सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार यानी 11 मई को दो बड़े फैसले सुनाए. महाराष्ट्र में जहां सियासी उठापटक के बीच एकनाथ शिंदे गुट के 16 विधायकों को डिसक्वालिफाई करने से कोर्ट ने इंकार किया, वहीं यह भी कहा कि चूंकि उद्धव ठाकरे ने स्वैच्छिक तौर पर इस्तीफा दिया था, इसलिए वर्तमान सरकार को बर्खास्त नहीं किया जा सकता है. दूसरी तरफ, दिल्ली में केजरीवाल को ट्रांसफर-पोस्टिंग का अधिकार देकर सुप्रीम कोर्ट ने संकेत दे दिया है कि दिल्ली के असली बॉस 'केजरीवाल' ही हैं. क्या सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से दिल्ली सरकार की जवाबदेही बढ़ेगी या महाराष्ट्र में सियासी तूफान थमेगा, या दिल्ली की खींचतान और महाराष्ट्र का पॉलिटिकल ड्रामा अभी बदस्तूर चलता ही रहेगा?
दिल्ली में अंततः समन्वय ही चाहिए
सुप्रीम कोर्ट का दिल्ली के संबंध में जो फैसला है, वह हमारे संविधान के अनुच्छेद 239 (AA) के संदर्भ में है, जो दिल्ली और केंद्र के रिश्तों को पारिभाषित करता है. उसे आज सुप्रीम कोर्ट ने री-राइट कर दिया है. री-राइट कहने का मतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने यह साफ कर दिया है कि जो जमीन का, पब्लिक ऑर्डर, पुलिस का मसला है, वह केंद्र के पास रहेगा और बाकी जो भी विषय हैं, उस पर दिल्ली सरकार अपना फैसला ले सकती है. खासकर, ब्यूरोक्रेट्स के बारे में. दिल्ली सरकार का मुद्दा भी यही था कि जो अधिकारी दिल्ली सरकार में पोस्टेड थे, उनको दिल्ली सरकार अपने हिसाब से ट्रांसफर और पोस्टिंग नहीं दे पाते थे. सुप्रीम कोर्ट ने सबसे बड़ा फैसला यही दिया है कि दिल्ली सरकार अब ये कर सकती है. ट्रांसफर या पोस्टिंग का अधिकार न होने से किसी भी राज्य सरकार को कुछ तकनीकी मामलों में दिक्कत आ सकती है, लेकिन यह बहुत ज्यादा बदलाव का कारण नहीं है. अधिकारी अ हो या स हो, अगर कोई काम होना है, और जो कंसर्न्ड ऑफिसर है, वह भी अपने हिसाब से ही करता है, तो यह कुछ खास बड़ी बात नहीं है. सेट्रल गवर्नमेंट के किसी मंत्री के दबाव से या किसी और वजह से अधिकारी प्रभावित हो जाएगा, ऐसा नहीं है.
इसकी वजह समझनी चाहिए. ब्यूरोक्रेट की भी एक जिम्मेदारी, एक अकाउंटेबिलिटी होती है. वह अधिकारी है और अगर किसी गलत काम को वह अंजाम देता है, तो कल को वह सीधा जिम्मेदार पाया जाएगा न. हमने देखा तो है. बहुतेरे आइएएस, आइपीएस ऑफिसर सीधे अकाउंटेबल ठहराए गए हैं. उनकी संतुष्टि तो वैसे भी अनिवार्य है. हालांकि, सरकार को भी उतना ही होशियार रहने की जरूरत है. कोई भी पॉलिसी जो है, वह तो ब्यूरोक्रेट के माध्यम से ही अंजाम तक पहुंचाना है. हां, इतनी सहूलियत जरूर हो गयी है कि जो यह महसूस होता था कि जो ऑफिसर्स के संदर्भ में यह महसूस होता था कि फलाना अधिकारी काम नहीं कर रहा है, तो उसे हटा दें या बदल दें तो वह एक संतुष्टि हो गई. अब आप एक अधिकारी की जगह दूसरे को ला सकते हैं, हालांकि इसकी कोई गारंटी नहीं है कि दूसरा अधिकारी जो आएगा, वह आपके मन-मुताबिक ही काम करेगा.
बदलेगा पब्लिक-परसेप्शन, दिल्ली सरकार बने जिम्मेदार
लोगों की नजर में जो एक मसला था कि मौका नहीं दिया जा रहा है, काम करने का, तो दिल्ली सरकार की अब जिम्मेदारी बढ़ेगी. अब दिल्ली सरकार यह नहीं कह सकती कि एलजी तंग कर रहे हैं या भारत सरकार के हस्तक्षेप की वजह से काम नहीं हो पा रहा है. उनके पास अब बहाने नहीं रहेंगे और उनको संभलकर काम करना होगा. अभी तक तो दिल्ली सरकार यह परसेप्शन बना रही थी कि उनको काम करने नहीं दिया जा रहा है, तो उनकी जिम्मेदारी भी बढ़ी है. अब उनको जब फ्री हैंड दिया गया है कि अपनी इच्छा के मुताबिक पोस्टिंग-ट्रांसफर करें, तो अब वह सवालों के घेरे में भी आएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने आज की तारीख में लक्ष्मणरेखा तो खींच दी है, लेकिन जो तीन विषय हैं- जमीन, पब्लिक ऑर्डर और पुलिस, ये भी किसी सरकार को चलाने के लिए मेजर मुद्दे हैं. अगर लॉ एंड ऑर्डर आपके पास नहीं है, लैंड नहीं है, पुलिस नहीं है तो आपके पास बहुत दिक्कतें हैं. जैसे, आपके पास लैंड नहीं है तो आप किसी भी काम के लिए जमीन का अधिग्रहण नहीं कर सकते, उसे दे नहीं सकते. उसी तरह कानून-व्यवस्था का मसला है, तो बेहतर है कि समझदारी से और समन्वय बिठाकर काम किया जाए. विवाद से कोई बात नहीं बनेगी, क्योंकि आखिरकार जनता ही पीड़ित होती है.
सुप्रीम कोर्ट ने उद्धव के 'स्वैच्छित त्यागपत्र' को बनाया मुद्दा
महाराष्ट्र को लेकर जो फैसला आया है सुप्रीम कोर्ट का, उसमें जो 'बोन ऑफ कनटेन्शन' था और जो फैसला आया है, उसका मुख्य निचोड़ यही है कि उद्धव ठाकरे ने जो अपनी इच्छा से त्यागपत्र दिया था और कैबिनेट भंग हो गई थी, तो मुख्यमंत्री की अनुपस्थिति में एकनाथ शिंदे को कानूनी तौर पर लीडर बनाया गया. सुप्रीम कोर्ट ने इसी को मुद्दा बनाया. जहां तक 16 विधायकों की बात थी, जिस पर उद्धव ठाकरे गुट आस लगाए था, उस पर भी अधिक बात नहीं हुई. मुख्य मुद्दा बन गया- स्वैच्छिक तरीके से उद्धव का इस्तीफा देना. तो, एक सरकार का बनना तो जरूरी ही था. जब कैबिनेट डिजॉल्व हो गई और वहां सरकार नहीं रही, तो एकनाथ शिंदे का चुना जाना तो फ्रेश ही माना जाएगा. यही बात एकनाथ शिंदे के फेवर में गई औऱ फिलहाल उनको राहत मिल गई है.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)