एक्सप्लोरर

कुछ विचार, कुछ संदेहः क्या चीन के नाम होगी यह सदी

दुनिया के तमाम लोगों के मन में यह राजनीतिक सवाल उठ रहा है कि क्या कोरोना महामारी का दौर खत्म होने के बाद, इस सदी के तीसरे दशक में चीन विश्व की सबसे बड़ी ताकत बन जाएगा.

कुछ दिन पहले इंडियन एक्सप्रेस के एक वैचारिक आलेख में मैंने 2020 को ‘अमेरिका के लिए अपना हिसाब-किताब करने’ का बरस बताया था. बीती आधी सदी में दुनिया की तमाम जगहों पर अमेरिका द्वारा छेड़े गए युद्ध उसके लिए अच्छे साबित नहीं हुए. अमेरिका को सामान्य शिकायत रही कि उसे वियतनाम में कम्युनिस्टों के खिलाफ मजबूरन युद्ध में उतरना पड़ा, जिसमें उसका एक हाथ हमेशा पीछे बंधा रहा. क्रूर हकीकत यह है कि वियतनामियों ने अपने सीमित हथियारों के बावजूद अमेरिका के विरुद्ध जबर्दस्त संघर्ष किया और अपने शत्रु को अपमानजनक ढंग से नीचा दिखाया, भले ही इसमें उन्हें बड़ी संख्या में अपनों को खोना पड़ा. मध्य पूर्व में दशकों तक निरंतर बड़े पैमाने पर अमेरिका का नामसझी भरा हस्तक्षेप जारी रहा, जिसमें उसे अपनी सफलता के रूप में बताने को कुछ खास नहीं मिला. यहां उसने कुछ तानाशाहों को अपदस्थ किया. कुछ नए लोगों को सत्ता में बैठाया.

इस दौरान स्थानीय स्तर पर पारंपरिक अराजकता बनी रही और मैदान-ए-जंग में नेतृत्व के लिए नए-नए लीडर उभरते रहे. अमेरिका ने अफगानिस्तान में खरबों डॉलर खर्च कर डाले लेकिन इसकी कोई दिलकश कहानी कहने को उसके पास नहीं है. और अब संभव है कि 2020 को ऐसे बरस के रूप में देखा जाए जिसमें अमेरिका ने सचमुच गुत्थियां सुलझाना शुरू कर दिया है. जबकि खुद अमेरिका में ही लोकतंत्र लगातार संकट में दिखता रहा है, उसने न केवल ऐसे देशों में लोकशाही की स्थापना की कोशिशें की जहां यह पहले सफल नहीं रही बल्कि वहां भी, जहां यह पूरी तरह नाकाम साबित हुई है. इन बातों से भी ऊपर दुनिया ने अमेरिका में लोकतंत्र को दयनीय हालात में देखा है, जबकि वह सोचता है कि सारा विश्व उसके लोकतांत्रिक ढांचे की श्रेष्ठता से ईर्ष्या करता है. कोरोना महामारी की वजह से अमेरिका में साढ़े तीन लाख मौतें हो चुकी हैं. विश्व में मरने वाला हर पांचवा आदमी यहां का है और इसके बावजूद उसे वैक्सीन की खोज में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.

