बरसों पहले फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने लिखा था-
"बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुत्वाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक तेरी है
देख कि आहन-गर की दुकाँ में
तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्लों के दहाने
फैला हर इक ज़ंजीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है
जिस्म ओ ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले."
फ़ैज़ की कही उस बात पर अपनी मुहर लगाते हुए हमारे देश की सबसे बड़ी अदालत ने ये साबित कर दिखाया है कि इंसाफ़ अभी जिंदा है. हमें अपनी सर्वोच्च न्यायपालिका पर इसलिये भी फ़ख्र होना चाहिये कि वो न तो सरकार से डरती है और न ही उसके आगे झुकती है.उसे मौजूदा हालात को देखते हुए भारतीय संविधान के भीतर अपना जो फैसला सुनाना होता है,उसे सुनाने में जरा भी हिचक नहीं करती. अब भले ही सरकार में बैठे हुक्मरानों को वो नापसंद हो और वे अपनी नाक-भौं सिकोड़ते रहें लेकिन इंसाफ देने का पहला दस्तूर ही ये है कि वो सिर्फ होना ही नहीं चाहिए,बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए.उस मायने में देश के लोगों को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एन.वी.रमण वाली उस बेंच को सलाम करना चाहिए जिसने 152 साल पुराने राजद्रोह कानून के अमल पर फिलहाल तो रोक लगा दी है.
पिछले कुछ सालों में सरकारों ने सबसे ज्यादा और बेमुरव्वत तरीक़े से इस कानून का बेज़ा इस्तेमाल किया है.फिर चाहे वह केंद्र की सरकार हो या राज्यों की सरकारें.सरकार की खामियों को उजागर करते हुए उसके ख़िलाफ़ बोलने या लिखने पर उसकी आलोचना करने वाली हर आवाज को इसी कानून के जरिये दबाया जाता रहा है.ये कानून भारत पर बरसों तक राज करने वाली ब्रिटिश हुकूमत ने बनाया था और इसके जरिये ही भारत के स्वतंत्रता संग्राम का आंदोलन छेड़ने वाले महात्मा गांधी की आवाज़ को भी चुप करा दिया गया था.
दरअसल,बुधवार का दिन सिर्फ न्यायपालिका के लिए ही नहीं बल्कि देश के लोकतंत्र में एक आम नागरिक को मिले संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिहाज़ से भी महत्वपूर्ण था.केंद्र सरकार की तमाम दलीलों को ठुकराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 1870 में बने राजद्रोह कानून (Sedition Law) पर अगले जुलाई महीने तक रोक लगा दी है. कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि अब कोई नई एफआईआर दर्ज नहीं की जाएगी.कोर्ट ने ये भी कहा कि राजद्रोह कानून की समीक्षा होने तक सरकारें धारा 124A में कोई केस दर्ज न करें और न ही इसमें कोई जांच करें. राजद्रोह कानून के प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिका पर अब अगली सुनवाई जुलाई में होगी.
केंद्र की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता (SG Tushar Mehta) ने प्रधान न्यायाधीश एन. वी. रमण, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ के सामने अदालत में सरकार का पक्ष रखते हुए कहा कि हमें राजद्रोह के हर मामलों की गंभीरता का नहीं पता है. इनमें कोई मनी लांड्रिंग से जुड़ा हो सकता है या फिर आतंकी गतिविधियों से. लंबित मामले अदालत के सामने हैं. हमें अदालतों पर भरोसा करने की जरूरत है. केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से ये भी कहा कि संविधान पीठ द्वारा बरकरार रखे गए राजद्रोह के प्रावधानों पर रोक लगाने के लिए कोई आदेश पारित करना सही तरीका नहीं हो सकता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की सारी दलीलों को खारिज कर दिया.
न्यायपालिका को बेवकूफ बनाने के सरकार के इस बर्ताव से सुप्रीम कोर्ट आखिर क्यों नाराज हुआ, उसे समझना भी जरुरी है. दरअसल,राजद्रोह कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गई थीं और उन पर लगातार सुनवाई हुई. सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर कहा गया कि, राजद्रोह कानून में बदलाव की कोई जरूरत नहीं है. लेकिन कोर्ट ने सभी पक्षों को अपना बयान स्पष्ट करने का पर्याप्त वक्त दिया.
