महिलाएं स्वतंत्रता, समानता, मौलिक अधिकार, सामाजिक समता, व्यक्तिगत सम्मान व गरिमा की लड़ाई आदिकाल से लड़ रही हैं. आदिकाल से लेकर आधुनिक कालखंड में जब-जब महिलाओं ने अपने स्वातांत्रिक हकों के लिए आवाज उठाईं, कभी धार्मिक आडंबर से, कभी सांस्कृतिक आवरणों से, कभी सामाजिक बंदिशों से, कभी पारिवारिक बेड़ियों से, कभी व्यक्तित्व पर प्रहारों से, तो कभी दैहिक मुक्ति के छद्म वैचारिकता से उनकी आवाजों को दमित कर दिया गया. सदियों से न जाने कितनी बंदिशों-बेड़ियों का सामना महिलाएं करती रही हैं. महिलाओं के स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास में परिवार से लेकर समाज तक हमेशा अड़चनें रही हैं. आधुनिक विश्व के अनेक प्रोग्रेसिव देशों में यूं तो महिलाओं को अनेक कानूनी अधिकार मिले हैं, लेकिन एक तो वे महिलाओं के सामाजिक व आर्थिक स्वतंत्रता व आत्मनिर्भरता के लिए काफी नहीं हैं, दूसरी वे महिलाओं की व्यक्तिगत व सामाजिक गरिमा की रक्षा नहीं करते हैं.


भारत ऐसा आधुनिक देश है, जहां महिलाओं के लिए कानूनी अस्त्र तो बहुत हैं, लेकिन उनकी सामाजिक, आर्थिक व व्यक्तिगत गरिमा व सम्मान की रक्षा का कोई मान्य तंत्र नहीं है. इसलिए भारत में महिलाओं को पग-पग पर अपनी गरिमा के भंजन का दंश झेलना पड़ता है, लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है. भारत में महिलाएं पुरुषों के क्रोध व अहंकार तो महिलाओं की ईष्र्या व घृणा की शिकार होती हैं. क्रोध, अहंकार, ईष्र्या और घृणा की अभिव्यक्ति के दौरान महिलाओं के लिए अनेक अपमानजनक शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं. देश की सर्वोच्च अदालत ने महिलाओं की गरिमा का सम्मान करते हुए व उसकी पहचान की रक्षा करते हुए उनके लिए प्रयुक्त होने वाले अनेक अपमानजनक शब्दों के इस्तेमाल पर रोक लगा दी है. सुप्रीम कोर्ट ने गत बुधवार को अदालती फैसलों में रूढ़िवादी शब्दों के इस्तेमाल से निपटने के लिए एक हैंडबुक जारी की है, जिसमें अनुचित लैंगिक शब्दों की लिस्ट दी गई है और इनकी जगह वैकल्पिक शब्द और वाक्यांश सुझाए गए हैं, जिनका उपयोग किया जाएगा.



सुप्रीम कोर्ट की हैंडबुक के मुताबिक, महिलाओं के लिए प्रयुक्त शब्द छेड़छाड़, वेश्या, हाउस वाइफ, आश्रित महिला, बिन ब्याही मां, उत्तेजक ड्रेस, इंडियन-वेस्टर्न वूमन, ईव टीजिंग, रखैल आदि शब्द कानूनी शब्दावली से बाहर होंगे. चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने ‘हैंडबुक ऑन कॉम्बैटिंग जेंडर स्टीरियोटाइप्स’ (लैंगिक रूढ़िवादिता से निपटने संबंधी पुस्तिका) प्रस्तुत करते हुए लैंगिक असमानता और महिलाओं की पहचान को बताने के लिए इस्तेमाल होने वाले 43 अपमाजनक शब्द प्रयुक्त नहीं करने की बात कही है. सीजेआई ने निर्देश दिया है कि कोर्ट रूम में ऐसे रुढ़िवादी शब्दों का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए जो महिलाओं को लेकर हमारी संकीर्ण सोच को दिखाती है. उन्होंने कहा कि कानूनी पेशे में रहते हुए खुद उन्होंने ऐसे शब्दों का सामना किया है, जहां मिस्ट्रेस, व्याभिचारिणी जैसे शब्द इस्तेमाल किए जाते रहे हैं.


