सियासत की चाल देखकर हम लोग अपने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में ऐसा कुछ होने की सोच रहे थे, लेकिन अपने दूसरे करीबी देश श्रीलंका ने शुक्रवार की देर रात इमरजेंसी यानी आपातकाल लगाने का ऐलान करके सबको हैरान करके रख दिया. श्रीलंका, भारत के लिए भौगोलिक और सामरिक लिहाज से बेहद नाजुक मुल्क है और इसीलिए हर संकट के वक़्त भारत ने उसकी मदद करने से कभी अपना मुंह नहीं मोड़ा. लेकिन पिछले तकरीबन आठ साल साल से इस समुद्री मुल्क पर चीन की गिद्ध निगाह लगी हुई है और उसने अपनी जरुरत के मुताबिक श्रीलंका की खाली झोली भरकर दक्षिण एशिया में अपना ठिकाना बनाने में काफी हद तक कामयाबी भी पा ली है. इसलिये अन्तराष्ट्रीय जगत में एक बड़ा सवाल ये उठ रहा है कि श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने आपातकाल लगाने का फैसला किसके इशारे पर लिया औऱ क्या इससे वह देश की जनता को आर्थिक बदहाली से सुरक्षित बाहर निकाल पाएंगे?
अन्तराष्ट्रीय कूटनीति और सामरिक मामलों के जानकार श्रीलंका के इस सख्त फैसले को भारत के लिए एक बड़े खतरे का अलार्म मानते हैं.वह इसलिये कि चीन एक तरफ पाकिस्तान में इकोनॉमिक कॉरिडोर के बहाने अपना ठिकाना मजबूत कर रहा है, तो वहीं श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में पोर्ट सिटी बनाने के बहाने वो इस समुद्री क्षेत्र के जरिये भारत को घेरने में अपना खतरनाक दिमाग लगा रहा है. सामरिक लिहाज़ से चीन अपने लिए इसे बहुत बड़ा 'गेमचेंजर' मान रहा है क्योंकि उसे लगता है कि ऐसा हो जाने के बाद वो दक्षिण एशिया में भी एक बड़ी ताकत बनकर उभर आयेगा. तीन महीने पहले यानी बीती जनवरी में श्रीलंका से जो मीडिया रिपोर्ट्स आईं थीं, उसमें बताया गया था कि कोलंबो के कारोबारी केंद्र के पास बड़ी मात्रा में रेत लाकर समंदर के ऊपर एक हाई-टेक सिटी बनाई जा रही है. चीन के कहने पर ही श्रीलंका के मंत्रियों ने ये दावा भी किया था कि इसे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय केंद्र, आवासीय इलाके और बंदरगाह के तौर पर विकसित किया जाएगा. उन्होंने इसकी तुलना हांगकांग, मोनाको और दुबई से भी की है.
हकीकत ये है कि श्रीलंका की माली हालत इतनी बुरी हो चुकी है कि वो एक भिखारी देश बन चुका है, जहां की जनता को दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के भी लाले पड़ रहे हैं. शायद इसीलिए दुनिया के तमाम क्रांतिकारियों की जीवनी पढ़ने के बाद शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने जेल में रहते हुए ही साल 1929 में 'द ट्रिब्यून' में लिखे अपने लेख में कहा था कि "पेट की भूख किसी भी इंसान को हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाने के लिए सड़कों पर ले आती है और यहीं से किसी भी मुल्क में क्रांति का आगाज़ होता है. मैं नहीं चाहता कि मेरे देश के लोगों को कभी ऐसे हालात का सामना करना पड़े, क्योंकि हम चंद नौजवान उनके लिए लड़ेंगे भी, फांसी के फंदे पर भी चढ़ेंगे लेकिन उन्हें एक आज़ाद मुल्क में हवा लेने के लिए छोड़कर दुनिया से विदा हो जाएंगे."