लेकिन अगली सुनवाई से ठीक पहले ही केंद्र सरकार के महाअधिवक्ता ने कोर्ट के मूड को भांप लिया कि वो सरकार के खिलाफ क्या आदेश दे सकता है. लिहाजा, सुनवाई से ठीक पहले केंद्र सरकार की तरफ से दूसरा हलफनामा दाखिल किया गया, जिसमें सरकार ने कहा कि वो राजद्रोह कानून पर पुनर्विचार करने और इसकी खामियों की जांच के लिए तैयार है. साथ ही कोर्ट से कहा गया कि जब तक जांच होती है, तब तक कोर्ट इसमें कोई दखल न दे.लेकिन ये सरकार के अपने पहले दिए हलफनामे से मुकरने वाली बात थी,ये जानते हुए भी कि सर्वोच्च अदालत के माननीय न्यायाधीश किसी लॉ कॉलेज के विद्यार्थी नहीं हैं.
कानूनी जानकारों के मुताबिक यही वजह रही कि केंद्र के हलफनामे में छुपी इन कानूनी चालबाजियों को समझने में माननीय न्यायाधीशों को जरा भी देर नहीं लगी और केंद्र सरकार को मुंह की खानी पड़ी.सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रुख अपनाते हुए साफ-साफ कहा कि राजद्रोह कानून में बदलाव जरूरी हैं. कोर्ट ने अपने आदेश में कहा, ‘‘हम उम्मीद करते हैं कि जब तक कानून के उक्त प्रावधान पर फिर से विचार नहीं किया जाता है, तब तक केंद्र और राज्य नई प्राथमिकियां दर्ज करने, भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के तहत कोई जांच करने या कोई दंडात्मक कार्रवाई करने से बचेंगे.’’
चूंकि सुप्रीम कोर्ट का ये एक ऐसा फैसला है जिसकी विपक्षी दलों को तारीफ तो करनी ही थी क्योंकि इस कानून का इस्तेमाल विपक्षी नेताओं या मीडिया में सरकार की आलोचना करने वालों के लिए ही सबसे ज्यादा किया जाता रहा है.इसलिए विपक्षी दलों ने इसकी तारीफ करते हुए सरकार पर हमला बोलने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी. कांग्रेस ने कहा कि देश की शीर्ष अदालत ने यह संदेश दिया है कि सत्ता को आईना दिखाना राजद्रोह नहीं हो सकता. पार्टी ने ये भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश से यह भी साबित हो गया है कि अब इस कानून को खत्म करना ही वक्त का तकाजा है.
इस मामले पर राहुल गांधी ने अपने ट्वीट में लिखा कि, ‘‘सच बोलना देशभक्ति है, देशद्रोह नहीं. सच कहना देश प्रेम है, देशद्रोह नहीं. सच सुनना राजधर्म है, सच कुचलना राजहठ है. डरिए मत!’’ ये जानना जरुरी है कि गुलाम भारत में सर्वप्रथम इस कानून का इस्तेमाल साल 1891 में एक अखबार के संपादक जोगेंद्र चंद्र बोस के खिलाफ किया गया था. उन पर आरोप था कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध लेख लिखा था.
उसके बाद इस कानून के तहत ही साल 1922 में महात्मा गांधी पर भी 'यंग इंडिया' में लिखे उनके लेखों के कारण राजद्रोह का मुकदमा दायर किया गया था. मुकदमा दायर होने के बाद महात्मा गांधी ने उस वक़्त के ब्रिटिश मीडिया से कहा था, "मैं जानता हूँ कि इस कानून के तहत अब तक कई महान लोगों पर मुकदमा चलाया गया है और इसलिए मैं इसे अपने लिए एक बड़े सम्मान के रूप में देखता हूं." लिहाजा,अपने देश की निर्भीक,निष्पक्ष और निडर न्यायपालिका का सम्मान अब इसलिये और भी बढ़ जाता है कि वह किसी सरकार के झूठ को सच मानने के लिए इसलिए तैयार नहीं है कि वो हम सबको संविधान में मिली अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा करने के लिए किसी भी सरकार से ज्यादा फिक्रमंद है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)