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शरद यादव: आंदोलन से निकले, मंडल विरोधियों के निशाने पर रहे, नायक के तौर पर बनाई पहचान

समाजवादी आंदोलन के साथ संयोग से जो नतीजे निकले हैं, उसमें शरद यादव एक श्रेष्ठ नेता के तौर पर राष्ट्र के सामने आए. वे जॉर्ज फर्निंडस के मार्ग दर्शन में अपनी एक खास जगह बनाई. उसके बाद मंडल आयोग के शिखर नायकों के तौर पर उनकी देश में एक पहचान बनी.

समाजवादी आंदोलन जिस दिशा में बढ़ रहा था, उसमें शरद यादव ने योगदान दिया. ये अलग बात है कि उनके नेतृत्व के काल में ही समाजवाद का बिखराव हुआ. जनता दल का बिखराव हुआ. लेकिन, उसके लिए उनको जिम्मेदार ठहराना अकेले गलत होगा. 

शरद यादव ने भारतीय लोकतंत्र में जो योगदान दिया वो अविस्मरणीय है. जबलपुर के एक छात्र नेता से लेकर चार दशकों तक एक महत्वपूर्ण नायकों के तौर पर राजनीति में जो जगह बनाई वो लोकतंत्र की जीवंतता की भी एक मिसाल है.

उनका जाना बहुत नुकसानदेह रहा है और उस खाली जगह को भरना बहुत कठिन  होगा. शरद यादव की अपनी स्वीकृति थी. 1990 के बाद की राजनीति में अपने को एक महत्वपूर्ण नायकों के रूप में स्थापित किया. बिहार और उत्तर प्रदेश में उनकी काफी लोकप्रियता बढ़ी. ये भी नई राजनीति की एक खूबी थी की एमपी के एक छात्र नेता को बिहार और यूपी ने अपना नेता बनाया और वे देश की शीर्ष नेता के तौर पर चुने गए.

शरद यादव एक कद्दावर शख्सियत

शरद यादव ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत साहस और जोखिम से की थी. 1974 में वे जेल में थे और उनको जनता उम्मीदवार के तौर पर जयप्रकाश ने घोषित किया. समाजवादी जनसभा के प्रतिनिधि के रूप में वे बाद में जनता परिवार के युवा नायकों में सबसे आगे बढ़े. उनको अपनी बातों को टिके रहने के लिए जाना जाता था. वे लोकप्रियता की बहुत परवाह नहीं करते थे. 

जो उन्होंने सही समझा उसे दो टूक शैली में कहा. यही वजह थी कि मंडलविरोधियों ने अपने निशाने पर लिया. इससे उनकी छवि बेहतर बनी. जो संसदवादी राजनीति के समझौते की विवशता होती है, उसकी उन्होंने कभी उपेक्षा नहीं की. इसलिए वे मुख्यधारा की राजनीति में बने रहने में सफल रहे, जो उनकी पीढ़ी के अनेकों नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए संभव नहीं रहा.

लोहिया की विचारधारा जाति के खिलाफ

लोहिया की विचारधारा का एक राजनीतिक पक्ष जनतंत्र का विकेन्द्रीकरण था. लेकिन वो लगातार कमजोर हो रही है. कोई भी नेता या राजनीतिक दल विकेन्द्रीकरण नहीं चाहता. लोहिया जाति तोड़ो आंदोलन के नायक थे. कुछ हद तक शुद्र जातियों में जातियों को लेकर जो गुस्सा है, वो लोहिया को प्रासंगिक बनाए हुए हैं. जाति जोड़ो की जहां तक बात है, वहां तक तो लोग लोहिया की नीति को स्वीकार करते हैं. लेकिन जब जाति तोड़ो की तरफ आंदोलन को तोड़ना चाहिए तो बैकवर्ड वाले हों, फॉरवर्ड वाले हों, शुद्र या दलित वाले हों, वो ठिठक जाते हैं.

लोहिया की भी सामाजिक नीति को आधा-अधूरा स्वीकार किया गया. उनकी सांस्कृतिक नीति भाषा का स्वराज की थी. अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के वो जनक थे. लेकिन आज भूमंडलीकरण के दौर में बिना अंग्रेजी के आप के दरवाजे बंद रहेंगे. पहले तो देश के दरवाजे बंद थे ही, आज विश्व के दरवाजे बंद रहेंगे.

जहां तक अर्थनीति का सवाल है तो लोहिया ने बेरोजगारी उन्मूलन की योजना के लिए भूमि सेना, साक्षरता सेना जैसी योजनाएं रखी थी. लोहिया के अनुयायी जब सरकारों में आए तो लोहिया की आर्थिक नीति के बारे में उनके मन में संशय का भाव रहा. इस मायने में आज लोहिया अप्रासंगिक तो नहीं हैं लेकिन उनके साथ अपना संबंध बनाना बहुत कठिन है. इसलिए ज्यादातर लोग लोहिया की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक नीतियों की अपनी-अपनी सुविधा के साथ इस्तेमाल करते हैं.

शरद की विरासत

शरद की विरासत की बात करें तो उसमें सत्ता संचालन की बजाय आंदोलन संचालन में जो उनकी भूमिका था वो ज्यादा टिकाऊ रहेगी. वे इमरजेंसी के दौरान तब तक जेल में रहे जब तक इमरजेंसी की ताकतों को एक तरह से चुनौती दिया, झुकना नहीं सीखा. मंडल आयोग का भी जो नेतृत्व उन्होंने किया, उस नीति के कार्यान्वयन में भी रामविलास पासवान, नीतीश कुमार, लालू यादव और मुलायम सिंह यादव के साथ शरद यादव शिखर पुरुष के तौर पर स्थापित हुए.    

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]        
      

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