सुप्रीम कोर्ट को भी आखिर क्यों दोहरानी पड़ी 'ओशो' की चेतावनी?
दुनिया के सबसे विवादास्पद दार्शनिक ओशो रजनीश ने बरसों पहले अपने एक प्रवचन में कहा था, "राजनीति का अर्थ होता है: दूसरों को कैसे जीत लूं? धर्म का अर्थ होता है: स्वयं को कैसे जीत लूं? इसलिये धर्म और राजनीति बड़े विपरीत हैं. राजनीति के पास सारे विध्वंसात्मक हथियार हैं, जबकि धर्म नितांत कोमल है. राजनीति के पास हृदय नहीं है, धर्म शुद्ध हृदय है. वह ठीक वैसे ही है जैसे एक सुंदर गुलाब का फूल- जिसका सौंदर्य, जीवन को जीने योग्य बनाता है. लेकिन राजनीति पत्थर जैसी है- मृत. किंतु पत्थर फूल को नष्ट कर सकता है और फूल के पास कोई सुरक्षा नहीं है. राजनीति अधार्मिक है. इसलिये धर्म अकेला क्षेत्र है जहां राजनीति को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए."
हमारे देश की सुप्रीम कोर्ट ने कई बरसों बाद ओशो के उन विचारों को न सिर्फ जायज ठहराया है बल्कि एक तरह से उन्हें दोहराते हुए केंद्र समेत राज्य सरकारों की जमकर खिंचाई भी की है. हेट स्पीच यानी नफरती भाषण देने के एक मामले की सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा है कि जिस क्षण राजनीति और धर्म अलग हो जाएंगे और नेता राजनीति में धर्म का उपयोग बंद कर देंगे, उसी दिन नफरत फैलाने वाले भाषण भी बंद हो जाएंगे.
जस्टिस केएम जोसेफ और जस्टिस बीवी नागरत्ना की खंडपीठ ने नफरती भाषण देने वाले लोगों पर सख्त आपत्ति जताते हुए सवाल किया है कि लोग खुद को काबू में क्यों नहीं रखते हैं? हालांकि, ये भी सच है कि राजनीति का स्तर कितना नीचे गिरता जा रहा है और उसमें नफरत फैलाने की भाषा का इस्तेमाल जिस तेजी से बढ़ता जा रहा है, इसका अहसास समाज के अन्य वर्गों के साथ न्यायपालिका ने भी बेहद शिद्दत के साथ महसूस किया है. शायद इसीलिये न्यायालय को पुराने नेताओं के भाषणों की मिसाल देने पर मजबूर होना पड़ा. शीर्ष अदालत ने पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और अटल बिहारी वाजपेयी के भाषणों का जिक्र करते हुए कहा कि उनके भाषणों को सुनने के लिए दूर-दराज के इलाकों से लोग इकट्ठे होते थे.
न्यायाधीशों ने अपनी इस टिप्पणी से इशारा दिया है कि अलग-अलग विचारधारा होने के बावजूद उन नेताओं के भाषणों की भाषा संयत हुआ करती थी, जिसमें किसी दूसरे समुदाय के लिए नफरत फैलाने की जरा भी गुंजाइश नहीं होती थी. लेकिन पिछले कुछ दशक में राजनीति का जो रूप सामने आया है, उसने समाज में नफरत फैलाने की जो नई इबारत लिखी है वो आने वाली पीढ़ी के लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकती है. देश के पालनहारों की जुबान से निकले जहरीले बोल किसी भी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के सभ्य समाज के एक बड़े तबके को हिंसक बनाने में ज्यादा देर नहीं लगाते. दुर्भाग्य से, हमारी राजनीति उसी रास्ते पर आगे बढ़ रही है. लिहाजा लोकतंत्र का तीसरा व मजबूत स्तंभ कहलाने वाली न्यायपालिका का फिक्रमंद होना और सरकारों को इस पर लगाम कसने के लिए फटकार लगाने को कोई भी समझदार इंसान गैर वाजिब नहीं कहेगा. ऐसे नाजुक मसलों पर न्यायपालिका ने भी अपने मुंह पर अगर पट्टी बांध ली तो लोकतंत्र का वजूद ही खत्म हो जाएगा.
जस्टिस केएम जोसेफ ने कहा- हर रोज टीवी और सार्वजनिक मंचों पर नफरत फैलाने वाले बयान दिए जा रहे हैं. क्या ऐसे लोग खुद को कंट्रोल नहीं कर सकते? लाइव लॉ के मुताबिक, जस्टिस जोसेफ ने इस मामले में राज्य सरकार के रवैये पर भी तल्ख टिप्पणी की है. उन्होंने कहा, ''राज्य नपुंसक हैं. वे समय पर काम नहीं करते. जब राज्य ही ऐसे मसलों पर चुप्पी साध लेंगे तो फिर उनके होने का मतलब क्या है?''
दरअसल, शाहीन अब्दुल्ला नामक शख्स ने सुप्रीम कोर्ट में दायर अपनी याचिका में कहा था कि सर्वोच्च न्यायालय राज्यों को कई बार हेट स्पीच पर लगाम लगाने के आदेश दे चुका है. इसके बावजूद हिंदू संगठनों की हेट स्पीच पर लगाम लगाने में महाराष्ट्र सरकार विफल रही है. याचिकाकर्ता ने मांग की थी कि महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई की जाए. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, पिछली सुनवाई में याचिकाकर्ता के वकील निजामुद्दीन पाशा ने कोर्ट में कहा था कि महाराष्ट्र पुलिस को एक हिंदू संगठन के खिलाफ कार्रवाई करने का निर्देश दिया गया था, लेकिन इसके बावजूद अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है और वह संगठन पिछले चार महीने में 50 से अधिक रैलियां आयोजित कर चुका है.
पिछली सुनवाई में जस्टिस नागरत्ना ने कहा था कि हेट स्पीच को लेकर कोर्ट के आदेश के हर उल्लंघन पर सुप्रीम कोर्ट ध्यान नहीं दे सकता है. अगर हर छोटी अवमानना की याचिका पर सुनवाई होने लगे तो सुप्रीम कोर्ट देशभर से हजारों याचिकाओं से भर जाएगा. हालांकि, सुनवाई के दौरान जस्टिस जोसेफ ने इस बात पर जोर दिया कि अवमानना याचिका की सुनवाई होनी चाहिए.
गौरतलब है कि इससे पहले मंगलवार (28 मार्च) को हुई सुनवाई में कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा था कि हेट स्पीच के मामलों में सिर्फ FIR दर्ज करने से समाधान नहीं होगा. इसके लिए क्या कार्रवाई की गई, ये कोर्ट को बताएं. हेट स्पीच को लेकर पिछले महीने भी सुप्रीम कोर्ट ने तीखी टिप्पणी की थी. तब भी कोर्ट ने कहा था, "जब हेट क्राइम के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जाती है तो ऐसा माहौल बनाया जाता है जो बहुत खतरनाक है और इसे हमारे जीवन में जड़ से खत्म करना होगा. हेट स्पीच पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता है."
जिस खतरे को हमारी शीर्ष अदालत आज महसूस कर रही है, उसे हिंदी के मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने सालों पहले ही भांप लिया था. उन्होंने लिखा था- "दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है. इसका उपयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं. यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है. यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है, जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे. फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं. यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है. हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है और इसका उपयोग भी हो रहा है. आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है.”
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