सुप्रीम कोर्ट भी हो गया फिक्रमंद कि कहां चले गये सच उज़ागर करने वाले पत्रकार !
चार दिन बाद देश आजादी का अमृत महोत्सव बड़ी धूमधाम से मनायेगा लेकिन इस आज़ादी के क्या मायने हैं और फेक न्यूज के इस दौर में सच उज़ागर करने वाले पत्रकारों की आख़िर ज्यादा जरुरत क्यों है? इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने बेहद गंभीर बातें कही हैं, जिस पर मीडिया-जगत को गंभीरता से सोचने और उस पर अमल करने की जरूरत है.
तकरीबन तीन महीने बाद सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी संभालने वाले जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ अपनी बात मुखरता से रखने के लिए पहचाने जाते हैं. वे पहले भी ये कहकर निशाना साध चुके हैं कि सरकार पर जरुरत से ज्यादा यकीन करना ठीक नहीं है और बुद्धिजीवियों का ये फर्ज़ बनता है कि वे सरकार के झूठ को सामने लाएं.
हरियाणा के एक विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में छात्रों से मुखातिब होते हुए जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा है कि "फेक न्यूज़ और दुष्प्रचार के इस दौर में हमें ऐसे पत्रकारों की जरूरत पहले से कहीं अधिक है, जो हमारे समाज में अनदेखे को डॉक्यूमेंट करें और समाज-सरकार की गलतियों को उजागर करें. हमें इसे मानना ही होगा कि तथ्यों के साथ सच को उजागर करने वाले पत्रकारों की कमी हो गई है और उनकी जरूरत अब पहले से कहीं ज्यादा महसूस हो रही है.
दरअसल, जस्टिस चंद्रचूड़ की बातों की गहराई को पकड़ने की जरुरत है जिसके जरिये वे लोकतंत्र के दो महत्वपूर्ण स्तंभों को संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं. बेशक सोशल मीडिया में फेक न्यूज़ फैलाने का वर्चस्व है लेकिन मुख्य धारा के मीडिया में इस तरह का दुष्प्रचार कौन, किसकी शह पर और आखिर क्यों कर रहा है, ये सोचने वाली बात है. क्योंकि पिछले कुछ अरसे से विपक्षी दल सरकार पर लगातार ये आरोप लगाते रहे हैं कि कुछ खास न्यूज़ चैनलों पर होने वाली डिबेट का विषय ही सरकार के गलियारों से तय होता है.
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का दूसरा इशारा मीडिया की तरफ है कि आख़िर उसकी ऐसी क्या मजबूरी है कि वह सच उज़ागर करने वाले पत्रकारों को हाशिये पर धकेलते हुए सरकार के झूठ को भी उज़ागर करने से कुछेक मौकों पर डरता रहा है? मीडिया को समझाइश भरी सलाह देने के साथ ही न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाने के बहाने अपने अंदाज में आज़ादी के सही मायने बताने की कोशिश भी की है.
उनके मुताबिक स्वतंत्रता दिवस जैसा कोई दूसरा उत्सव हो ही नहीं सकता लेकिन ये सिर्फ आनुष्ठानिक यानी रस्म अदायगी वाला उत्सव बनकर न रह जाये, बल्कि हमें ये आत्म निरीक्षण करना होगा कि हम अपने संवैधानिक मूल्यों और आज़ादी दिलाने वाले महापुरुषों के आदर्शों को पूरा करने में कितना आगे बढ़े हैं.
इसलिये कि सिर्फ़ भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देशों का इतिहास बताता है कि न्यायिक सक्रियता यानी Judicial Activism और मुखर मीडिया, वहां की सरकारों की आंखों की किरकिरी हमेशा से बनता रहा है. इसलिये सरकारें दावे चाहे जितने करती रहें लेकिन उनका मकसद इन दोनों को अपने काबू में रखना ही होता है.
और जहां की सरकार इन दो स्तंभों को थोड़ा-सा भी कमजोर करने में कामयाब हो जाती है, वहां लोकतंत्र ICU में चला जाता है. लेकिन जस्टिस चंद्रचूड़ की इस मुखरता को देखकर लगता है कि वे अगले दो साल तक देश में ये नौबत तो नहीं ही आने देंगे. अगली 10 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस बनने के बाद वे पूरे दो साल तक इस पद पर रहेंगे.
अमृत महोत्सव के इस अवसर पर छात्रों के जरिये लोगों को आज़ादी के सही मायने का अर्थ समझाने के लिए जस्टिस चंद्रचूड़ ने संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर के एक कथन का उल्लेख करते हुए ये भी कहा कि जब तक हम सामाजिक लोकतंत्र को जीवन में नहीं उतारेंगे, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के तौर पर मान्यता नहीं देंगे, तब तक आज़ादी के कोई मायने नहीं हैं.
एक गणतंत्र राष्ट्र का क्या मतलब होता है, इसे जस्टिस चंद्रचूड़ ने एक उदाहरण के जरिये समझाते हुए हुए कहा कि जब बेंजामिन फ्रैंकलिन 1787 में संवैधानिक सम्मेलन छोड़ रहे थे, तो एक महिला ने उनसे मुलाकात की और पूछा कि संवैधानिक सम्मेलन ने किस प्रकार की सरकार पर विचार किया था. उन्होंने जवाब दिया कि एक गणतंत्र, यदि आप इसे सहेज सकें. उनका वह जवाब आज भारत में हम सभी के लिए बेहद अहम है.
पिछले साल कोरोना की दूसरी और तीसरी लहर के दौरान हुई मौतों के आंकड़ों को लेकर जब सरकार पर झूठ बोलने के आरोप लग रहे थे,तब भी जस्टिस चंद्रचूड़ बेहद मुखर थे. बीते साल 28 अगस्त को उन्होंने एक समारोह में कहा था कि बुद्धिजीवियों का कर्तव्य है कि वे सरकार के झूठ को सामने लाएं.
यह एक लोकतांत्रिक देश है और किसी भी गलत खबर या एजेंडे के लिए सरकार की जिम्मेदारी तय करना जरूरी है. कोरोना के आंकड़ों से छेड़छाड़ की बात करते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि जरूरत से ज्यादा सरकार पर यकीन करना ठीक नहीं है. सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सच को हासिल करने के लिए सरकार पर जरूरत से ज्यादा विश्वास केवल निराशा ही देगा.
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