अडानी, जेपीसी, सावरकर पर अलग रुख, फिर भी शरद पवार विपक्षी एकता के लिए कांग्रेस को क्यों मानते हैं जरूरी?
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार का एक निजी समाचार चैनल के साथ इंटरव्यू सुर्खियों में हैं. इसमें शरद पवार ने हिंडनबर्ग-अडाणी प्रकरण, जेपीसी की मांग से लेकर विपक्ष की चुनावी रणनीति से जुड़े हर मुद्दे पर बेबाकी से अपनी बातें रखी.
सबसे ज्यादा चर्चा इस बात की हो रही है कि उन्होंने हिंडनबर्ग-अडाणी प्रकरण में कांग्रेस की जेपीसी की मांग से जुड़े मुद्दे पर अलग राय रखी है. इसके बावजूद उन्होंने एक बात कही है जो उनके राजनीतिक सूझबूझ और वक्त की जरूरत को ही दर्शाता है. उन्होंने कहा है कि विपक्षी एकता में कांग्रेस को नजरअंदाज करना सही नहीं है.
हम सब जानते हैं कि कांग्रेस पिछले कई दिनों से हिंडनबर्ग-अडाणी प्रकरण में संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी की मांग करते आ रही है. इस मुद्दे को कांग्रेस ने संसद के बजट सत्र में भी जोर-शोर से उठाई. बजट सत्र के दौरान इस मसले पर संसद के दोनों सदनों में कार्यवाही बाधित भी हुई.
दरअसल शरद पवार अपने बयान से जो बताना चाह रहे हैं कि वो उनके पुराने अनुभवों का ही लुब्ब-ए-लुबाब या निचोड़ है. उन्हें अच्छे से पता है कि जेपीसी में सत्ताधारी पार्टी के सदस्यों की संख्या ज्यादा होती है, वैसे में इसकी रिपोर्ट में सरकार को कटघरे में खड़ा करने का सवाल ही नहीं पैदा होता है. चाहे बोफोर्स तोप खरीद का मामला हो, या फिर हर्षद मेहता कांड, चाहे केतन पारेख से जुड़ा मामला या फिर सॉफ्ट ड्रिंक में पेस्टिसाइड का मामला..इसके अलावा 2 जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में भी जेपीसी का गठन किया गया था.
पुराने अनुभव यहीं बताते हैं कि जिन मामलों में भी विपक्ष की ये मंशा रही है कि वो जेपीसी के जरिए सरकार को घेर सकती है,ऐसा कभी नहीं हुआ है. मौजूदा वक्त में तो सरकार के पास संसद में संख्या बल विपक्ष से काफी ज्यादा है और यहीं बात शरद पवार जेपीसी की मांग अड़े विपक्षी पार्टियों को समझाना चाह रहे हैं.
शरद पवार ने उदाहरण देकर भी समझाया कि अगर अभी जेपीसी का गठन होता है और उसमें 21 सदस्य रहें, तो संख्या बल की वजह से 15 सत्ता पक्ष से होंगे और विपक्ष से महज 6 सदस्य होंगे. ऐसे में इस समिति की रिपोर्ट सरकार के पक्ष में ही आएगी, जैसा कि अमूमन होता है. हालांकि उन्होंने ये भी कहा कि हिंडनबर्ग अडाणी प्रकरण में जेपीसी की बजाय सुप्रीम कोर्ट की समिति ज्यादा उपयुक्त और प्रभावी होगी.
शरद पवार ने एक तरह से ये कहकर अडाणी समूह का बचाव भी किया है कि एक विदेशी कंपनी देश में स्थिति का जायजा लेती है, ऐसे में हमें यह तय करना चाहिए कि इस पर कितना ध्यान दिया जाना चाहिए.
अमेरिकी रिसर्च और खोजी कंपनी की अडाणी समूह पर रिपोर्ट 24 जनवरी को आई थी. उस रिपोर्ट के आए ढाई महीने होने जा रहा है. एनसीपी प्रमुख शरद पवार को ये बखूबी समझ आ गया है कि इस मसले पर जिस तरह से कांग्रेस हमलावर है, उससे विपक्ष को कोई ज्यादा फायदा नहीं हो रहा है. उसके विपरीत बीजेपी इस मुद्दे को देशहित और देश की संप्रभुता से जोड़ते हुए लोगों से भावनात्मक समर्थन हासिल करने में कामयाब होते दिख रही है और इसका फायदा बीजेपी को आगामी चुनावों में हो सकता है. यहीं बात शरद पवार समझाने की कोशिश में हैं.
शरद पवार को ये अच्छे से पता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी फिलहाल बहुत बड़ी राजनीतिक हैसियत रखने वाली पार्टी है. बिखरा विपक्ष राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी को चुनौती देने की स्थिति में कतई नहीं है. यही वजह है कि शरद पवार कहते हैं कि गैर बीजेपी सरकार तो कई राज्यों में है, राज्यों में बीजेपी को हराया भी जा सकता है और वो हार भी रही है. इसके लिए उन्होंने उदाहरण दिया कि केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, ओडिशा जैसे राज्यों में बीजेपी की सरकार नहीं है. उन्होंने तो ये भी कहा कि मई में होने वाले चुनाव में कांग्रेस कर्नाटक में सरकार बनाने जा रही है.