क्या ये कम हैरानी की बात है कि तकरीबन 93 बरस पहले भारत को आज़ादी दिलाने के लिए बेहद कम उम्र में शहीद हो जाने वाले भगत सिंह ने जो लिखा था, आज हम उसे पड़ोसी देश श्रीलंका में साकार होते हुए अपनी नज़रों से देख रहे हैं. पेट की भूख लोगों को सड़कों पर ले आती है और वही गुरुवार की रात श्रीलंका में भी हुआ, जब हजारों लोगों की भीड़ ने राष्ट्रपति भवन को घेर लिया और सरकार के खिलाफ जमकर विरोध-प्रदर्शन किया.उसने हिंसक रुप ले लिया, जिसके बाद सरकार को देश में आपातकाल लगाने का मौका मिल गया.हालांकि किसी भी लोकतंत्र में सरकार को अपनी नाकामी छुपाने या उससे बचने के लिए ये सबसे बड़ा हथियार मिला हुआ है.लेकिन किसी भी लोकतांत्रिक देश का समझदार राष्ट्राध्यक्ष इसे अपने सबसे आखिरी और एकमात्र विकल्प के रुप में ही इस्तेमाल करता है.
इसलिये, सवाल उठता है कि श्रीलंका में इस कदर आर्थिक बदहाली की नौबत आखिर क्यों आई? वहां की सरकार का तर्क है कि देश की इकोनॉमी का बड़ा हिस्सा पर्यटन पर आधारित है, लिहाज़ा कोरोना महामारी के कारण पिछले सवा दो साल में इसका भट्टा पूरी तरह से बैठ गया, इसलिये देश की अर्थव्यवस्था भी बुरी तरह से चरमरा गई. लेकिन सरकार की ये बेतुकी दलील श्रीलंका के लोगों के गले से नीचे नहीं उतर रही है. उसकी बड़ी वजह भी है.चीन ने उसे कैसे और कितनी इमदाद दी, ये तो वहां की सरकार ही बता सकती है.लेकिन ये तो आईने की तरह साफ है कि विदेशी मुद्रा भंडार में आई कमी के बाद जब श्रीलंका में आर्थिक मुसीबतों का पहाड़ खड़ा होने लगा और ईंधन के दामों में बेतहाशा बढ़ोतरी होने लगी, तो उससे निपटने के लिए भारत ने करीब डेढ़ अरब अमेरिकी डॉलर की आर्थिक मदद श्रीलंका को दी.इसलिये श्रीलंका के लोग अगर कल तक अपनी सरकार से ये सवाल पूछ रहे थे कि आखिर वो पैसा कहां गया, तो वे कोई गुनाह नहीं कर रहे थे.
श्रीलंका की राजनीति के जानकार मानते हैं कि राजपक्षे सरकार ने भारत और चीन से मिलने वाली मदद का फायदा आम जनता तक पहुंचाने की बजाय विदेशी बैंकों में अपने एकाउंट्स का बैलेंस बढ़ाने की तरफ ज्यादा ध्यान दिया.जब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा और जनता ने राष्ट्रपति भवन तक का घेराव करना शुरु कर दिया, तो सरकार के पास इमरजेंसी लगाकर खुद को बचाने के सिवा और कोई चारा ही नहीं था. एक जमाने में जिस तरह देश में गांधी परिवार को ताकतवर माना जाता रहा, ठीक उसी तर्ज पर श्रीलंका में राजपक्षे परिवार को बेहद शक्तिशाली माना जाता है. गोटाबाया राजपक्षे के बड़े भाई महिंदा राजपक्षे देश के प्रधानमंत्री हैं और वो इससे पहले देश के राष्ट्रपति रह चुके हैं.उनके छोटे भाई बासिल देश के वित्त मंत्री हैं. सबसे बड़े भाई चमल कृषि मंत्री हैं, तो वहीं उनके भतीजे नमल देश के खेल मंत्री हैं.तो ये समझने के लिए दिमागी घोड़े दौड़ाने की कोई जरुरत नहीं कि इस देश पर सिर्फ एक ही खानदान का राज है, जिसने अपनी काली करतूतों को छुपाने के लिए इतना बड़ा काला फैसला लेकर वहां की जनता की जुबान पर ताले और पैरों में बेड़ियां डालने का काम किया है. लेकिन दुनिया का इतिहास गवाह है कि कोई भी बादशाह वक़्त की सुई को कभी अपने काबू में नही ले पाया और उसके एक गलत फैसले ने ही उसे अर्श से फर्श पर ला दिया.इसलिये बड़ा सवाल ये है कि क्या श्रीलंका के राजपक्षे खानदान का भी वही हश्र होने वाला है?
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