किसी भी पुस्तक को पढ़ते समय दो मूलभूत प्रश्न उठते हैं. पहला प्रश्न यह कि इस पुस्तक की आवश्यकता क्यों महसूस हुई, इसको लिखने की जरूरत क्यों पड़ी. दूसरा प्रश्न यह उठता है कि यह पुस्तक पाठक को किस तरह समृद्ध करेगी. पहले प्रश्न का उत्तर ‘नारदीय संचार नीति’ पुस्तक में बखूबी मिल जाता है, जब लेखक अपनी ‘संनीति की संकल्पना’ यानी संचार और राजनीति की पूरकता को नीति-निर्णयन के सन्दर्भ में विस्तृत रूप में रखता है. नीतियां समाज और राष्ट्र को स्वरूप प्रदान करती हैं और उसमें अब तक राजनीति का बोलबाला रहा है.
लेखक ने नए परिप्रेक्ष्य में उभर रहे इस तथ्य को रेखांकित किया है कि संचार और राजनीति दोनों मिलकर अब नीति-निर्धारण का कार्य कर रही है और इसे ‘संनीति’ नाम से संबोधित किया है.इस नए परिदृश्य में यह आवश्यक हो गया है कि हम संचार की भारतीय पद्धति को फिर से समझें. भारतीय समाज सदियों से अपनी परंपराओं और संस्कृति को अक्षुण्ण रखा है. उसमें संचार का महत्व काफी रहा है, शासक वर्ग ने संचार की अपनी शैली और सन्देश विकसित किये, लेकिन उसके समानांतर लोक में श्रुति परम्परा का अपना स्थान और प्रभाव रहा है.
देवर्षि नारद पहले ऐसे प्रतीक हैं, जिनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व में संचार के सभी तत्व को समाहित हैं. वह देश-काल की सीमाओं तोड़कर संचार करने में सफल रहे. देवर्षि के इस आदर्श और उनके द्वारा अपनाई गई नीति से पाठकों को अवगत कराने का काम पुस्तक में बखूबी किया गया है. निश्चित तौर पर पाठकों का जो अब तक संचार का नजरिया है, उसमें कुछ ना कुछ बदलाव लाने में पुस्तक सफल साबित होगी.
पुस्तक की प्रस्तावना वरिष्ठ मीडियाकर्मी और संचार विशेषज्ञ उमेश उपाध्याय जी ने लिखी है. उनकी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक ‘वेस्टर्न मीडिया : नैरेटिव्स ऑन इंडिया फ्रॉम गाँधी तो मोदी’ बहुत चर्चित हुई है . मेरी ऐसी मान्यता है कि ‘वेस्टर्न मीडिया : नैरेटिव्स ऑन इंडिया फ्रॉम गाँधी तो मोदी’ और ‘नारदीय संचार नीति’ को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए. क्योंकि पहली पुस्तक वस्तुनिष्ठता को लेकर पश्चिमी सम्मोहन को तोड़ती है तो दूसरी पुस्तक संचार प्रक्रिया और संचार कर्म को भारतीय संकल्पनाओं और मूल्यों पर अधिष्ठित करती है. इस तरह यह दोनों पुस्तकें एकदूसरे की पूरक बन जाती हैं.
‘नारदीय संचार नीति’ न सिर्फ पाठकों को देवर्षि नारद की संचार पद्धति से परिचित कराएगी बल्कि भारतीय संचार की परिकल्पना के फलक को विस्तृत बनाने में भी अहम साबित होगी. इस पुस्तक को गहराई से पढ़ने पर न सिर्फ संचारीय मुद्दों के प्रति समझ बढ़ेगी बल्कि पत्रकारिता में होने वाले शोध के नए कौशल और उपकरण से भी परिचित हुआ जा सकेगा. शोधार्थी अपने लक्षित शोध-समूह से किस तरह बर्ताव और बातचीत करें कि अधिकतम जानकारियां प्राप्त हो सके, इसके लिए नारदीय संचार नीति मार्गदर्शिका बन सकती है. विशेष रूप से पुस्तक के द्वितीय अध्याय ‘प्रसंग’ में ऐसे बहुत से घटनाक्रमों का उल्लेख मिल जाता है, जो लोक-व्यवहार और श्रुति परंपरा को लेकर नई अन्तःदृष्टि प्रदान कर सकते हैं.
नारदीय संचार नीति का एक मूलभूत तथ्य यह भी है कि सरलता सबसे जटिल प्रभाव छोड़ती है, इस सूत्र को संचारिय शोध में विशेष रूप से अपनाये जाने की जरूरत है. यह कहा जा सकता है कि ‘नारदीय संचार नीति’ भारतीय संचार संकल्पना के विकास के लिए एक प्रस्थान बिंदु है. लेखक को अपने इस शोध कार्य में निरंतरता बनाये रखकर इसे और इस पुस्तक के परिवर्धित संस्करण के लिए प्रयास करने चाहिए, ताकि जिन तथ्यों का उल्लेख इस पुस्तक में सूत्र रूप हुआ है, वह अधिक स्पष्ट रूप में पाठकों और अध्येताओं के सामने आ सकें.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]