चीफ जस्टिस ने कहा कि हमारा उद्देश्य लैंगिक भेदभाव को कम करने और स्त्रियों के प्रति एक ज्यादा संवेदनशील नजरिए को अपनाने की कोशिश करना है. सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील एम.एल. लाहौटी बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने इस ओर जो कदम उठाया है यह बेहद प्रगतिशील कदम है, यह जरूरी था. कई बार जजमेंट में इस तरह से शब्द जैसे वेश्या या रखैल शब्द का इस्तेमाल होने से असहजता महसूस होती रही है. समाज तेजी से बदल रहा है और ऐसे में इस तरह के शब्दों पर लगाम लगाना जरूरी भी था. उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि इस हैंडबुक का उद्देश्य जजों और लीगल कम्युनिटी के सदस्यों को महिलाओं के बारे में हानिकारक रूढ़िवादी सोच को पहचानने, समझने और उसका प्रतिकार करने के लिए सशक्त बनाना है. हैंडबुक में लैंगिग रूप से अनुचित शब्दों के बदले और दलीलों, आदेशों और निर्णयों सहित कानूनी दस्तावेजों में उपयोग के लिए उनके वैकल्पिक शब्द और प्रस्तावित वाक्यांश (फ्रेज) दिए गए हैं. 30 पेजों वाली हैंडबुक महत्वपूर्ण मुद्दों, विशेषकर यौन हिंसा से जुड़े मुद्दों पर प्रचलित कानूनी सिद्धांत को भी समाहित करती है.



हैंडबुक के मुताबिक अब वेश्या के लिए यौन कर्मी, उत्तेजक ड्रेस के बदले केवल ड्रेस, व्यभिचारिणी के बदले केवल महिला, अविवाहित मां के बदले केवल मां, अनैतिक व्यवहार की महिला के बदले केवल महिला, अप्राकृतिक संबंध के लिए यौन संबंध, हाउसवाइफ के बदले होममेकर, इंडियन या वेस्टर्न वुमन के लिए केवल महिला, ईव टीजिंग (छेड़छाड़) के लिए सड़क पर यौन उत्पीड़न, रखैल (कीप) के लिए विवाहेतर संबंध, परपुरुष गामिनी (एडल्टेरेस) व अफेयर के लिए शादी से बाहर संबंध, नाजायज औलाद के लिए ऐसा बच्चा जिसके पैरंट्स ने शादी न की हो, बाल वेश्या के लिए ऐसे बच्चे जिनका ट्रैफिकिंग कराया जा रहा हो, मायाविनी या बदचलन औरत के लिए केवल महिला आदि शब्द प्रयुक्त होंगे. देह व्यापार और वेश्या जैसे शब्दों के इस्तेमाल पर पूर्ण रोक लगाई गई है. समलैंगिक शब्द के बजाय, व्यक्ति के यौन रुझान का सटीक वर्णन करने वाले शब्द का इस्तेमाल किया जाएगा. सुप्रीम कोर्ट की नई शब्दावली महिला सम्मान और पहचान की दिशा में प्रगतिशील कदम है.


दरअसल, साल 2021 में अपर्णा भट्ट बनाम स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश केस में फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने लैंगिक भेदभाव वाले शब्दों के इस्तेमाल पर हिदायत दी थी. ट्रायल कोर्ट को निर्देश दिया गया था कि अदालती कार्रवाई में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए जो महिलाओं के लिए रुढ़िवादी नजरिए को बढ़ाता हो. कई नारीवादी संगठनों और व्यक्तिगत तौर पर भी कई बार बास्टर्ड, मिस्ट्रेस जैसे शब्दों के इस्तेमाल पर रोक के आशय से पीआईएल देश की अलग-अलग अदालतों में दाखिल किए गए थे. सुप्रीम कोर्ट के फैसले का आशय साफ है कि महिलाओं के लिए गरिमा के साथ शब्दों के प्रयोग हों.


दरअसल, निर्भया केस के बाद पूरे देश में बड़े पैमाने पर औरतों पर होने वाले अत्याचार और शारीरिक हिंसा की बहस उठी थी. इसके बाद भी कई बड़े बदलाव किए गए थे. नए कानून के अनुसार किसी महिला को गलत तरीके छूना, उससे छेड़छाड़ करना और अन्य किसी भी तरीके से यौन शोषण करना भी रेप में शामिल कर दिया गया. साथ ही बच्चों के साथ होने वाली यौन हिंसा के लिए एक नया कानून भी वजूद में आया, जिसका नाम है पॉक्सो एक्ट. सुप्रीम कोर्ट ने अब महिलाओं के लिए इस्तेमाल होने वाले लैंगिक भेदभाव की जगह पर एक तटस्थ और ज्यादा संवेदनशील शब्दों की सूची तैयार की है.


यह स्वागत योग्य है. समाज के हर क्षेत्र में महिलाओं के लिए किसी प्रकार के भेदभाव व अपमाजनक शब्दों का प्रयोग नहीं होना चाहिए. महिलाओं को भी पुरुष की तरह स्वतंत्र व्यक्तित्व माना जाना चाहिए और उनके साथ भी एक व्यक्ति की तरह व्यवहार होना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कानूनी शब्दावली के साथ साथ सामाजिक व्यवहार में महिलाओं के प्रति शब्दों क प्रयोग में परिवर्तन आएगा.



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