चुकी है. 2024 में बीजेपी की ताकत को रोकने के लिए, विरोधी दलों को खड़ा करने का प्रयास वह लगातार कर ही रहे हैं. वह हमेशा न्यूनतम साझा कार्यक्रम की भी बात कर रहे हैं, ताकि आगे चलकर विरोधियों के पास कोई अजेंडा नहीं है, ऐसा कोई नहीं कह सके. उनके साथ सीताराम येचुरी हैं, कपिल सिब्बल हैं, राहुल गांधी और खरगे भी उनसे मिल चुके हैं. विभिन्न दलों की बातों को लेकर एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बनाने की उनकी योजना है, वह उस पर काम कर रहे हैं. एनसीपी इस वजह से छोड़ा, इस बात में कोई दम नहीं है. राष्ट्रीय राजनीति में उनका एक दबदबा है, वह रहेगा ही. जो वह कर रहे हैं, वह भी चलेगा ही.
महाराष्ट्र की राजनीति को तर्क से समझिए
कुछ चीजों को तार्किक तरीके से देखना पड़ेगा. अगर अजीत पवार को मुख्यमंत्री बनना है तो क्या बीजेपी उनको बनाएगी? महाराष्ट्र की राजनीति में जो चीफ मिनिस्टरशिप है, वह तो बीजेपी अपना ही चाहेगी. एकनाथ शिंदे वाला जो प्रयोग है, उसे तो अजीत पवार के साथ नहीं दुहराया जा सकता है. एकनाथ शिंदे एक जिले या शहर के बाहर प्रभाव नहीं रखते. अजीत पवार बड़े नेता हैं. वह बीजेपी के साथ जाकर अपना नुकसान नहीं करेंगे. इस तरह के सारे अनुमान बहुत काल्पनिक हैं, कल भी अजीत पवार ने काफी गुस्से से दोहराया है कि वह एनसीपी छोड़कर कहीं नहीं जा रहे हैं. वैसे, तो राजनीति में कुछ भी कभी भी हो सकता है, लेकिन फिलहाल ये संभव नहीं दिखता.
दूसरी बात ये है कि शिंदे गुट और बीजेपी की सरकार जो है, वह बहुत बैकफुट पर है. जनता में जबर्दस्त गुस्सा है. अभी कृषि उपज बाजार समिति के चुनाव में जनता ने वर्डिक्ट भी दिया है. महाराष्ट्र में उससे आप राजनीति का ताप नाप सकते हैं. उस चुनाव में महाविकास अघाड़ी ने 148 में 90-92 पर कब्जा किया है. तो, कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना के उद्धव गुट को पता है कि एक रहेंगे, तभी सत्ता में आएंगे. अभी आप देखिए, पुणे के उपचुनाव में कांग्रेस विजयी हुई है. वहां लगभग तीन दशकों से भाजपा ही थी. अजीत पवार भी राजनीति को समझते हैं, वह अभी बीजेपी के साथ जाकर क्या पाएंगे और क्यों जाएंगे? राजनीति वैसे भी हमेशा वन प्लस वन बराबर टू तो होता नहीं है. कल को जो भी हो, लेकिन फिलहाल तो अजीत पवार के जाने के कोई लक्षण नहीं दिखते. अब पवार आगे चलकर बताएंगे कि पार्टी का संचालन कैसे करना है, वह कहीं जानेवाले नहीं हैं. अध्यक्ष रहें या न रहें, पार्टी वही चलाएंगे.
बीजेपी अभी तेल देखेगी, तेल की धार देखेगी
अभी जो गठबंधन महाराष्ट्र में सत्ता में है, वह अवैज्ञानिक है. आपको चंद्रशेखर जी के जमाने की केंद्र सरकार याद करनी चाहिए. उनके 40 सांसद थे और 200 सांसद उनको बाहर से सपोर्ट कर रहे थे. यहां एक अंतर है कि बीजेपी सरकार में है, शिंदे नाममात्र के मुख्यमंत्री हैं. हालांकि, बीजेपी को यह व्यवस्था भी रास नहीं आ रही है. हालांकि, दिक्कत ये है कि शिंदे के हटाने के बाद क्या वह गुट अस्तित्व में रहेगा? फिर, ये भी दिक्कत है कि जो 40 बाहर हैं, वे वापस जा सकते हैं. यह सत्ता की लड़ाई है, कोई विचारों की लड़ाई तो है नहीं. भाजपा के लिए यह जुआ बहुत कठिन है. इसलिए, कयास तो यही है कि बीजेपी 6-7 महीने निकाल कर लोकसभा के साथ ही महाराष्ट्र के चुनाव भी करवा दें और वे मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लडें, ताकि लोकल मुद्दे हावी न हों. विपक्षी दलों को भी यह भनक है और वो भी तैयारी में लगे हैं.
[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]