सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच बढ़ते टकराव का निकलेगा कोई समाधान?
जजों की नियुक्ति से जुड़े कॉलेजियम सिस्टम में सुधार को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच बढ़ता टकराव थमता नहीं दिखता. क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू के ताजा बयान ने इस विवाद को और हवा दे दी है. उनके मुताबिक जजों को एक बार जज बनने के बाद किसी आम चुनाव या सार्वजनिक तौर पर किसी जांच का सामना नहीं करना पड़ता. ऐसे में ये तो साफ है कि जजों को आम जनता नहीं चुनती है और यही वजह है कि जनता आपको (जजों) बदल भी नहीं सकती. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि जनता आपको देख नहीं रही है.
उनके इस बयान को न्यायपालिका पर सीधे हमले के तौर पर देखा जा रहा है. इसलिये बड़ा सवाल ये है कि सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच पैदा हुआ तनाव कैसे हल होगा और इसमें कौन-सा पक्ष झुकने को राजी होगा? दरअसल, सरकार कहती है कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों को नियुक्त करने की जो प्रक्रिया बरसों से चली आ रही है, उसमें सुधार करने की जरूरत है और इस कॉलेजियम सिस्टम में सरकार का भी एक नुमाइंदा होना चाहिए.
लेकिन न्यायपालिका सरकार के इस विचार से सहमत नहीं है और वे इसे न्यायिक व्यवस्था में कार्यपालिका की सीधी दखलदांजी मानती है. सरकार और न्यायपालिका के बीच मतभेद की शुरुआत बीते साल नवम्बर में हुई थी, जब चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाले कॉलेजियम ने पांच सीनियर एडवोकेट को हाइकोर्ट के जज नियुक्त करने संबंधी नाम सरकार को भेजे थे. लेकिन सरकार की तरफ से कुछ नामों पर ऐतराज जताते हुए इस पर पुनर्विचार करने को कहा गया. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे अपने अधिकार-क्षेत्र में गैर जरूरी दखलंदाजी माना और वह अब भी उन्हीं नामों को मंजूरी देने पर अड़ा हुआ है.
इस बीच रिजिजू ने सुप्रीम कोर्ट के CJI को एक पत्र लिखा, जिसे लेकर वे विपक्ष के निशाने पर आ गए थे. विपक्षियों के मुताबिक, उनके पत्र में कथित तौर पर कॉलेजियम में सरकार का प्रतिनिधि रखने की मांग की गई थी. हालांकि रिजिजू ने सोमवार को इसका खंडन करते हुए कहा कि इस बात का कोई सिर पैर नहीं है. मैं भला कहां से उस प्रणाली में एक और व्यक्ति डाल दूंगा? लिहाजा, ये सवाल उठना लाजिमी है कि वे कॉलेजियम में अगर सरकार का नुमाइंदा रखवाना नहीं चाहते, तो फिर उसमें आखिर किस तरह का सुधार करवाना चाहते हैं और उन्हें मौजूदा सिस्टम से क्या दिक्कत है? लेकिन सोमवार को रिजिजू ने एक साथ दो विरोधाभासी बातें कही हैं.
एक तरफ तो उन्होंने न्यायपालिका को स्वतंत्र रखने की वकालत करते हुए कहा कि भारत में लोकतंत्र सिर्फ जीवित ही नहीं बल्कि मजबूती से आगे चले, उसके लिए एक मज़बूत और आज़ाद न्यायपालिका का होना जरूरी है. न्यायपालिका की आज़ादी को कमज़ोर या उसके अधिकार, सम्मान और गरिमा को कम करेंगे तो लोकतंत्र सफल नहीं होगा.
वहीं दूसरी तरफ रिजिजू ने न्यायपालिका पर सीधा निशाना साधते हुए कहा, ''जज, अपने फैसलों और जिस तरह से वे न्याय देते हैं और अपना आकलन करते हैं, जनता उसे देखती है. सोशल मीडिया के इस दौर में कुछ भी छिपा नहीं रह सकता.'' साथ ही उन्होंने ये भी जोड़ दिया कि आज जो सिस्टम चल रहा है, उस पर कोई सवाल नहीं उठाएगा या फिर कोई सवाल नहीं उठेंगे, ऐसा सोचना गलत है.
हालांकि कानून मंत्री ने सफाई दी है कि सरकार और न्यायपालिका के बीच कोई समस्या नहीं है और दोनों के मतभेदों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है. लेकिन साथ ही उन्होंने ये इशारा भी दे दिया है कि कॉलेजियम सिस्टम में सुधार के लिए सरकार संविधान में संशोधन कर सकती है. उनके मुताबिक हमारी सरकार और पहले की सरकारों ने जरूरत पड़ने पर संविधान के अनुच्छेद में भी बदलाव किया है. इसलिए कभी भी बदलाव को नकारात्मक तरीके से ही नहीं देखना चाहिए. लेकिन इस विवाद के बीच सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार जजों के बारे में सारी जानकारी को सार्वजनिक करने का फैसला लेकर इस टकराव को और बढ़ा दिया है.
दो दिन पहले ही सूत्रों के हवाले से एक न्यूज चैनल ने ये ख़बर प्रसारित की है कि केंद्र सरकार की आपत्तियों का जवाब देने के लिए चीफ जस्टिस की अगुवाई में कॉलेजियम ने तय किया कि इस बार सारे मामले सार्वजनिक किए जाएं. इससे खुफिया एजेंसियों में बेचैनी पैदा हो गई है. दरसअल, केंद्र सरकार की आपत्तियों को सार्वजनिक नहीं करने की ही प्रथा अब तक रही है.
सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के पदों के लिए संभावित उम्मीदवारों की खुफिया छानबीन होती है लेकिन खुफिया एजेंसियों की गोपनीयता को बनाए रखने की प्रथा का पालन किया जाता है. हालांकि, अब इन सभी बातों के खुलासे ने सरकार के भीतर बड़ी चिंता पैदा कर दी है, जिसे लगता है कि इसका खुलासा नहीं किया जाना चाहिए था और सार्वजनिक रूप से इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए था.
गौरतलब है कि कॉलेजियम की ओर से सीनियर एडवोकेट सौरभ कृपाल को जज के तौर पर नियुक्ति देने की सिफारिश पर केंद्र सरकार ने आपत्ति जताई थी. सरकार ने सौरभ के विदेशी पार्टनर होने के चलते सुरक्षा के मद्देनजर कॉलेजियम से उनके नाम पर फिर विचार करने के लिए कहा था. विदेशी पार्टनर होने के चलते इंटेलिजेंस ब्यूरो ने भी सौरभ के खिलाफ ही रिपोर्ट दी थी. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट भी अड़ गया. कॉलेजियम ने हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति में RAW और IB रिपोर्ट को भी सार्वजनिक कर दिया. अब बड़ा सवाल ये है कि संवाद के जरिये ही इस टकराव का कोई समाधान निकलेगा या फिर सरकार संविधान में संशोधन करके कॉलेजियम सिस्टम में अपना प्रतिनिधि नियुक्त करके ही चुप बैठेगी?
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