इसके बरक्स चीन है, जिसे देख कर लगता है कि उसने दुनिया को मात दे दी है. कोरोना वायरस का संक्रमण चीन से बाहर निकलने से पहले, जनवरी 2020 के चौथे हफ्ते में सबकी नजरें इस देश पर थीं. शुरुआत में वुहान से आ रहे मौतों के आंकड़े खतरे की घंटी बजा रहे थे लेकिन तभी देखते ही देखते यह वायरस चीन से गायब हो गया. मार्च खत्म होते-होते भारत के वाट्सएप ग्रुप्स में एक मैसेज चल पड़ा, जो वहां से मेरे एक मित्र ने भेजा. मैसेज थाः चीन ने कोविड-19 ग्रुप बनाया/चीन ने आपको उसमें जोड़ा/बाकी विश्व को भी जोड़ा/चीन खुद इससे बाहर हो गया. बीजिंग से एक दोस्त ने बताया कि भले ही वहां सोशल डिस्टेंसिंग और मास्क लगाने का निर्देश है मगर कैफे खुल चुके हैं. बसंत के बाद दस्तक देती ग्रीष्म ऋतु में दुनिया भर के राष्ट्र जब इस राक्षसी-वायरस से जूझ रहे थे, चीन दुनिया में सबसे ज्यादा मास्क, ग्लव्स, पीपीई किट और वेंटिलेटर सप्लाई करने वाला देश बन गया था. कई लोगों का तर्क है कि चीनी अर्थव्यवस्था की गाड़ी पटरी पर लौट आने की खबरें बढ़ा-चढ़ा कर बताई जा रही हैं. वह चीन में इलेक्ट्रिसिटी ब्लैकआउट और वहां घटी आर्थिक मांग की तरफ संकेत करते हैं. इसके बावजूद ऐसे पर्याप्त प्रमाण हैं कि चीन की अर्थव्यवस्था वापसी करते हुए लंबी छलांग लगा चुकी है और वहां उत्पादन ऑल-टाइम-हाई है. कोरोना में लोग ‘नॉरमल’ की चाहे जैसी व्याख्या करें परंतु चीन में जन-जीवन बड़े पैमाने पर सामान्य हो चुका है. अंतरराष्ट्रीय मंच पर चीन किसी विनम्र राष्ट्र की तरह व्यवहार नहीं करता. इसके विपरीत वह अपनी सीमाओं में आंतरिक विरोध का क्रूरता से दमन कर रहा है और विदेशी मामलों में भी अकड़ उसका स्थायी भाव बन गई है.

हालांकि अभी अघोषित अमेरिकी साम्राज्य के लिए कोई शोक-संदेश लिखना जल्दबाजी होगी क्योंकि साम्राज्य रातों-रात कहीं नहीं खोते. 19वीं सदी के मध्य में ही ऑटोमन साम्राज्य को ‘यूरोप का बूढ़ा’ संज्ञा दे दी गई थी परंतु वह अपनी आखिरी सांस टूटने से पहले करीब पांच दशक तक बना रहा. हमारे पास ऐसे कम से कम चार कारण यह बताने के लिए हैं कि अपनी श्रेष्ठता के बावजूद चीन 21वीं सदी को अपने नाम नहीं दर्ज कर सकता. पहला, दुनिया के तमाम देश उसे महाशक्ति के रूप में उसके प्रभुत्व की स्वीकारने और स्वागत करने के लिए तैयार नहीं हैं. कुछ लोग मानते हैं कि 19वीं सदी में ब्रिटेन की शाही शक्ति ने कम से कम अपने कुछ उपनिवेश राष्ट्रों से अपने हक में इस आधार पर समर्थन-स्वीकृति हासिल कर ली थी कि ‘कानून का शासन’ ऐसा विचार है जिसके आधार पर समय के साथ उन्हें इसकी विरासत सौंप दी जाएगी. 20वीं सदी के अधिकांश दशकों में संयुक्त राज्य अमेरिका को दुनिया के तमाम लोगों ने महत्वपूरण माना और कई बार तो उससे गहरा लगाव भी अनुभव किया. पूरी दुनिया में यूएस के नाम का ऐसा डंका बजा कि किसी और देश को इतनी लोकप्रियता कभी नहीं मिली. इसके बरक्स यह विश्वास करना कठिन है कि चीन ऐसा देश है, जिसके लिए उसकी जमीन से बाहर के लोग कोई प्रेम या स्नेह रखते है.

बावजूद इसके इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि बीते कुछ दशक में जिस तरह से चीन का उदय हुआ और उसने अपने करोड़ों नागरिकों को गरीबी से उबारा, इस बात की सराहना तथा प्रशंसा करने वाले लोग पूरी दुनिया में हैं. उधर, चीन और उसके पड़ोसियों रिश्ते भी एक-दूसरे को पसंद करने वाले नहीं हैं. चीन की तरह कम्युनिस्ट राष्ट्र होने के बावजूद वियतनाम उस पर विश्वास नहीं करता. यही स्थिति चीन की उन करीब दर्जन भर देशों के साथ है, जिनसे उसकी सीमाएं लगती हैं. चीन इन सभी की धरती पर अपनी ‘खोई हुई जमीन’ होने का दावा करता रहता है. चीन की दबंगई, दुनिया भर में असंतोष को हवा देते रहने की कोशिशें और अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा को मुद्दा बनाए रखने की आदत उसे ऐसा देश बनाती है जिससे शायद ही कभी कोई प्यार करे. आलोचक तर्क दे सकते हैं कि इतिहास में साम्राज्यों ने सिर्फ यह परवाह की कि उनका डर लोगों/राष्ट्रों में बना रहे. उन्होंने प्यार पाने की कभी चाह नहीं रखी. बात में दम है. गौर इस पर भी होना चाहिए कि जैसे जैसे दुनिया आधुनिकता की दिशा में बढ़ती जाती है, दमन करने के तरीके कभी पुराने नहीं रहते.

