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महाराष्ट्र राजनीति पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला: स्पीकर के अधिकार और अनुच्छेद 179 की स्पष्टता को लेकर है मील का पत्थर

महाराष्ट्र की राजनीति और शिवसेना से संबंधित मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश बहुत कुछ कहता है. सतही स्तर पर हम ये बात जरूर कह सकते हैं कि देश की सर्वोच्च अदालत से महाराष्ट्र की एकनाथ शिंदे सरकार को राहत मिली है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट का फैसले को महज़ इस नजरिए से देखना उस फैसले के महत्व को कम करने जैसा है.

जब हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर विस्तार से गौर करते हैं, इससे संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति संतुलन बनाया गया है, दरअसल उसकी व्याख्या होती है. सबसे महत्वपूर्ण बात ये हैं कि 2022 में महाराष्ट्र में जिस तरह से महा विकास अघाड़ी (MVA) की सरकार चली जाती है और बाद में एकनाथ शिंदे की अगुवाई में बीजेपी और शिंदे गुट की सरकार बनती है, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में जो-जो कहा है, एक प्रकार से उस वक्त की पूरी प्रक्रिया और घटनाओं पर सवाल भी खड़े होते हैं.

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 5 सदस्यीय संवैधानिक  पीठ ने महाराष्ट्र राजनीतिक संकट पर 11 मई को सर्वसम्मति से फैसला सुनाया. इस पीठ में जस्टिस एम आर शाह, जस्टिस कृष्ण मुरारी, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पी एस नरसिम्हा शामिल थे. सबसे पहले समझते हैं कि संविधान  पीठ ने तमाम दलीलों और टिप्पणियों  के बाद अपने फैसले में क्या निष्कर्ष निकाला है.  सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में 9 निष्कर्ष निकाले हैं, जो इस प्रकार हैं:

  1. नबाम रेबिया ((supra) फैसले की समीक्षा के लिए 7 जजों की बड़ी पीठ को भेजा जाता है.
  2. सुप्रीम कोर्ट पहली बार में दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता के लिए याचिकाओं का निर्णय नहीं कर सकता है. मौजूदा मामले में ऐसी कोई असाधारण परिस्थितियां नहीं हैं जो अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय लेने के लिए इस न्यायालय द्वारा अधिकार क्षेत्र के प्रयोग की गारंटी देती हैं. स्पीकर को  उचित अवधि के अंदर अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय लेना चाहिए.
  3. अयोग्यता के लिए किसी भी याचिका के लंबित होने की परवाह किए बिना एक विधायक को  सदन की कार्यवाही में भाग लेने का अधिकार है. इन्टर्रेग्नम के वक्त सदन की कार्यवाही की वैधता अयोग्यता से जुड़ी याचिकाओं के नतीजों पर निर्भर नहीं है. यहां इन्टर्रेग्नम से मतलब एक सरकार के जाने और दूसरी सरकार के बनने के बीच के अंतराल से है.
  4. व्हिप और सदन में दल के नेता की नियुक्ति विधायक दल नहीं बल्कि राजनीतिक दल करता है. इसके अलावा, एक विशेष तरीके से मतदान करने या मतदान से दूर रहने का निर्देश राजनीतिक दल द्वारा जारी किया जाता है न कि विधायक दल द्वारा. 3 जुलाई 2022 को महाराष्ट्र विधान सभा के उप सचिव की ओर से स्पीकर के फैसले की दी गई जानकारी कानून के विपरीत है. इस संबंध में जांच करने के बाद और इस फैसले में चर्चा किए गए सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए स्पीकर व्हिप और नेता को मान्यता देंगे, जिन्हें राजनीतिक दल शिवसेना की ओर से पार्टी संविधान के प्रावधानों के संदर्भ में विधिवत तरीके से अधिकृत किया गया हो.
  5. स्पीकर और भारत के निवार्चन आयोग (ECI) को दसवीं अनुसूची और सिंबल ऑर्डर के पैराग्राफ 15 के तहत उनके सामने आई याचिकाओं पर निर्णय लेने का अधिकार है.
  6. सिंबल ऑर्डर के पैराग्राफ 15 के तहत याचिकाओं पर फैसला सुनाते हुए, सामने रखे गए तथ्य और परिस्थितियों के हिसाब से जो सबसे उपयुक्त हो चुनाव आयोग उस परीक्षण को लागू कर सकता है.
  7. दसवीं अनुसूची के पैराग्राफ 3 के हटने (deletion) का प्रभाव यह है कि अयोग्यता की प्रक्रिया का सामना कर रहे सदस्यों के लिए 'विभाजन' का बचाव अब उपलब्ध नहीं है. जहां दो या दो से अधिक गुट दावा करते हैं कि वो असली राजनीतिक दल है, वैसे हालात में स्पीकर प्राइमा फेसिया यह तय करेंगे कि दसवीं अनुसूची के पैराग्राफ 2 (1) के तहत अयोग्यता से जुड़ी याचिकाओं पर फैसला करते वक्त वास्तविक राजनीतिक दल किसे माना जाए.
  8. सदन में बहुमत साबित करने के लिए राज्यपाल का उद्धव ठाकरे को बुलाना उचित नहीं था क्योंकि उनके पास वस्तुनिष्ठ सामग्री से इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए कोई कारण नहीं था कि उद्धव ठाकरे ने सदन का विश्वास खो दिया है. हालांकि यथास्थिति बहाल नहीं की जा सकती क्योंकि उद्धव ठाकरे ने फ्लोर टेस्ट का सामना नहीं किया और अपना इस्तीफा दे दिया था.
  9. राज्यपाल का एकनाथ शिंदे को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने का फैसला सही था.

