दो बयान जिनमें से एक लार्सन एंड टुब्रो (L&T) के चेयरमैन एस.एन. सुब्रमण्यन का. इसमें उन्होंने कहा कि प्रत्येक कर्मचारी के लिए रविवार सहित 90 घंटे का साप्ताहिक काम होना चाहिए और दूसरा इंफोसिस के नारायण मूर्ति का, जिसमें उन्होंने कहा कि यह 70 घंटे होना चाहिए. उनके इन बयानों ने भारतीय राजनीतिक-आर्थिक परिदृश्य को हिलाकर रख दिया है, जो 44 श्रम कानूनों को लगभग समाप्त कर दिए जाने के बाद भी कॉर्पोरेट द्वारा नौकरियां पैदा करने की अनिच्छा को दर्शाता है. इन कानूनों की जगह लेने वाले चार श्रम संहिताएं बेकार हैं. 


सुब्रमण्यन का कहना है कि हर किसी को प्रतिदिन 15 घंटे काम करना चाहिए, जो कि शिकागो के स्वीकृत आठ घंटे के मॉडल से लगभग दोगुना है. दूसरे शब्दों में, उन्हें एक भुगतान पाने के लिए लगातार दो शिफ्टों में काम करना चाहिए. मूर्ति ने 10 घंटे के दैनिक शेड्यूल की परिकल्पना की है. उनका कहना है कि युवाओं के जीवन और परिश्रम की कीमत पर ही राष्ट्र महान बनेगा. 


ये दोनों ही बयान निंदनीय है, क्योंकि यह लोगों से आठ घंटे की नींद और आठ घंटे के निजी और सामाजिक समृद्धि के अधिकारों को छीन लेते हैं. यह सरकार की मिलीभगत या कॉर्पोरेट की सनक के आगे झुकने की उसकी मजबूरियों को भी उजागर करता है, जो मुनाफे की परवाह करते हैं, लेकिन श्रमिकों के कल्याण की नहीं. 


हैरानी की बात है कि सरकार से कोई भी लाड़-प्यार से पाले गए कार्पोरेट मुखियाओं का मुंह बंद करने के लिए जवाबी हमला नहीं करता. लोकतंत्र में दोनों कैसे श्रमिकों की अनदेखी कर सकते हैं? सालों से सबसे बेतहासा लगाता अनेकों घंटों का काम, कम वेतन और मुश्किल कामकाजी परिस्थितियों का मजदूर सामना कर रहे हैं. उन्हें दिन-रात, यहां तक ​​कि अपने घरों से भी काम करने के लिए मजबूर  है. कंपनियां उनके घर की जगह का इस्तेमाल भी ऑफिस के काम के लिए करती हैं, उनकी गृह शांति को भंग करती हैं.  लेकिन कम्पानियां उन्हें घर की जगह, बिजली या अन्य सुविधाओं का इस्तेमाल करने के लिए कभी भुगतान नहीं करती हैं. कुछ कंपनियां तो उनके घरों की गोपनीयता भंग करते हुए में उनकी निगरानी के लिए कैमरे भी लगाती हैं. 




यह बहुत कुछ उजागर करता है. न केवल काम करने की गंभीर स्थिति बल्कि देश में रिक्तियों की कमी भी, जबकि वास्तव में ये नौकरिया हैं. भारत सभी क्षेत्रों में नौकरियां खो रहा है, श्रमिकों को जीवित रहने के लिए अमानवीय परिस्थितियों को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. मूर्ति और सुब्रमण्यन के बयानों से रोजगार सृजन के प्रति कॉर्पोरेट उदासीनता भी उजागर होती है. वे यह छिपाने की कोशिश कर रहे हैं कि जहां उन्हें कर्मचारियों की संख्या दोगुनी करनी है, वहां वे मजदूरों को दुगना काम करने के लिए बाध्य कर रहें है. 


इसका तात्पर्य है कि उतनी संख्या में लोगों को रोजगार नहीं मिल पा रहा है. श्रम मंत्रालय को मूर्ति और सुब्रमण्यन पर मुकदमा चलाने के लिए स्वतः संज्ञान लेना चाहिए था, क्योंकि उन्होंने ऐसी अस्वस्थ स्थिति पैदा की है, जिससे न केवल नौकरियां छिन रही हैं, बल्कि आवश्यक लोग भी अवांछित हो रहे हैं. 


यह देश और सरकार के खिलाफ एक कदम है, जो सामाजिक और आर्थिक स्थितियों में सुधार के लिए अधिक से अधिक नौकरियां पैदा करना चाहती है. यह बजट 2024 की प्रक्रिया को नकारने का एक वास्तविक कदम है, जिसमें नौ आधारभूत स्तंभों - कृषि, रोजगार, समावेशी विकास, विनिर्माण और सेवाएं, शहरी विकास, ऊर्जा, बुनियादी ढांचा, नवाचार/अनुसंधान और विकास, और अगली पीढ़ी के सुधारों पर आधारित एक व्यापक रणनीति का अनावरण किया गया है. 


पूर्व बैडमिंटन स्टार ज्वाला गुट्टा ने एलएंडटी के चेयरमैन सुब्रमण्यन की इस टिप्पणी की आलोचना की है कि वे अपने कर्मचारियों से रविवार को भी काम करवाना चाहते हैं. सुब्रमण्यन की टिप्पणी तुरंत वायरल हो गई, गुट्टा ने बताया कि यह दुखद है कि लोग मानसिक स्वास्थ्य और आराम को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं.