इसके बावजूद शरद पवार ने अपनी बातों से साफ कर दिया कि 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को चुनौती देनी है तो एकजुट विपक्ष के अलावा कोई विकल्प नहीं है. शरद पवार को ये भी अच्छे से पता है कि इस विपक्षी एकजुटता में कांग्रेस ही वो पार्टी है जो धुरी बन सकती है क्योंकि बाकी विपक्षी पार्टी जो राष्ट्रीय स्तर पर बिना कांग्रेस के विपक्षी एकता बनाना चाहते हैं, उन पार्टियों की राजनीतिक ज़मीन कमोबेश एक राज्य तक ही सीमित है. पिछले दो लोकसभा चुनाव में बहुत ही खराब प्रदर्शन के बावजूद सिर्फ कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी है, जिसका जनाधार (कम हो या ज्यादा) अभी भी राष्ट्रव्यापी है.
अगर हम ममता बनर्जी की बात करें तो उनका दायरा सिर्फ पश्चिम बंगाल तक है. इसी तरह से अखिलेश यादव और मायावती का दायरा लोकसभा में सीट जीतने के लिहाज से सिर्फ उत्तर प्रदेश तक ही सीमित है. नीतीश की जेडीयू और आरजेडी का प्रभाव के बाहर नहीं है. उसी तरह से के. चंद्रशेखर राव का रकबा तेलंगाना से आगे एक इंच भी नहीं है. डीएमके प्रमुख एम के स्टालिन सिर्फ तमिलनाडु में ही लोकसभा सीटों पर करामात दिखा सकते हैं. इसी तरह लोकसभा चुनाव के हिसाब से अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली और पंजाब से बाहर झाड़ू का अस्तित्व नज़र नहीं आ रहा है. कुछ ऐसा ही बीजेडी के नवीन पटनायक का भी हाल है, जिनकी राजनीति ओडिशा से शुरू होकर यहीं खत्म हो जाती है. कमोबेश एनसीपी और उद्धव ठाकरे का भी यही हाल है.
इन हालातों में सिर्फ कांग्रेस ही विपक्ष में एक ऐसी पार्टी है जिसका आधार अभी भी पैन इंडिया है. यहीं वजह है कि शरद पवार चाहते हैं कि 2024 में बीजेपी के खिलाफ विपक्षी एकता हो और उसमें कांग्रेस की भूमिका सबसे बड़ी हो.
विपक्षी एकता के सपने को वास्तविकता के धरातल पर उतारने के लिहाज से शरद पवार की एक और मंशा है. वो जानते हैं कि 2024 के लोकसभा चुनाव में जिस विपक्षी एकता की जरूरत है, वो सिर्फ कागज़ी नहीं होनी चाहिए क्योंकि बीजेपी को अगर टक्कर देनी है, तो हर तरीके से विपक्षी दल एकजुट दिखने चाहिए. यहीं कारण है कि शरद पवार कर रहे हैं कि विपक्षी एकता के लिए दो चीजें जरूरी हैं. पहली बात ये हैं कि बीजेपी की विचारधारा से विरोध रखने वाले सभी दल एक साथ आएं और दूसरी बात ये कि विपक्षी दल उन मुद्दों की भी पहचान करें, जिन पर विपक्षी दलों की एक राय हो.
इसके पीछे शरद पवार की ये मंशा है कि लोगों में ऐसा संदेश नहीं जाना चाहिए कि हम सिर्फ दिखावे के लिए एक साथ है. सभी विपक्षी दलों का चुनावी सुर भी एक होना चाहिए. मुद्दों को लेकर स्पष्टता होनी चाहिए. शरद पवार यही संदेश देना चाहते हैं कि अगर विपक्षी पार्टियां अपनी-अपनी सहूलियत से अलग-अलग मुद्दों पर अलग-अलर राग अलापेंगी, तो फिर वैसे में मजबूत बीजेपी के सामने विपक्षी एकता का कोई मायने नहीं रह जाएगा. अडाणी और सावरकर पर शरद पवार के बयानों से भी ये जाहिर होता है. वे बिल्कुल नहीं चाहते हैं कि जिन मुद्दों पर देश के लोगों का भावनात्मक झुकाव हो, उन मसलों को चुनावी राजनीति से दूर रखना ही विपक्षी एकता के लिए फायदेमंद है. अगर ऐसा नहीं होता है कि इसका सीधा लाभ बीजेपी उठाएगी.
शरद पवार बीजेपी विरोधी वोटों को विपक्ष के अलग-अलग खेमे में बंटने नहीं देना चाहते हैं. उन्हें ये एहसास है कि कांग्रेस के बग़ैर कोई भी विपक्षी मोर्चा बीजेपी की राहों में बाधा की बजाय कांटा कम करने का ही काम करेगा. उनकी बातों से ये भी झलकता है कि 2024 में बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी प्रकार की चुनौती देने के लिए कांग्रेस के साथ ही विपक्षी एकता का एकमात्र विकल्प बचा है. अगर ऐसा नहीं होता है तो केंद्र की राजनीति में बीजेपी के लिए सफर पहले से भी आसान हो सकता है. अभी जो राजनीतिक स्थिति है, उसमें कांग्रेस के बग़ैर विपक्षी दलों का कोई भी गठजोड़ बनता है, वो एक तरह से बीजेपी के लिए ही फायदेमंद ही साबित होगा, ये तय है.
(ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)