नयी दिल्लीः सुप्रीम कोर्ट ने सांसदों और विधायकों के खिलाफ दर्ज मुकदमों को लेकर आज जो महत्वपूर्ण आदेश दिया है,उसकी तारीफ इसलिये भी की जानी चाहिए अब राज्य सरकारों पर एक तरह से शिकंजा कस गया कि वे ऐसे मामलों में अब कोई राजनीतिक पक्षपात न कर सकें. शीर्ष अदालत ने अपने आदेश में कहा है कि हाई कोर्ट की इजाजत के बिना अब राज्य सरकारें सांसदों और विधायकों के खिलाफ दर्ज मुकदमा वापस नहीं ले सकेंगी. यानी अब मुकदमे वापस लेने में राज्य सरकार की नहीं बल्कि हाइकोर्ट की मर्ज़ी ही चलेगी. दूसरे शब्दों में कहें, तो सुप्रीम कोर्ट ने देश के सारे मुख्यमंत्रियों को तगड़ा झटका देते हुए संदेश दिया है कि न्यायपालिका को मिले अधिकारों में उनका दखल बर्दाश्त नहीं होगा.


दरअसल, सुप्रीम कोर्ट उस याचिका पर सुनवाई कर रहा है जिसमें मौजूदा और पूर्व सांसदों व विधायकों के  खिलाफ लंबित मुकदमों के जल्द निपटारे के लिए हर राज्य में विशेष कोर्ट बनाने की मांग की गई है. ये याचिका दायर करने का मकसद भी यही है कि  पिछले कुछ सालों में कई राज्य सरकारों ने राजनीतिक पक्षपात करते हुए जनप्रतिनिधियों के खिलाफ दर्ज मुकदमों को वापस लिया है लेकिन सार्वजनिक रूप से उसका कोई ठोस कारण नहीं बताया गया. हाल ही में यूपी सरकार ने भी मुजफ्फरनगर दंगों के 77 मुकदमे वापस लेने के लिए भी ऐसा ही एक आदेश जारी किया है.


शीर्ष अदालत ने इस मामले में कोर्ट की मदद करने और सभी तथ्यों को निष्पक्ष रुप से सामने लाने के लिए वरिष्ठ वकील विजय हंसारिया को एमिकस क्यूरी नियुक्त किया था. उन्होंने कोर्ट को दी गई अपनी रिपोर्ट में साफ शब्दों में बताया है कि कई राज्यों में सरकार बिना उचित कारण बताए जनप्रतिनिधियों के मुकदमे वापस ले रही है. लेकिन जो मुकदमे अभी लंबित हैं,उनके आरोपों की गंभीरता के लिहाज से अगर उनकी संख्या देखें, तो वह चिंता का विषय है, लिहाज़ा कोर्ट को इस पर कोई निर्देश जारी करने चाहिए.


कहते हैं कि राजनीति को अपराध मुक्त करने की जरुरत है लेकिन जो आंकड़े सामने आए हैं,वे हैरान करने वाले हैं और ऐसा लगता है कि राजनीति ही अपराध की शरणगाह बनती जा रही है. हंसारिया ने अपनी जो रिपोर्ट कोर्ट को सौंपी है,वो सीबीआई,प्रवर्तन निदेशालय और राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) से मिली रिपोर्ट के आधार पर तैयार की गई है.इसमें बताया गया है कि 51 सांसदों और 71 विधायकों के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग के मुकदमे दर्ज हैं.


इससे भी ज्यादा हैरतअंगेज ये है कि कुल 151 जनप्रतिनिधियों के खिलाफ संगीन किस्म के मामले देश की विशेष अदालतों में लंबित हैं.इनमें से 58 मामले ऐसे हैं जिसमे उम्र कैद की सजा का प्रावधान है और अधिकतर मामले बरसों से फैसला होने की बाट जोह रहे हैं.


ये रिपोर्ट देखने के बाद ही कोर्ट को अपनी नाराजगी जताते हुए सख़्त रुख अपनाने पर मजबूर होना पड़ा. चीफ जस्टिस एन वी रमना ने कहा, "हमारे पास बहुत समय है. शायद एजेंसियों के पास इतना वक़्त नहीं है कि वह समीक्षा कर सकें कि आखिर क्या समस्या है. हम बहुत कुछ कह सकते हैं, लेकिन ऐसा नहीं करना चाहते." चीफ जस्टिस ने केंद्रीय जांच एजेंसियों के लिए पेश हुए सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता के प्रति तल्खी दिखाते हुए कहा, "आपकी रिपोर्ट संतोषजनक नहीं है. 15-20 साल तक चार्जशीट दाखिल न करने का कोई कारण नहीं बताया गया है. कुछ मामलों में विवादित संपत्ति तो जब्त की गई  लेकिन आगे कोई कार्रवाई नहीं की."


हैरानी की बात तो ये भी है कि जांच एजेंसियां देश की शीर्ष अदालत को भी कितने हल्के में लेती हैं.प्रवर्त्तन निदेशालय यानी ED की तरफ से पेश स्टेटस रिपोर्ट पर सुप्रीम कोर्ट ने असंतुष्टि जताते हुए कहा कि ये तो केवल कागज़ का दस्ता है. कोई प्रॉपर फॉर्मेंट में नहीं है. इसमें पूरी जानकारी नहीं दी गई है. इस पर तुषार मेहता ने कोर्ट से कुछ और वक़्त देने की गुहार लगाई, ताकि फॉर्मेंट के हिसाब से स्टेटस रिपोर्ट दाख़िल की जा सके.हालांकि इसके लिए कोर्ट ने दो हफ्ते का समय तो दे दिया लेकिन इससे पता चलता है कि जांच एजेंसियों के तौर-तरीकों और उनकी निष्पक्षता पर अगर सवाल उठाए जाते हैं,तो वे गलत नहीं होते.



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