चीन के संदर्भ में दूसरी बात यह है कि चीन दुनिया का ऐसा सांस्कृतिक बिंदु नहीं रहा है कि उसका विश्व पर प्रभाव हो. एक फैशनेबल पारिभाषिक शब्द हैः सॉफ्ट पावर. जिसमें कुछ देश सांकेतिक रूप से अन्य देशों की तरफ अपना झुकाव तय करते हैं और उन्हें प्रभावित करने की कोशिश करते हैं. शीत युद्ध के दिनों में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाले भारत समेत कई देशों ने सोवियत रूस के साथ मित्रता संधि की थी और निसंदेह अमेरिकी इन देशों को पर्याप्त संदेह और अपने शत्रु की निगाह से देखते थे. अमेरिका मानता था कि ये राष्ट्र अघोषित रूप से तटस्थ हैं और इसी से तीसरा रास्ता निकला एंग्लो-अमेरिकन कल्चर, जिसने मुख्य रूप से भारतीय मध्यमवर्ग में अपना प्रभुत्व जमाया. भारत में 1960-70 के दशक में अमेरिकी संस्कृति, साहित्य और सिनेमा का बड़ा प्रभाव पड़ा, जिस पर विस्तार से लिखा जाना बाकी है. इस दौर में अमेरिकी पॉप संगीत, डेनिस द मीनेंस और आर्ची के कॉमेक, अमेरिकी ब्लॉन्ड्स के नॉवेल, मोहम्मद अली, जो फ्रेजर और जॉर्ज फोरमैन के मुक्केबाजी मुकाबलों और हॉलीवुड फिल्मों से लेकर बहुत सारा सांस्कृतिक साजो-सामान बड़े पुलिंदों की तरह भारतीय मध्यमवर्ग में पहुंचा.

विश्व की समकालीन संस्कृति में चीन का योदगान नगण्य है. ऐसा कुछ नहीं है जिसकी तुलना कोरिया के के-पॉप, जापान के मेंगा और एनिमेशन कल्चर से लेकर ब्राजील के फुटबॉल प्रेम से की जा सके. ऐसा नहीं है कि चीनी संस्कृति, चीनी भाषा, चीनी इतिहास और वहां के लोगों के प्रति दुनिया की आंखें नहीं खुली हैं. दुनिया में करीब 10 करोड़ लोग आज चीनी को विदेशी भाषा के रूप में सीख रह हैं. लेकिन अंग्रेजी की मांग इससे कहीं अधिक है, जिसके आगे चीनी सीखने वालों का आंकड़ा कहीं नहीं ठहरता. 150 करोड़ लोग पूरी दुनिया में अंग्रेजी सीख रहे हैं.

तीसरा बिंदु हालांकि थोड़ा अलग है मगर अहम है. ऐसा देश ढूंढने में काफी मशक्कत करनी पड़ेगी जो सुपर पावर बना हो, मगर वह बौद्धिक पावर हाउस न रहा हो. अमेरिकी सदी को सिर्फ उसके संगीत, सिनेमा, साहित्य और कला जैसे सांस्कृतिक आंदोलनों ने नहीं गढ़ा. अमेरिकियों ने दुनिया में अपने ज्ञान का साम्राज्य भी खड़ा किया. अमेरिकी समाज विज्ञान या धारणा सिर्फ विचारों या जानकारी की तरह नहीं थी. इसे दुनिया के अधिकतर विकसित और लगभग सभी विकासशील देशों ने अपनाया. उसकी नकल की. उसके आधुनिकीकरण की अवधारणा, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान से खुद को जोड़ा. दुनिया पर अमेरिकी समाज विज्ञान के इस असर ने काफी हलचलें पैदा की. ऐसी कई वजहें थी कि चीनी छात्रों का विदेशी और खास तौर पर अमेरिकी विश्वविद्यालयों में जमावड़ा बढ़ता चला गया. 2009 में जहां इनकी संख्या दो लाख 29 हजार थी, वहीं 2014 में चार लाख नौ हजार हो गई. 2018 में यह आंकड़ा छह लाख 62 हजार पहुंच गया. ब्रिटेन और अमेरिका क्रमशः 19वीं और 20वीं सदी के सबसे महान पावर हाउस थे. जिन्होंने दुनिया भर के छात्रों को अपने यहां आकर्षित किया. रोचक तथ्य यह है कि खुद चीन अपने विश्वविद्यालयों में जितने छात्रों को प्रवेश नहीं देता है, उससे कहीं अधिक विदेश में भेजता है. एक और विशेष बात यह कि समाज विज्ञान या मानविकी से जुड़े शोध में चीन के बौद्धिक विचारकों और विद्वानों ने दुनिया को ऐसा कोई विचार या आइडिया नहीं दिया, जिसका संसार पर गहरा असर पड़ा हो. आप बहुत सोचें तब भी आपको याद नहीं आता.

