पांच राज्यों के चुनाव को लेकर एक ओर जहां सरगर्मी तेज हो गयी है, वहीं इंडिया गठबंधन के बीच के मतभेद भई उभर कर सामने आ रहे हैं. समाजवादी पार्टी ने मध्य प्रदेश में अपने 9 उम्मीदवार उतार दिए हैं और कांग्रेस ने किसी तरह का समझौता नहीं किया है. हालांकि, सपा की आक्रामकता से वह हैरान जरूर है. इधर अखिलेश यादव ने यह भी बयान दिया है कि वह यूपी में सीट बांटेंगे, लेंगे नहीं, यानी एक तरह से अपना अपर हैंड उन्होंने अभी से साबित कर दिया है. अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि राज्यों की यह झड़प कहीं आनेवाले लोकसभा चुनाव पर भी तो असर नहीं डालेगी, कहीं इंडिया अलायंस जिस तरह राज्यों में आपस में लड़ रही है, आम चुनाव में भी एकता ऐसे ही खंडित तो नहीं हो जाएगी?
सपा करेगी दबाव की राजनीति
बड़ा दिल दिखाने की बात अखिलेश यादव हमेशा करते रहे हैं, लेकिन साथ ही साथ वह दबाव बनाने की राजनीति भी बड़ी अच्छी तरह से करते हैं. आप उनका हालिया बयान देखें तो पाएंगे कि उन्होंने कहा कि यूपी में वह सीटें बांटेंगे, मांगेंगे नहीं. तो, वह यहां अपना अपर हैंड पहले से ही रख रहे हैं. इसीलिए, जब-जब विपक्ष की तरफ से कांग्रेस और आरएलडी अपनी मांग रखती है, जैसे आरएलडी ने 15 सीटें मांगी और कांग्रेस ने 30 सीटें मांगी. अभी कल इस बात की चर्चा थी. तो, समाजवादी पार्टी के लोगों ने कहा कि 30 सीटों पर लड़नेवाले लोगों के नाम दे दें. अखिलेश कह रहे हैं कि गठबंधन की लड़ाई है, वह बड़ा दिल दिखाएंगे और बाकी सब कुछ, लेकिन वह अपने लीडरशिप और अपने प्रभाव से समझौता करने के मूड में नहीं हैं. इसीलिए, उन्होंने मध्य प्रदेश में अपने 9 प्रत्याशी लड़ाने की बात कही थी और उनके नाम भी घोषित कर दिए थे.
इसके बाद अखिलेश यादव का दौरा हुआ था और ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस और सपा का समझौता हो जाएगा, लेकिन कमलनाथ जिस तरह मध्य प्रदेश कांग्रेस को अपने नियंत्रण में किए हुए हैं, उन्होंने कोई सीट नहीं छोड़ी और उन तीन जगहों पर भी अपने प्रत्याशी दे दिए, जहां सपा ने अपने कैंडिडेट्स घोषित कर दिए थे. ऐसे में ये दबाव की राजनीति दोनों तरफ से चल रही है. कांग्रेस इस इंतजार में है कि पांच राज्यों के नतीजे कैसे आते हैं और उसके बाद ही वह यूपी में भी अपनी सक्रियता बढ़ाएगी. वैसे, ये जो गठबंधन बना है विपक्षी दलों का, इंडिया नाम से, वह राज्यों में बहुत कारगर नहीं हो सकेगा, क्योंकि राज्यों की राजनीति अलग है. लोकसभा चुनाव के पहले यानी इन राज्यों के चुनाव जैसे ही खत्म होंगे, लोकसभा चुनाव की सीटों को लेकर माहौल साफ हो जाएगा.
सपा देगी मौजूदगी की दलील
जब मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने सपा से इस मसले पर सवाल किया था कि उसकी तो वहां प्रजेंस ही नहीं है, फूटिंग ही नहीं है तो सपा ने कहा था कि एक समय उसके 11 विधायक थे मध्य प्रदेश में. पिछला चुनाव एकमात्र था जिसमें सपा को सफलता नहीं मिली थी. दबाव फिलहाल इसी पर रहेगा कि यूपी में कांग्रेस का वोट बैंक है क्या, यूपी में कांग्रेस के पास जीतनेवाले नेता हैं कितने? कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बहुत सारे कद्दावर नेताओं को अपने फोल्ड में लाने की कोशिश करेगी, खासकर उनको जो पहले कभी कांग्रेस से ही जीतकर सांसद या विधायक रहे हैं, जिनकी घर-वापसी होगी या दूसरे दलों के कुछ असंतुष्ट नेता भी कांग्रेस का दामन थाम सकते हैं. जहां तक कास्ट सेंसस और ओबीसी को टिकट देने की बात है, तो सपा तो सामाजिक न्याय की ही गोद से निकली है. उसकी छवि आज यादवों की पार्टी वाली बन कर भले रह गयी हो, लेकिन उसके एम-वाय यानी यादव और मुस्लिम समीकरण की बहुत चर्चा होती है.