गुट्टा सही हैं. कोई कंपनी मालिक राष्ट्र के हित के खिलाफ कैसे बोल सकता है. जब से मनमोहन सिंह उदारीकरण और वैश्वीकरण की शुरुआत करते हुए वित्त मंत्री बने, तब से देश में नौकरियां कम हो रही हैं. 1991 में ही बेरोज़गारी दर 6.9 प्रतिशत तक पहुंच गई थी.


अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के एक नए अध्ययन ने अभी-अभी उस बात की पुष्टि की है जिसका हमें पहले से ही संदेह था. नब्बे के दशक में भारत की उल्लेखनीय वृद्धि, जिसे व्यापक रूप से सुधार वर्ष माना जाता है, ज्यादातर बेरोज़गारी वाली रही है. उस अवधि में, भारत के रोज़गार की दर अर्थव्यवस्था की दर से कहीं अधिक धीमी गति से बढ़ी.


क्या मूर्ति और सुब्रमण्यन चाहते हैं कि देश लगातार बेरोज़गारी के माहौल में फंसा रहे? ऐसा प्रतीत होता है कि ये दोनों, जो अपने जैसे कई अन्य लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आसन्न पूर्ण बजट को बाधित करना चाहते हैं, जिसका उद्देश्य वित्तीय वर्ष 2026 में भारत की आर्थिक वृद्धि को वित्त वर्ष 25 में अपेक्षित 6.3 प्रतिशत से बढ़ाकर 7 प्रतिशत करना है, जैसा कि एसबीआई म्यूचुअल फंड की रिपोर्ट में परिकल्पना की गई है. बजट में मांग को बढ़ावा देने और देश की आर्थिक चुनौतियों का समाधान करने के लिए राजकोषीय और मौद्रिक नीति में बदलाव लाने की उम्मीद है. क्या कंपनिया इस प्रक्रिया को पटरी से उतारने की कोशिश कर रहे हैं? 




सरकार को सावधानी से कदम उठाना होगा. यह गंभीर वित्तीय संकट का सामना कर रही है. उधारी बढ़ रही है. इसे टाला जा सकता था. सरकार उधर और अनावश्यक खर्च प्रति वर्ष बचाने के लिए रेलवे स्टेशनों, कार्यालय भवनों आदि के विध्वंस और पुनर्निर्माण को टाल सकती थी. इसके बजाय, यह 150 साल पुराने मजबूत रेलवे स्टेशनों को मरम्मत करा सकती थी. इससे गंभीर मुद्रास्फीति हो रही है, जो सरकार की अपनी गतिविधियों पर एक और अप्रत्यक्ष भार है. आर्थिक नीति संस्थान के अनुसार, प्रारंभिक जोखिम में कॉर्पोरेट मुनाफा एक प्रमुख कारक था , मुद्रास्फीति में वृद्धि. 


गैर-वित्त कॉर्पोरेट क्षेत्र में, कॉर्पोरेट मुनाफे ने 2020 और 2021 के बीच मूल्य वृद्धि के आधे से अधिक के लिए जिम्मेदार ठहराया. 2024 की दूसरी तिमाही में भी, कॉर्पोरेट मुनाफे 2019 के अंत से मूल्य स्तर में वृद्धि का लगभग एक तिहाई हैं. पिछले चार वर्षों में कॉर्पोरेट मुनाफे में जीडीपी वृद्धि की तुलना में 3.5 गुना अधिक तेजी से वृद्धि हुई है. हालांकि, कर्मचारियों के वेतन में मुद्रास्फीति के समान दर से वृद्धि नहीं हुई है. कॉर्पोरेट मुनाफे की अनदेखी से गरीबों को जीवित रहने के लिए संघर्ष करना पड़ा है. आवास, स्वच्छ पानी, पौष्टिक भोजन और स्वास्थ्य सेवा जैसी बुनियादी ज़रूरतें कई लोगों की पहुंच से बाहर हैं. परिवार आवश्यक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ऋण पर निर्भर होते जा रहे हैं. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल और ग्रेड रिस्पांस (प्रदूषण) -ग्रेप - एक्शन प्लान के माध्यम से कुटिल तरीके भी नौकरियों और धन को लूटा जा रहा हैं,  जैसे कि कार और ट्रैक्टर के जबरन scrap करना बड़ी कंपनियों को लाभ पहुंचा रहे हैं. 


 सरकार को इन मुद्दों में हस्तक्षेप कर सिस्टम को सही करना चाहिए. प्रत्येक मूल्य वृद्धि सरकारी वित्त पर एक बोझ है, क्योंकि सरकार ही सबसे बड़ा उपभोक्ता भी है. यह कॉरपोरेट को बुनियादी श्रम नियमों का पालन करने और मनमाने ढंग से छंटनी बंद करने के लिए कहने का भी एक अवसर है, जो कि ज़्यादातर जबरन इस्तीफ़े के ज़रिए होती है. थोड़ी सी सख्ती कई परिदृश्यों को ठीक कर सकती है और आधिकारिक व्यवस्था से दोष हटा सकती है.


इससे सरकार को एक आकर्षक राजनीतिक चेहरा बनाने और अधिक लोकप्रियता हासिल करने में मदद मिल सकती है. एक छोटे से झटके से सरकार न केवल रोज़गार परिदृश्य को ठीक कर सकती है, बल्कि कम्पनिओं के असाधारण मुनाफ़े को रोक सकती है. इससे लोकप्रियता की रेटिंग बढ़ेगी और विपक्ष को आलोचना के मौका  भी नहीं मिलेगा.


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]