चौथा तथ्य यह है कि भले ही उत्पादन के मामले में चीन का दुनिया में प्रभुत्व है और महामारी के दौर में वह सबको चौंकाते हुए अधिक शक्तिशाली बन गया है, परंतु वैश्विक वित्तीय संरचना अमेरिका द्वारा गढ़ी गई है और अब भी मजबूती से उसके हाथों में ही है. अमेरिकी डॉलर अब भी संसार की वित्त व्यवस्था की रीढ़ है. दुनिया में उसे ही सबसे अधिक मान्यता हासिल है. बीते दो दशक में इस पर बहुत बात हुई और खास तौर पर 2008 की मंदी के बाद कि डॉलर विश्व बाजार में पिछड़ जाएगा. लेकिन इस वक्त विश्व व्यापार और विश्व की प्रिंसिपल रिजर्व करेंसी के रूप में डॉलर के मुकाबले चीन की आधिकारिक मुद्रा (रेनमिनबी) और यूरो कहीं पीछे हैं. मार्च 2020 तक विश्व के 62 फीसदी एक्सचेंज रिजर्व अमेरिकी डॉलर में हैं, जबकि रेनमिनबी केवल दो प्रतिशत एक्सचेंज रिजर्व है. वास्तव में डॉलर सबकी ‘मुद्रा’ है. सब इसकी कल्पना करते हैं और यह अमेरिकी स्थिरता तथा शक्ति की पहचान हैं. ग्लोबल करेंसी के रूप में रेनमिनबी उसके आस-पास भी नहीं ठहरती.

कई विद्वानों का विचार है कि दुनिया को बहु-ध्रुवीय होना चाहिए. आने वाले वर्षों में इसकी तस्वीर साफ हो सकती है. हालांकि यह एक दूरस्थ-संभावना है. खास तौर पर तब जब यूरोपीय यूनियन अपनी क्षेत्रीय अखंडता और ‘यूरोपीय पहचान’ पर हो रहे हमलों का सफलता पूर्वक सामना कर लेता है. इसलिए जैसा कि मैंने कहा ‘चीनी सदी’ कहना अभी एक असामयिक विचार होगा. चीन के लिए दुनिया के मन पर अपनी छाप छोड़ पाना तभी संभव हो सकता है, जब वह अपने यहां कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए कड़े कदम उठाए और विश्व में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर पारंपरिक सोच को अपनी तार्कित क्षमता से प्रभावित करे. यद्यपि वर्तमान महामारी हमारे तात्कालिक अनुभवों को गहराई से प्रभावित करने वाली दिखाई पड़ रही है, लेकिन अधिक संभावना यही है कि यह नया दशक मानव जाति के भू-राजनीतिक भविष्य को आकार देने में ज्यादा महत्वपूर्ण साबित होगा.

(विनय लाल लेखक, ब्लॉगर, सांस्कृतिक आलोचक और यूसीएल में इतिहास के प्रोफसर हैं)

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

और देखें

ओपिनियन

Advertisement
Advertisement
25°C
New Delhi
Rain: 100mm
Humidity: 97%
Wind: WNW 47km/h
Advertisement

