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शिखा , मानसी और पारुल ....हमें माफ मत करना
पूरे देश को शिखा, मानसी और पारुल से माफी मांगनी चाहिए. प्रधानमंत्री मोदी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को इन बहनों के घर जाना चाहिए . दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को इस्तीफा देना चाहिए. संसद में आज कायदे के कोई काम नहीं होना चाहिए था. आज सिर्फ और सिर्फ शिखा, मानसी और पारुल की भूख से हुई मौत पर चर्चा होनी चाहिए थी. लेकिन संसद में अन्य कुछ मसलों पर बयान दर बयान होते रहे. दुष्यंत कुमार का शेर खूब याद आया.
भूख लगी है तो सब्र कर, रोटी नहीं है तो क्या हुआ
आज दिल्ली में है जेरे बहस मुद्आ.
देश की राजधानी दिल्ली में उपमुख्यमंत्री के विधानसभा इलाके में तीन बहनों की भूख से मौत हो गई. दो-दो बार हुई पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि तीनों बहनों के पेट में न तो अन्न का एक दाना मिला और न ही शरीर में फैट (वसा). जिस देश में करोड़ो रुपये का गेहूं सरकारी गोदामों में चूहे खा जाते हैं उस देश की राजधानी में तीन बहनों की भूख से मौत एक क्रूर मजाक से कम नहीं. जिस देश में हर साल डेढ़ लाख करोड़ रुपए भोजन के अधिकार पर खर्च करने के दावे किए जाते हों उस देश में तीन बहनें सात आठ दिनों से भूखी रह रही हों.... यह पूरे सिस्टम पर तमाचा है . धूमिल की कविता याद कीजिए.
एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न खाता है
वो रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं यह तीसरा आदमी कौन है
मेरे देश की संसद मौन है .
नहीं देश की संसद मौन नहीं है. मौन होती तो भी माफ किया जा सकता था. देश की संसद चीख चिल्ला रही है, सांसद संसद के कुएं में उतर कर नारेबाजी कर रहे हैं. इतना शोर है कि कुछ पता ही नहीं चलता कि आखिर बहस हो रही है तो किस विषय पर हो रही है. ऐसे में कौन उठाए शिखा , मानसी और पारुल की भूखे पेट की आवाज.... किसे सुनाई देगी तीनों मासूमों की तड़पती हुई चीखें.... कौन सुध लेगा जब मुख्यमंत्री और गर्वनर को एक दूसरे पर आरोप लगाने से फुर्सत ही नहीं मिल रही हो. दरवाजे दरवाजे तक अन्न पहुंचाने की योजना फाइलों में ही घूमती रह गयी, फाइलों पर नोटिंग पर नोटिंग होती गई और इस बीच शिखा, मानसी और पारुल की भूख से मौत हो गई.
देश में भोजन का अधिकार लागू है. दिल्ली में भी यह कानून लागू है. इस अधिकार के तहत देश की 67 फीसद आबादी यानि करीब 82 करोड़ जनता को हर महीने पांच किलो गेहूं दो रुपये किलो के हिसाब से और चावल तीन रुपए किलो के हिसाब से देने का अधिकार दिया गया है. शहरों की पचास फीसद और गांवों की 75 फीसद आबादी इस अधिकार के तहत आती है. सवाल उठता है कि दिल्ली शहर की 50 फीसद ऐसी आबादी में शिखा, मानसी और पारुल क्यों शामिल नहीं थी. उनका कार्ड क्यों बनाया नहीं गया था. अगर बना था तो क्यों उनको राशन नहीं मिल सका. इसके लिए कौन जिम्मेदार है. अगर शिखा, मानसी और पारुल के पिता को इस बात का इल्म नहीं था कि ऐसा कोई भोजन का अधिकार देश में लागू है जिसका फायद उठाकर वह अपनी बच्चियों को भूख से मरने से बचा सकता है तो फिर सोशल मीडिया और प्रचार प्रसार के महारथियों के लिए और भी ज्यादा शर्म की बात है.
शिखा आठ साल की थी. मानसी चार साल की थी और पारुल महज दो साल की थी. आंकड़े बताते है कि देश में पांच साल से कम उम्र के करीब 15 लाख बच्चे हर साल कुपोषण के कारण मर जाते हैं. यानि 4500 बच्चों की मौत रोज होती है. इनमें से एक तिहाई को बचाया जा सकता है अगर रात को सोते समय इनका पेट भरा हो. देश दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का दावा करने वालों से पूछा जाना चाहिए कि जिस देश की राजधानी में संसद से कुछ किलोमीटर की दूरी पर शिखा, मानसी और पारुल की भूख से मौत हो जाए वहां पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की खुशी मनाई जानी चाहिए या फिर तीन बहनों की मौत पर मातम किया जाना चाहिए.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
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