जून 2022 में महाराष्ट्र की राजनीतिक में उथल-पुथल हुआ था. उद्धव ठाकरे की अगुवाई में वहां शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी के गठबंधन महा विकास अघाड़ी की सरकार चल रही, लेकिन अचानक एकनाथ शिंदे की अगुवाई में शिवसेना में दो फाड़ हो जाता है. कई दिनों के नाटकीय घटनाक्रम के बाद आखिरकार उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे देते हैं. फिर शिंदे गुट और बीजेपी की सरकार बनती है और उद्धव ठाकरे से अलग हुए एकनाथ शिंदे 30 जून को महाराष्ट्र के नए मुख्यमंत्री बन जाते हैं. बाद में तीन जुलाई को राहुल नार्वेकर स्पीकर बनते हैं.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से पूरे प्रकरण में तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी और महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर राहुल नार्वेकर की भूमिका पर सवालिया निशान लगता है. हालांकि यहां हम बात स्पीकर पद से जुड़े मसलों की करेंगे.

हमारे संविधान के भाग 6 में अनुच्छेद 178 से लेकर अनुच्छेद 181 तक विधानसभा के स्पीकर और डिप्टी स्पीकर के बारे में प्रावधान किए गए हैं. इन अनुच्छेदों में स्पीकर और डिप्टी स्पीकर की नियुक्ति, इस्तीफा, पद से हटाने से जुड़े तमाम प्रावधान हैं.  इसके साथ ही दल बदल कानून जिसे हम 10वीं अनुसूची के नाम से भी जानते हैं, उसमें विधायकों की दल परिवर्तन के आधार पर अयोग्यता से जुड़े मामलों में फैसला करने का अधिकार स्पीकर को मिला हुआ है.

महाराष्ट्र की राजनीति पर सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है, उससे एक बात निकल कर आई है कि सुप्रीम कोर्ट चाहता है कि संविधान के अनुच्छेद 179 से लेकर अनुच्छेद 181 में किए गए प्रावधानों में और स्पष्टता आए. साथ इन अनुच्छेदों का 10वीं अनुसूची के साथ तालमेल से जुड़े मुद्दों पर भी कोई संशय नहीं रहे. इसी बात को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ये माना है कि 2016 के नबाम रेबिया केस में सर्वोच्च अदालत के फैसले की समीक्षा होनी चाहिए. चूंकि नबाम रेबिया केस में 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने फैसला दिया था. इस वजह से अब सुप्रीम कोर्ट ने इसे उससे बड़ी पीठ के पास भेजने का फैसला किया है जो 7 सदस्यीय संविधान पीठ होगी.

2016 के नबाम रेबिया केस में सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने जो आदेश दिया था, उससे ये बात निकल कर आई थी कि कोई स्पीकर 10वीं अनुसूची के तहत विधायकों को लेकर अयोग्यता की कार्यवाही शुरू नहीं कर सकता है, जब उसे पद से हटाने के लिए प्रस्ताव लाने के लिए नोटिस दिया हुआ हो.

महाराष्ट्र से जुड़े फैसले में कोर्ट ने कहा है कि स्पीकर का पद खाली होने की वजह से अनुच्छेद 180 के तहत डिप्टी स्पीकर नरहरी झिरवाल स्पीकर पद की जिम्मेदारी निभा रहे थे. उनको अनुच्छेद 179 के तहत पद से हटाने के लिए प्रस्ताव देने से जुड़ा नोटिस 22 जून को जारी हुआ था. जबकि उद्धव गुट की ओर से इसके अगले दिन 23 जून को कुछ एमएलए की अयोग्यता के लिए याचिकाएं  फाइल की गई थी. सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि महाराष्ट्र के डिप्टी स्पीकर नरहरी झिरवाल, नबाम रेबिया केस के फैसलों पर बिना विचार किए ही अयोग्यता से जुड़ी याचिकाओं पर आगे बढ़ रहे थे. हालांकि शीर्ष अदालत ने ये भी कहा कि जैसे ही राहुल नार्वेकर स्पीकर बन जाते हैं, अयोग्यता पर फैसला लेने का अधिकार उनका हो जाता है.

सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि नबाम रेबिया केस को बड़ी पीठ में भेजा जाना चाहिए क्योंकि अयोग्यता पर स्पीकर के अधिकार से जुड़े मुद्दे पर कानून का महत्वपूर्ण प्रश्न सुलझाया जाना बाकी है. सुप्रीम कोर्ट ने ये भी माना कि 1992 के किहोतो होलोहन (Kihoto Hollohan) केस और नबाम रेबिया केस में दिए गए आदेश में विरोधाभास है और इसे दूर बड़ी पीठ के जरिए किया जाना जरूरी है. किहोतो होलोहन केस के मुताबिक चाहे स्पीकर को हटाने से जुड़े प्रस्ताव को पेश करने को लेकर नोटिस दी गई हो या नहीं, इन सबके बावजूद स्पीकर के अयोग्यता पर निर्णय करने के अधिकार को लेकर कोई फर्क नहीं पड़ता है. जबकि नबाम रेबिया केस से ये हालात बदल गए. उसके मुताबिक वैसे हालात में स्पीकर के निष्पक्ष रहने को लेकर कोर्ट की नजर में संशय बरकरार है. सुप्रीम कोर्ट इस मसले पर किसी भी तरह के संशय को दूर करना चाहती है.

अनुच्छेद 179 (c) में ही विधानसभा के स्पीकर या डिप्टी स्पीकर को हटाने से जुड़ा प्रावधान है. इसके मुताबिक किसी स्पीकर को विधानसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प के जरिए  पद से हटाया जा सकता है. महाराष्ट्र पर फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि इस अनुच्छेद में शामिल 'तत्कालीन समस्त सदस्यों' को लेकर और स्पष्टता की जरूरत है. जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने नबाम रेबिया केस को बड़ी बेंच पर भेजने का फैसला किया है, उससे आने वाले वक्त में 'तत्कालीन समस्त सदस्यों' को लेकर जो विरोधाभास बना हुआ है, उस पर स्पष्टता आएगी.

संविधान में एक और अनुच्छेद है जिस पर सुप्रीम कोर्ट और स्पष्टता चाहती है. अनुच्छेद 181 में ये व्यवस्था है कि जब किसी स्पीकर को पद से हटाने से जुड़ा कोई प्रस्ताव विचाराधीन हो तो वो सदन की बैठक की अध्यक्षता नहीं कर सकता है. सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि नबाम रेबिया केस में  अनुच्छेद 181 के प्रभाव पर विचार नहीं किया गया है. सुप्रीम कोर्ट ये भी स्पष्टता चाहती है कि क्या अनुच्छेद 181 के अलावा स्पीकर  के कामकाज पर संविधान किसी और तरह से कोई बंधन या सीमा लगाता है.

अनुच्छेद 179 में ये भी प्रावधान है कि जब कभी विधानसभा का विघटन किया जाता है; तो विघटन के पश्चात होने वाले विधानसभा के प्रथम अधिवेशन के ठीक पहले तक स्पीकर अपने पद पर बना रहता है. सवाल उठता है कि क्या इस दौरान 10वीं अनुसूची के तहत स्पीकर एमएलए की अयोग्यता से जुड़ी याचिकाओं पर कोई फैसला ले सकता है.  महाराष्ट्र पर फैसले देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि अब तक इस कोर्ट ने इस मुद्दे पर विचार नहीं किया है. नबाम रेबिया केस को बड़ी पीठ के पास भेजने की एक वजह ये भी है कि इस मसले पर स्पष्टता हो.

महाराष्ट्र विधानसभा नियमावली के मुताबिक नियम 11 के तहत  14 दिन का नोटिस पीरियड खत्म हो जाने पर तो स्पीकर को हटाने से जुड़े प्रस्ताव को पेश करने के लिए तभी अनुमति दी जा सकती है, जब उसके पक्ष में कम से कम 29 सदस्य होते हैं. सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि अब तक इस कोर्ट ने इस पर विचार नहीं किया है कि क्या नोटिस से जुड़ी अवधि के दौरान स्पीकर के पास अयोग्यता से जुड़ी याचिकाओं पर निर्णय करने का अधिकार है या नहीं. सुप्रीम कोर्ट बड़ी पीठ के जरिए इसकी भी व्याख्या चाहती है कि कोई सदस्य स्पीकर को पद से हटाने से जुड़ा प्रस्ताव लाने के इरादे से नोटिस देता है तो उसके बाद स्पीकर की क्या स्थिति रहनी चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि नबाम रेबिया केस में स्पीकर के अधिकार क्षेत्र से जुड़ा एक और पहलू है जिस पर गौर नहीं किया गया है. अगर विधायकों को पहले से ये एहसास हो कि उनके खिलाफ अयोग्यता याचिकाएं दायर की जाएंगी या फिर दायर की जा चुकी हों, वैसे में विधायकों की ओर अयोग्यता से बचने के लिए स्पीकर को हटाने से जुड़ा नोटिस दिया जाता है. इन हालात में क्या विधायक इसके जरिए स्पीकर के अधिकारों से खिलवाड़ करने की कोशिश कर सकते हैं. एक तरह से ये स्पीकर को हटाने के लिए नोटिस के दुरुपयोग होने के खतरे से जुड़ा मामला है. सुप्रीम कोर्ट इस मसले पर भी चाहती है कि बड़ी पीठ विचार करे.