उसी तरह हमें याद रखना चाहिए कि मुलायम सिंह ने जब सपा बनायी थी, तो उसमें बेनी प्रसाद वर्मा जैसे कद्दावर कुर्मी नेता भी थे, कई और अन्य ओबीसी नेता भी अच्छी-खासी तादाद में रही. समय के साथ उस पर यादवों की पार्टी होने का ठप्पा लग गया. 2014 में भाजपा ने इसी बात को समझा और गैर-यादव पिछड़ों को इकट्ठा कर भारी जीत दर्ज की. एक बात यह भी याद रखें कि जब मुलायम सिंह यादव थे और बसपा को कांशीराम लीड कर रहे थे, तो 26 से 28 फीसदी वोटों पर सरकार बन जाती थी. भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग के जरिए चतुष्कोणीय मुकाबले को लगभग आमने-सामने की लड़ाई बना दिया है और अब 40 फीसदी से कम पर सरकार नहीं बनती. तो, इसका हल तो यही है कि अपनी ताकत बढ़ाई जाए और सपा की पिछले साल भर की गतिविधि अगर आप देखें तो वही चीज दिखेगी. उन्होंने बसपा छोड़कर आए ओबीसी नेताओं जैसे स्वामी प्रसाद मौर्य, लालजी वर्मा इत्यादि को खूब स्पेस दिया है. वह बैकवर्ड कास्ट का एक मजबूत समूह चाहते हैं.
कांग्रेस करेगी ओबीसी की राजनीति
यह ठीक है कि राहुल गांधी ने जिस तरह जाति-जनगणना और ओबीसी को लेकर जो राजनीति शुरू की है, वह कांग्रेस के लिए नया है. कांग्रेस तो मध्य प्रदेश, छ्त्तीसगढ़, राजस्थान जैसे राज्यों में जो तीसरा मोर्चा है, वहां तीसरा मोर्चा अनुपस्थित है. अगर यूपी और बिहार में बात करें तो वहां सामाजिक न्याय वाले दल दावेदार हैं. बिहार में नीतीश कुमार, लालू यादव हैं तो यूपी में अखिलेश यादव. ऐसी हालत में कांग्रेस के लिए उस ओबीसी वोट को लुभाना उतना आसान यूपी में तो नहीं होगा. अब रही बात टिकट बंटवारे की. हमने देखा कि तीन-चार राज्यों में जो टिकट कांग्रेस ने बांटे हैं, तो मध्य प्रदेश में तो इसी फॉर्मूले से टिकट दिया गया है, छत्तीसगढ़ में भी आदिवासियों और पिछड़ों का संतुलन बनाया गया है और राजस्थान में भी यही संतुलन कायम रखने की कोशिश की है. सचिन पायलट खुद वहां गूजरों के नेता हैं. कांग्रेस वहां तो अच्छे से यह फॉर्मूला लगा रही है, लेकिन यूपी और बिहार में कांग्रेस फ्रंट सीट पर नहीं आ सकती जहां तक 2024 के संदर्भ का सवाल है.
यूपी में एक और जो पक्ष देखने का है, वह चंद्रशेखर आजाद का है. भीम आर्मी का जिस तरह से उभार हुआ है, वह दरअसल युवाओं के बीच का है. मायावती थोड़ी शिथिल पड़ी हैं, उस तरह की अग्रेसिव राजनीति नहीं करतीं तो चंद्रशेखर काफी लोकप्रिय हुए हैं. युवाओं ने अपने नेता के तौर पर उनका चुनाव कर लिया है. वे सीधी बात करते हैं, एग्रेसिव हैं, उनका दमन हुआ है तो सिंपैथी और एग्रेसन का एक अच्छा युग्म बन रहा है.
चंद्रशेखर के लिए निश्चित तौर पर इंडिया अलायंस के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है और इंडिया गठबंधन को भी उन पर विचार करना चाहिए, क्योंकि खास तौर पर पश्चिमी यूपी में चंद्रशेखर की काफी फॉलोइंग है. उनके रिश्ते जयंत चौधरी के साथ भी अच्छे हैं, अखिलेश के साथ भी उनकी बात बस बनते-बनते रह गयी थी. उनका तालमेल इमरान मसूद के साथ भी है. इमरान अब कांग्रेस में भी हैं. उनके इंडिया अलायंस में आने की काफी संभावना है और वह इसका हिस्सा बनकर ही चुनाव लड़ेंगे.
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