भोपाल में जंबूरी मैदान सज गया है. इस विशाल मैदान पर विशाल तंबू तन गया है. यहां रविवार को प्रदेश भर से हजारों बहनें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का जन्मदिन मनाने और मुख्यमंत्री लाडली बहना योजना के लिए धन्यवाद देने आएगी. लाडली बहना योजना को लेकर भोपाल के चौराहों होर्डिंग्स टंग गए हैं. अखबारों में गुणगान होने लगा है. महिलाओं को हर महीने दिये जाने वाले हजार रुपये दी जाने वाली इस खास योजना के. कोई इसे चुनावी साल में शिवराज सरकार में सत्ता में वापसी के लिए मास्टर स्टोक बता रहा है तो कोई इसे लाडली लक्ष्मी योजना जैसी सुपर हिट योजना बता रहा है. मगर इस योजना की चर्चा एक मार्च से हो रही है जब मध्य प्रदेश विधानसभा में शिवराज सरकार का बजट आया. दरअसल बजट में ही इस महत्वाकांक्षी योजना के लिए सरकार ने आठ हजार करोड का प्रावधान रखा गया है.
वित्त मंत्री के बजट भाषण में नारी शक्ति नाम पर रखे गए खंड में लाडली बहना योजना के आठ हजार करोड रूपये के साथ हुये मुख्यमंत्री लाडली लक्ष्मी योजना, प्रसूति सहायता योजना, कन्या विवाह और निकाह योजना के साथ ही विभिन्न सामाजिक पेंशन योजना में कुल एक लाख दो हजार नौ सौ छियत्तर करोड के प्रावधान हैं. महिलाओं के रखे गए ये पैसे पिछले बजट में रखे गये पैसों के मुकाबले बाइस प्रतिशत अधिक हैं. अंदाजा लगाइये कि तीन लाख चौदह हजार पच्चीस करोड रुपये के कुल बजट में एक लाख करोड से ज्यादा की राशि महिला और उनसे जुडी योजनाओं पर सरकार खर्च करने जा रही है. यानी कि आने वाले साल में कुल बजट का एक तिहाई हिस्सा महिलाओं से जुडी योजनाओं पर खर्च करने की सोची है शिवराज सरकार ने.
सरकार महिलाओं के लिए सोचे अच्छी बात है महिलाएं समाज की आधी आबादी हैं. उनके उत्थान के लिये प्रयास होते रहने चाहिए. मगर चुनावी साल में शिवराज सरकार की महिलाओं से जुडी योजनाओं में खर्च होने वाली ये बडी रकम इशारा कर रही है कि शिवराज का आने वाले चुनाव में फोकस अब महिला वोटर ही होगा. प्रदेश के कुल पांच करोड 39 लाख वोटरों में दो करोड साठ लाख वोटर महिलाएं ही हैं. महिलाओं में शिवराज की लोकप्रियता हमेशा से रही है. फिर चाहे वो अल्पसंख्यक वर्ग की महिला वोटर ही क्यों ना हों. हर चुनाव में महिला वोटरों का प्रतिशत बीजेपी को बढकर मिला है और इसकी वजह शिवराज सिहं का चेहरा ही है. जानकारों का मानना है कि इस बार मध्य प्रदेश में चुनाव बीजेपी के लिये कठिन है. 2018 के चुनाव में बीजेपी और कांगेस के वोट प्रतिशत में सिर्फ आधे फीसदी का ही अंतर था. इस अंतर को बीजेपी के पक्ष में बढाने के लिए बीजेपी संगठन के नेता आने वाले चुनाव में 51 फीसदी वोट का लक्ष्य तय कर बैठे तो है मगर उनको भी मालूम है जिस राज्य में अल्पसंख्यक, आदिवासी और दलित वोटरों का बडा वर्ग हो वहां बीजेपी आरामदायक हालत में नहीं रह सकती.
वैसे भी दो पार्टी वाले राज्य में बीजेपी कांग्रेस का मुकाबला हमेशा करीबी होता है. इन सारे समीकरणों को ध्यान में रखकर शिवराज सरकार ने पहले ओबीसी वोटरों को साधना चाहा, नगरीय चुनावो में ओबीसी आरक्षण के साथ किसी तरह चुनाव कराए मगर ओबीसी के 27 फीसदी आरक्षण की मांग पर मामला फंसा है. ओबीसी के बाद आदिवासी वोटर में पैठ बढाने शिवराज सरकार ने पेसा कानून को जमीन पर उतारने के लिए जी जान लगा दी. इसके अलावा आदिवासी नेताओं का महिमामंडन कर उनके नाम की जयंती मनाने के अभियान चलाए और धर्मांतरण वाले आदिवासी आरक्षण का फायदा क्यों उठाये इस पुरानी मांग को हवा दी है. शिवराज के लिए दलित वोटरों को साधना भी आसान नही है पिछली बार ग्वालियर चंबल के दलित कांग्रेस के पक्ष में आए ओर उनकी सीटें बढा दी इस बार बीजेपी दलितों में पकड बनाने संत रविदास का सहारा ले रही है रविदास की जयंती बडे स्तर पर मनायी और सागर में उनका विशाल स्मारक बनाने का वायदा कर दिया. मगर इतना सब करने के बाद भी सोलह साल के मुख्यमंत्री और अठारह साल वाली बीजेपी की सरकार जीत के प्रति आश्वस्त नहीं दिख रही. इसलिए शिवराज बेक टू बेसिक्स यानी कि अपनी पिच पर वापस लौटे हैं. इस चुनावी साल में अब शिवराज अपनी सारी ताकत अपने परंपरागत वोट बैंक यानी कि महिलाओं पर लगा रहे हैं।
राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई भी मानते हैं कि महिलाओं की उत्थान की योजनाएं सरकारों को चलाना चाहिए है मगर ये योजनाएं सिर्फ खातों में पैसा डालने की जगह उनकी आत्मनिर्भरता से जुडी हो तो बेहतर होता. वैसे भी प्रीवी या लोकलुभावन योजनाओं से हर बार वोट नहीं मिलते. दक्षिण के राज्यों में हमेशा से चुनावी साल में वोटरों के घर भरने की योजनाएं चलती हैं मगर इसके बाद भी वहां लगातार सरकारें बदलती है. यही बात वर्तमान सरकार की भी चिंता का विषय है. चुनावी साल में शुरू की गयी योजनाओं को वोटो में बदलने का प्रतिशत कम ही रहता है ये चुनावी इतिहास बताता है. अब देखना ये है कि आठ मार्च यानी कि महिला दिवस से शुरू की जाने वाली लाडली बहना योजना बीजेपी की सरकार में पांचवी बार वापसी का कारण बनेगी या फिर सिर्फ चुनावी झुनझुना साबित हो कर रह जाएगी पिछले चुनाव के पहले शुरू की गयी संबल योजना की तरह.
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