टॉप हेडलाइंस

'ये कोई महान बात नहीं', कांग्रेस के मुखपत्र में शशि थरूर के बयानों की जमकर आलोचना, दी गई ये चेतावनी
'ये कोई महान बात नहीं', कांग्रेस के मुखपत्र में शशि थरूर के बयानों की जमकर आलोचना, दी गई ये चेतावनी
'सुनो... कान खोलकर सुन लो', जया किशोरी का बयान शेयर कर महाकुंभ पर बोले संजय राउत
'सुनो... कान खोलकर सुन लो', जया किशोरी का बयान शेयर कर महाकुंभ पर बोले संजय राउत
Mahakumbh 2025: भगवा साड़ी और गले में रुद्राक्ष पहने महाकुंभ पहुंचीं रीवा अरोड़ा, संगम में डुबकी लगा दिए ऐसे पोज, देखें तस्वीरें
भगवा साड़ी पहन रीवा अरोड़ा ने लगाई संगम में डुबकी, देखें तस्वीरें
हैक हुआ जर्मन राष्ट्रपति का X अकाउंट! बिहार सरकार की लगा दी प्रोफाइल फोटो, जानें पूरी जानकारी
हैक हुआ जर्मन राष्ट्रपति का X अकाउंट! बिहार सरकार की लगा दी प्रोफाइल फोटो, जानें पूरी जानकारी
ABP Premium

वीडियोज

Delhi CM Announcement:Mahakumbh से लेकर Delhi Railway Station stampede पर BJP पर खूब बरसे Manoj Kaka | ABP NEWSDelhi New CM: दिल्ली सीएम के शपथ ग्रहण से जुड़ी इस वक्त की बड़ी खबर | ABP News | Breaking | BJP | ABP NEWSMahakumbh 2025: प्रयागराज में महाकुंभ में डुबकी लगाने के लिए श्रद्धालुओं की भारी भीड़ | ABP NewsDelhi CM Announcement : Kejriwal के शीशमहल पर पूर्व अधिकारी के खुलासे पर भड़क गईं आप प्रवक्ता ! | ABP NEWS

पर्सनल कार्नर

टॉप आर्टिकल्स
टॉप रील्स
'ये कोई महान बात नहीं', कांग्रेस के मुखपत्र में शशि थरूर के बयानों की जमकर आलोचना, दी गई ये चेतावनी
'ये कोई महान बात नहीं', कांग्रेस के मुखपत्र में शशि थरूर के बयानों की जमकर आलोचना, दी गई ये चेतावनी
'सुनो... कान खोलकर सुन लो', जया किशोरी का बयान शेयर कर महाकुंभ पर बोले संजय राउत
'सुनो... कान खोलकर सुन लो', जया किशोरी का बयान शेयर कर महाकुंभ पर बोले संजय राउत
Mahakumbh 2025: भगवा साड़ी और गले में रुद्राक्ष पहने महाकुंभ पहुंचीं रीवा अरोड़ा, संगम में डुबकी लगा दिए ऐसे पोज, देखें तस्वीरें
भगवा साड़ी पहन रीवा अरोड़ा ने लगाई संगम में डुबकी, देखें तस्वीरें
हैक हुआ जर्मन राष्ट्रपति का X अकाउंट! बिहार सरकार की लगा दी प्रोफाइल फोटो, जानें पूरी जानकारी
हैक हुआ जर्मन राष्ट्रपति का X अकाउंट! बिहार सरकार की लगा दी प्रोफाइल फोटो, जानें पूरी जानकारी
बढ़ती उम्र का सबसे पहले इशारा करता है शरीर का यह अंग, ये हैं संकेत
बढ़ती उम्र का सबसे पहले इशारा करता है शरीर का यह अंग, ये हैं संकेत
Ramadan 2025 Date: माह-ए-रमजान का पाक महीना कब से हो रहा शुरू, नोट कर लें डेट
माह-ए-रमजान का पाक महीना कब से हो रहा शुरू, नोट कर लें डेट
'हमारे पास चेहरों की कमी नहीं है लेकिन, दिल्ली सीएम को लेकर आतिशी के आरोपों पर बीजेपी का पलटवार
'हमारे पास चेहरों की कमी नहीं है लेकिन, दिल्ली सीएम को लेकर आतिशी के आरोपों पर बीजेपी का पलटवार
Cyber Attack On Pension: सावधान! आपकी पेंशन पर है साइबर ठगों की नजर, एक क्लिक और खाली हो जाएगा पूरा अकाउंट, PFRDA ने किया आगाह
सावधान! आपकी पेंशन पर है साइबर ठगों की नजर, एक क्लिक और खाली हो जाएगा पूरा अकाउंट, PFRDA ने किया आगाह
Embed widget

We use cookies to improve your experience, analyze traffic, and personalize content. By clicking "Allow All Cookies", you agree to our use of cookies.