साथ ही सुप्रीम कोर्ट ये भी स्पष्टता चाहती है कि जब स्पीकर पर अयोग्यता से जुड़ी याचिकाओं पर विचार करने के लिए अस्थायी तौर रोक लगी हुई हो, तो क्या इस स्थिति में दसवीं अनुसूची के तहत कार्रवाई पर संवैधानिक अंतराल या गैप की स्थिति बन जाएगी. बड़ी पीठ के जरिए सुप्रीम कोर्ट इस मसले पर भी व्याख्या चाहती है.

स्पीकर का पद संभालते ही राहुल नार्वेकर ने उद्धव ठाकरे गुट से अजय चौधरी के शिवसेना विधायक दल के नेता के तौर पर दी गई मान्यता को रद्द कर देते हैं और उनकी जगह एकनाथ शिंदे की नियुक्ति को मान्यता  दे देते हैं. उसके साथ ही स्पीकर सुनील प्रभु की जगह शिंदे गुट के भरत गोगावले को शिवसेना के चीफ व्हिप की मान्यता दे देते हैं. इसकी जानकारी 3 जुलाई को ही डिप्टी स्पीकर की ओर से सदन को दे दी जाती है. 3 जुलाई को स्पीकर बनते ही राहुल नार्वेकर ने जिस तरह से चीफ व्हिप और विधायक दल के नेता के मुद्दे पर जिस तरह से आगे बढ़े,  सुप्रीम कोर्ट के आदेश  से ये साफ है कि वो प्रक्रिया सही नहीं थी.  ऊपर जिन निष्कर्षों की बात की गई है, उनमें से चौथे निष्कर्ष में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि व्हिप और सदन में दल का नेता कौन होगा ये पार्टी के एमएलए तय नहीं कर सकते हैं, बल्कि ये अधिकार राजनीतिक दल को होता है.  यहां पर भी सुप्रीम कोर्ट पूरी तरह से साफ कर दिया कि विधायक दल के नेता और चीफ व्हिप की नियुक्ति से जुड़ा मसला स्पीकर के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है, बल्कि ये राजनीतिक दल का अधिकार क्षेत्र है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले के चौथे निष्कर्ष में ये बाद स्पष्ट कर दी है.

महाराष्ट्र पर फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने दूसरे निष्कर्ष में  स्पष्ट कर दिया है कि दल-बदल के मामले में अयोग्यता से जुड़ी याचिकाओं पर स्पीकर को ही फैसला लेने का अधिकार है और स्पीकर के फैसला लेने से पहले उसमें सुप्रीम कोर्ट किसी प्रकार का दखल नहीं दे सकती है. एक तरह से ये विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति के संतुलन पर सुप्रीम कोर्ट ने ज़ोर दिया है. दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता  से जुड़ी याचिकाओं पर स्पीकर को कितने समय में फैसला ले लेना चाहिए, ये कही तय नहीं है. हालांकि महाराष्ट्र की राजनीति पर 11 मई को फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि स्पीकर को  उचित अवधि के अंदर अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय लेना चाहिए. यानी इस फैसले की बातों को खासकर उचित अवधि को लेकर भविष्य में अब हर स्पीकर को ध्यान रखना होगा. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ये भी साफ किया है कि स्पीकर अयोग्यता पर जो भी फैसला लेते हों, उन फैसलों की न्यायिक समीक्षा करने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास है. यानी जब अयोग्यता पर फैसला हो ज-ाए, तो संबंधित पक्ष राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला भविष्य में हर राज्य के स्पीकर के लिए एक नज़ीर रहेगा. साथ ही नबाम रेबिया केस की समीक्षा के बाद स्पीकर के अधिकार से जुड़े कई बिंदुओं पर स्पष्टता आएगी. दल-बदल से जुड़ी अयोग्यता याचिकाओं पर स्पीकर के संवैधानिक अधिकारों को लेकर जो संशय बना रहता है, उसे भी दूर करने के लिहाज से सुप्रीम कोर्ट का 11 मई का फैसला मील का पत्थर साबित होने वाला है.

(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)  

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