एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार के बयानों से विपक्षी एकता को फिर एक झटका लगा है. दरअसल, पवार ने हिंडनबर्ग रिपोर्ट पर की प्रमाणिकता पर ही सवाल खड़ा कर दिया. उन्होंने रिपोर्ट के आधार पर अडानी के कंपनियों पर उठे सवाल और उसकी जांच को लेकर कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों द्वारा संसद में जेपीसी की मांग को ही खारिज कर दिया. ऐसे में सावल है कि आखिरकार विपक्षी एकता की बात करने वाले शरद पवार ने ऐसा बयान क्यों दिया? पहली बात तो ये है कि एनसीपी चीफ शरद पवार ने जो बात कही कि जेपीसी के बजाय सुप्रीम कोर्ट ने जो जांच कमेटी गठित की है वो ज्यादा प्रभावी है. उन्होंने ये बात इसलिए भी कही है कि जेपीसी के जो प्रमुख होंगे सत्ता पक्ष के ही सांसद और उनकी संख्या बल भी अधिक होगी. अगर हम देखें तो यह पाते हैं कि वित्तीय मामलों में अब तक जितनी बार भी जेपीसी गठित हुई है चाहे वो हर्षद मेहता का मामला हो या दूसरे वित्तीय मामले रहे हों इन सभी मामलों में जेपीसी किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाई है. इसका उदाहरण बोफोर्स मामले में भी ले सकते हैं.


मेरे हिसाब से जेपीसी राजनीति करने का एक जरिया बन गया है. उसमें आरोप-प्रत्यारोप होते हैं. कई बार यह देखा गया है कि जेपीसी की रिपोर्ट सर्वसम्मति के आधार पर नहीं होती है. उसमें कई सांसद अपना अलग मत रखते हैं. ये बात शरद पवार की पूरी तरह से सही है कि जेपीसी के मुकाबले सुप्रीम कोर्ट की जांच समिति ज्यादा प्रभावकारी साबित होगी. ये बात इसलिए भी सही जान पड़ती है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने जो छह सदस्यीय जांच समिति गठित की है अडानी मामले को लेकर उसमें उसने सरकार की ओर से जो नाम पेशकश की जाने वाली थी या कहें कि सरकार ने नामों का सुझाव दिया था उनको सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरा दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था हम अपने तौर पर लोगों का चयन करेंगे और अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा ही किया. ये भी नहीं कहा जा सकता है कि उसमें सरकार के लोग शामिल हैं.

मुझे लगता है जहां तक शरद पवार के बयान का सवाल है तो उनके अपने दल के जो सांसद हैं वो जेपीसी की मांग को लेकर संसद में हो रहे हंगामें में भाग नहीं ले रहे थे. उससे यह स्पष्ट संकेत मिल रहा था कि इनका रूख कुछ और है. लेकिन ये उम्मीद नहीं की जा रही थी कि शरद पवार इस मुद्दे पर इतना खुल करके सामने आएंगे और वो आ गए. उन्होंने कुछ तार्किक बातें भी कही हैं. इससे हुआ क्या कि कांग्रेस और उसके कुछ साथी दल जो माहौल बना रहे थे, जो गुब्बारा फुला रहे थे वो पंचर हो गया. इससे अडानी को कितनी राहत मिली होगी ये कहना कठिन है लेकिन कांग्रेस की समस्या बढ़ गई है. क्योंकि शरद पवार की जो एनसीपी है राष्ट्रीय स्तर पर संप्रंग का एक हिस्सा है और महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी दल का एक हिस्सा है. कांग्रेस जो माहौल बना रही थी उसको उन्होंने किनारे कर दिया है. इसलिए कांग्रेस को उनका बयान रास नहीं आया और कहा कि ये उनका निजी बयान है. आम तौर पर ऐसी तब कही जाती है जब किसी दल का नेता कोई बयान देता है तो उस दल के प्रमुख या प्रवक्ता की ओर से यह कहा जाता है कि ये उनका अपना बयान है. ये पहली बार हुआ है कि जब दूसरे दल के नेता के बयान को कह रहे हैं कि ये उनका अपना निजी बयान है, इससे कांग्रेस की मुश्किल समझ में आता है.

अभी विपक्षी एकता को बनाने के लिए कई प्रयास हो रहे हैं. एक तरफ कांग्रेस अपने नेतृत्व में कई दलों को एकजुट करना चाहती है. एक तरफ ममता बनर्जी यह प्रयास कर रही हैं. केसीआर भी इस तरह का प्रयास कर रहे हैं. नीतीश कुमार भी अपने स्तर पर सक्रिय हैं. लेकिन विपक्ष पूरी तौर पर एकजुट नहीं हो पा रहा है. जैसे अडानी मामले में 18-19 दल हैं. जब ये आरोप लगाया गया कि केंद्रीय एजेंसियां सीबीआई और ईडी का दुरुपयोग किया जा रहा है तो उसमें 14 दल ही एक साथ आए. विभिन्न मुद्दों पर विपक्षी एकता अलग-अलग है. इसलिए विपक्षी एकता कोई आकार नहीं ले पा रही है. इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कई विपक्षी दल तो यह मान चुके हैं कि कांग्रेस और वो भी राहुल गांधी के नेतृत्व में बात बनती नहीं दिख रही है. इसलिए ममता बनर्जी और केसीआर जैसे नेताओं ने अपनी अगल राह अख्तियार कर ली है. विपक्षी एकता के लिए कोई ठोस मुद्दा भी कांग्रेस और दूसरे दल जनता के समक्ष नहीं ला पा रहे हैं. उदाहरण के तौर पर ये अडानी मामला ही ले लीजिए. इस पर बहुत ज्यादा हो-हल्ला संसद के भीतर और बाहर हो रही है लेकिन जनता से इसका सीधा जुड़ाव नहीं है. जनता के लिए मुद्दा महंगाई है, बेरोजगारी है, किसानों का मुद्दा है और भी अन्य समस्याएं हैं.

दूसरी बड़ी बात यह है कि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल कोई नारेटिव नहीं दे पा रहे हैं. ऐसी कोई बात नहीं कह पा रही या लोगों से जुड़े मुद्दों को नहीं उठा पा रही है जिससे जनता का सीधा जुड़ाव है. वे समस्याएं तो गिना रहे हैं लेकिन उसका समाधान नहीं बता रही है. जनता ये चाहती है कि ये समस्या हैं देश में लेकिन इनका समाधान आपके पास क्या है. इन सारे सवालों का जवाब विपक्ष के पास नहीं है और जिस तरीके से 14 दलों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग को लेकर और सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका को ही खारिज कर दिया. ये भी उनके लिए एक बड़ा झटका है क्योंकि कायदे से ऐसी कोई याचिका दायर ही नहीं की जानी चाहिए थी. जिससे ये लगे कि जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं और उनके खिलाफ एजेंसियां जांच नहीं करें. भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच नहीं हो ऐसा मुद्दा जनता को तो बिल्कुल भी नहीं भाएगा. उनके मन में तो कहीं न कहीं ये भाव तो जगेगा कि भ्रष्टाचार के जिनके ऊपर आरोप हैं और उसकी जांच क्यों नहीं होनी चाहिए. विपक्षी एकता को पहले भी इस तरह से कई झटके लगे हैं और ये ताजा झटका शरद पवार के बयान से लगी है.


 [ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]